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न्यूज क्लिपिंग्स् | पूरे देश में माइनिंग के नाम पर लूट चल रही है- सरोज त्रिपाठी

पूरे देश में माइनिंग के नाम पर लूट चल रही है- सरोज त्रिपाठी

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published Published on Nov 8, 2010   modified Modified on Nov 8, 2010
संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार माइंस ऐंड मिनरल्स बिल -2010 पेश करने का इरादा रखती है। प्रस्तावित बिल के

मुताबिक, और बातों के अलावा माइनिंग कराने वालों के लिए यह जरूरी होगा कि वे अपने मुनाफे का 26 प्रतिशत हिस्सा उन लोगों के साथ शेयर करें, जो उनकी माइनिंग परियोजनाओं से प्रभावित हो रहे हैं। एक तरफ उद्योग जगत इस प्रस्तावित प्रावधान का जोरदार विरोध कर रहा है। दूसरी तरफ सरकारी मशीनरी यह प्रचार करने में जुटी है कि वह माइनिंग से प्रभावित आदिवासियों के कल्याण के लिए एक क्रांतिकारी पहल कर रही है। सचाई यह है कि इस कानून के लागू होने के बाद एक आदिवासी को सालाना लगभग 400 रु. या औसतन एक रु. प्रतिदिन मिलने की संभावना होगी।

एक रु. प्रतिदिन
26 प्रतिशत प्रॉफिट शेयरिंग के प्रावधान का विरोध कर रही कंपनियों का कहना है कि इससे माइनिंग ऑपरेशन अनुत्पादक बन जाएगा। माइनिंग सेक्टर में निवेश प्रभावित होगा। कंपनियों की यह दलील तो थोथी है ही, इसमें आदिवासियों के कल्याण की बात भी सफेद झूठ है। सरकारी सूत्रों के अनुसार देश में बड़े मिनरल उत्पादक 10 राज्यों में 1,161 कंपनियां ऑपरेट करते हैं। सन 2008-09 में इन कंपनियों ने राज्यों को 2,1919 करोड़ रु. की रॉयल्टी दी। भारत के रजिस्ट्रार जनरल के मुताबिक इन 10 राज्यों की आदिवासी आबादी 2001 की जनगणना के मुताबिक 5.89 करोड़ है। अब यह आबादी बढ़ कर छह करोड़ से उपर हो गई होगी।

प्रस्तावित विधेयक के मुताबिक कंपनियों को अपने शुद्ध लाभ का 26 प्रतिशत या राज्य को भुगतान की गई रॉयल्टी के बराबर की राशि -इनमें से जो भी ज्यादा हो, उतनी राशि माइनिंग से प्रभावित आबादी से शेयर करनी होगी। इसमें मुनाफे की जो बात कही जा रही है, उसके बारे में यह बात जगजाहिर है कि अधिकांश माइनिंग कंपनियां कागज पर घाटे में चलती हैं। उनकी मुख्य कमाई अवैध माइनिंग से होती है।

अब यदि कंपनी को उसके द्वारा भुगतान की गई रॉयल्टी की राशि के बराबर की राशि आदिवासियों से शेयर करनी है, तो प्रत्येक आदिवासी को लगभग 400 रु. सालाना मिलेगा। यदि यह भी मान लिया जाए कि प्रत्येक आदिवासी मुआवजा पाने के लिए एलिजिबल नहीं होगा, तो भी एलिजिबल आदिवासी को 400 रु. सालाना या एक रु. प्रतिदिन से कुछ ही ज्यादा राशि मिल पाएगी।

आदिवासियों के लिए अभिशाप
भारत की मिनरल संपदा आदिवासी इलाकों में ही बिखरी है। यही बात उनके लिए अभिशाप साबित हो रही है। विकास के नाम पर आदिवासियों को उनके प्राकृतिक संसाधनों यानी जल, जंगल और जमीन से वंचित करने का सिलसिला 20 वीं सदी की शुरुआत से ही लगातार जारी है। इन जंगलों में रहने वाले लाखों आदिवासियों को अब तक उनकी वनभूमि और वनोत्पादों से वंचित किया जा चुका है। करोड़ों आदिवासियों ने अपनी आंखों के सामने अपनी आजीविका का साधन छिनते देखा है। वे देख रहे हैं कि उनकी भूमि पर माइनिंग ऑपरेशन करने वाले करोड़ों की कमाई कर रहे हैं, जबकि आदिवासी की लंगोट का आकार लगातार छोटा होता जा रहा है। अपनी ही जमीन पर लाखों आदिवासी अतिक्रमणकारी घोषित कर दिए गए और बंधुआ मजदूर बनने के मजबूर किए गए।

उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और झारखंड मिनरल्स की दृष्टि से देश के सबसे समृद्ध प्रदेश है, जबकि वहां के मूल निवासियों का शुमार देश के निर्धनतम लोगों में होता है। निहित स्वार्थों द्वारा यह भ्रम फैलाया जाता है कि माइनिंग से आदिवासियों को रोजगार मिलेगा, जबकि तथ्य इसके ठीक विपरीत है। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम जिले की अराक घाटी में माइनिंग ऑपरेशन में महज 400 लोगों को काम मिलेगा, जबकि इससे लगभग एक लाख लोग बेघर हो जाएंगे।

वैध से ज्यादा अवैध माइंस
सरकारी एजेंसियों के मुताबिक देश में वैध माइंस से ज्यादा अवैध माइंस हैं। पूरे देश में लगभग 15 हजार अवैध माइंस हैं जबकि वैध माइंस की संख्या आठ हजार सात सौ है। अधिकांश इलाकों में माइनर्स राजनीतिज्ञों के सहयोग से ऑपरेट करते हैं। इसका एक उदाहरण ब्रिटेन स्थित अनिल अग्रवाल के मालिकाने वाली वेदांत समूह है। वेदांत लांजीगढ़ स्थित अपनी रिफाइनरी के लिए 14 माइंस से बॉक्साइट का दोहन कर रहा था, जबकि 14 में से 11 को माइनिंग का लाइसेंस ही नहीं मिला था। दो को केवल र्टम्स ऑफ रेफरेंस मिला था। महज एक को माइनिंग लाइसेंस मिला था।

रिफाइनरी की स्थापना के समय से ही स्थानीय लोग उसका विरोध कर रहे थे। लेकिन जनता की मांगों और आंदोलनों को दरकिनार करते हुए उड़ीसा सरकार ने रिफाइनरी की क्षमता एक मिलियन टन से बढ़ाकर छह मिलियन टन करने की अनुमति दे दी। जन आक्रोश को देखते हुए केंदीय पर्यावरण मंत्रालय ने 24 अगस्त 2010 को नियामगिरि के वनों की कटाई कर बॉक्साइट माइनिंग को मंजूरी देने से इनकार कर दिया। लेकिन वेदांत का विचार ठंडा होने से पहले ही महाराष्ट्र सरकार ने पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील सिंधुदुर्ग जिले में लौह और बॉक्साइट माइनिंग के लिए 49 लीजों को हरी झंडी देकर एक नया तूफान खड़ा कर दिया है।

कई माइनर्स खुद राजनीति में शिरकत करते हैं और सरकार में रहते हुए वैध तथा अवैध माइनिंग का धंधा करते रहते हैं। बेल्लारी जिले के रेड्डी बंधु कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में एक बड़ी राजनीतिक हैसियत हासिल कर चुके हैं। अवैध माइनिंग से होने वाली आय का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2006 से 2008 के दौरान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान मधु कोडा और उनकी चांडाल चौकड़ी ने कंपनियों को महज माइनिंग लीज देने की सिफारिश कर चार हजार करोड़ रु. से ज्यादा राशि हड़प ली। यकीनन लीज पाने वाली कंपनियां इससे कई गुना ज्यादा मुनाफा कमाएंगी। लेकिन 2001 से 2010 के दौरान नौ वर्षों में सरकार को रॉयल्टी से महज 10 करोड़ रु. मिले।

इसलिए मुख्य मुद्दा यह है कि पर्यावरण और सामाजिक तौर से स्वीकार्य माइनिंग कैसे की जाए। यह तो नहीं कहा जा सकता कि माइनिंग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया जाए। इसके लिए सिर्फ कानून बनाना भी कभी पर्याप्त नहीं होगा। हमें ऐसा तंत्र विकसित करना होगा जो इस लूट और शोषण को प्रभावी ढंग से रोक सके।

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/6884372.cms


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