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न्यूज क्लिपिंग्स् | पूर्वोत्तर की भीतरी और बाहरी विडंबनाएं- रामचंद्र गुहा

पूर्वोत्तर की भीतरी और बाहरी विडंबनाएं- रामचंद्र गुहा

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published Published on Jul 11, 2019   modified Modified on Jul 11, 2019
विडंबना और शायद त्रासदी यह है कि हमारे देश के सबसे खूबसूरत हिस्से संघर्ष और हिंसा से सबसे ज्यादा ग्रस्त हैं। इसमें कश्मीर घाटी, मध्य भारत (विशेषकर बस्तर) के जंगल, और पूर्वोत्तर के राज्य शामिल हैं। मानवशास्त्री वेरियर एल्विन की धारा का अनुकरण करते हुए 1990 के दशक में मैंने पूर्वोत्तर का दौरा किया था। एल्विन इंग्लैंड में जन्मे और पढ़े-लिखे थे, युवा वय में भारत आए, तो फिर नहीं लौटे। 1930 और 1940 के दशक में उन्होंने मध्य भारत के आदिवासियों के साथ काम किया और उन पर लिखा। वर्ष 1954 में, तब तक वह भारतीय नागरिक बन चुके थे, आदिवासी मामलों में सरकार के सलाहकार के रूप में शिलांग आ गए। 1964 में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी पत्नी और बच्चे वहीं शिलांग में ही रह गए, जहां उनसे मेरी भेंट हुई थी।


एल्विन से जुड़ाव ने पूर्वोत्तर के प्रति जो रुचि पैदा की, वह बरकरार रही। आजादी के सात दशकों में पूर्वोत्तर ने दो तरह के संघर्ष देखे हैं। पहला, विद्रोहियों और भारतीय राज्य के बीच संघर्ष, जैसे नगा व मिजो विद्रोही और असम में उल्फा की गतिविधियां। दूसरा, क्षेत्र के अंदर ही रहने वाले भिन्न-भिन्न समुदायों या जातीय समूहों के बीच संघर्ष। विद्वानों और लेखकों ने अब तक पहले किस्म के संघर्ष पर ही ज्यादा फोकस किया है, क्योंकि ये संघर्ष राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व से सीधे टकराते हैं। दूसरी तरह के उन संघर्ष पर कम ध्यान गया है, जिनका यहां के रोजमर्रा के अनुभवों से गहरा सरोकार है। शायद स्थितियां अब बदल रही हैं। मैंने हाल ही में इस पूरे क्षेत्र के लेखकों के लेखों का प्रीति गिल और सम्राट द्वारा संपादित संग्रह देखा है- इनसाइडर आउटसाइडर : बीलॉन्गिंग ऐंड अनबीलॉन्गिंग इन नार्थ-ईस्ट इंडिया।


पुस्तक का परिचय एक केंद्रीय विरोधाभास प्रस्तुत करता है। जो समुदाय भारत और पूर्वोत्तर भारत के आस-पास के देशों में बहुसंख्यक हैं, वे इस क्षेत्र में बहुधा अल्पसंख्यकों की तरह रहते हैं। साथ ही, स्थानीय समुदायों में यह भय है कि प्रवासी उन पर हावी हो जाएंगे। पुस्तक में शामिल कुछ बेहतरीन लेख शिलांग शहर पर केंद्रित हैं। वेरियर एल्विन 1950 के दशक में जब मध्य भारत से शिलांग आए थे, तब उन्होंने इसे करामाती पाया था, इसके देवदार के वन और जानदार मौसम से उन्हें आल्पस की याद हो आई थी। उन्होंने इंग्लैंड में रहने वाली अपनी मां को लिखा- काश, हम हमेशा यहां रह पाते। हवा शानदार है, स्विस हवा की तरह, और शायद यह मेरे जीवन में दस वर्ष जोड़ देगी।


आज भी वहां पर मौसम वैसा ही रहता है, लेकिन शिलांग बदल गया है। वह बड़ा, बदसूरत और ज्यादा बेलगाम हो गया है; कथित भीतरी व कथित बाहरी के बीच गहरी और व्यापक गलतियों के साथ। उपन्यासकार अंजुम हसन के उत्तर भारतीय अभिभावक 1970 के दशक में पढ़ाने के लिए शिलांग आए थे। इस किताब में हसन ने अपने बचपन में कथित बाहरियों के खिलाफ देखे दंगे को याद किया है। प्रवासियों के इस परिवार के पड़ोस तक दंगा फैल गया था। कैसे दर्जनों आदमी दरांती, चाकू, मांस काटने वाला औजार और अपने अन्य हथियारों को लहराते हुए घर के बाहर बगीचे से गुजरे थे। हम बाथरूम में छिपे थे। बच्चे रो रहे हैं, इधर-उधर भाग रहे हैं, अभिभावकों के होंठ सिले हैं। लोग हमारे चारों ओर दौड़ रहे हैं, दरवाजा पीट रहे हैं, अपशब्द कह रहे हैं। ऐसे में, बाथरूम खोलकर सुरक्षित जगह पर पहुंचने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता।


शिलांग पर एक अन्य अच्छा लेख इतिहासकार बिनायक दत्ता ने लिखा है, जो व्यक्तिगत नहीं, विश्लेषणात्मक है। यह लेख बताता है कि यह शहर प्रवासियों, बंगालियों, गोरखाओं, मारवाड़ियों, सिखों इत्यादि के आगमन से कैसे बसा। और कैसे आने वाले दशकों में पारस्परिकता और लेन-देन (जो कभी अंतर-सामुदायिक संबंधों की विशेषता थे) की जगह शत्रुता और अविश्वास ने ले ली। बिनायक ने लिखा है, संदेह और नफरत की हवा ने सामुदायिक संबंधों को आम तौर पर दूषित कर दिया। शहर मेल-जोल से हटकर खेमेबाजी में लग गया।


उत्तर भारतीय और बंगाली के रूप में क्रमश: हसन और बिनायक दत्ता शिलांग के लिए बाहरी थे। उनका योगदान उल्लेखनीय है, लेकिन काश, इस पुस्तक में एक भीतरी व्यक्ति का भी लेख शामिल होता, एक स्थानीय खासी का लेख, शहर और क्षेत्र के अपने सांस्कृतिक दावों के साथ। कोई भी यह जानना पसंद करता कि शिलांग मेघालय की राजधानी के रूप में कैसे उभरा और पूर्वोत्तर के आदिवासी समाज का आंतरिक ढांचा कैसे बदला। चुनावी राजनीति और बाजार अर्थव्यवस्था पर चूंकि पुरुष ही हावी हो गए हैं, तो क्या इससे यहां के खासी समाज में महिलाओं को परंपरागत रूप से प्राप्त आजादी और स्वायत्तता खत्म हो गई है?


इस संग्रह में शामिल सलीम एम हुसैन का लेख भी विशेष रूप से मुझे पसंद आया। असम के हुसैन बांग्ला बोलने वाले मुस्लिम हैं। उनके लेख का शीर्षक है- बढ़ते मियां। उन्होंने लिखा है, जब वह दिल्ली आए और मुस्लिम सांस्कृतिक प्रभाव वाले एक विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उत्तर भारतीय मुस्लिम हावी थे, तो यहां उन्हें अपने दोस्तों को समझाना पड़ता था कि वह उर्दू क्यों नहीं जानते और उनके घर बिरयानी कभी क्यों नहीं बनी।


अपने स्वयं के निबंध में सम्राट का तर्क है कि अभी यहां भले ही पूरी शांति और सौहार्द न हो, लेकिन पहले के दशकों में होने वाले हिंसक संघर्ष कुछ हद तक समाप्त हो गए हैं। अर्थव्यवस्था ने विभाजनकारी राजनीति को प्रभावित किया है। वह पूछते हैं, क्या असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) और प्रस्तावित एनआरसी संशोधन विधेयक के जरिए पहचान की राजनीति फिर शुरू हो गई है? पूरे पूर्वोत्तर भारत में थोड़ी-सी भी सांप्रदायिक या सामुदायिक मूर्खता हुई, तो यह क्षेत्र बुरे दौर में लौट जाएगा।


वास्तव में, पूर्वोत्तर को एनआरसी के अलावा और भी कई चीजों से खतरा है। जैसे प्रस्तुत लेख संग्रह कथित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था द्वारा इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन की बात नहीं करता। मेघालय के खदान और अरुणाचल प्रदेश की पनबिजली परियोजनाओं से भारतीय हृदय भूमि पर रहने वाले हम सभी को लाभ होगा। दूसरी ओर, जहां ये प्रोजेक्ट लगेंगे, वहां गंदगी और तबाही के मंजर रह जाएंगे। भारत में उपभोग वर्ग के दबाव में केंद्रीय राजनीति आर्थिक शोषण के जरिए ऐसे हेर-फेर करती रही है। ऐसे में पूर्वोत्तर की परेशानियां शायद जारी रहने वाली हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-hindustan-opinion-column-on-8th-july-2615082.html


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