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न्यूज क्लिपिंग्स् | पेशेवर दक्षता बनाम संघर्ष- अनिल चमड़िया

पेशेवर दक्षता बनाम संघर्ष- अनिल चमड़िया

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published Published on Oct 18, 2012   modified Modified on Oct 18, 2012
जनसत्ता 17 अक्टुबर, 2012: भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद, कई दूसरे कामों में लगे लोगों का राजनीति में वर्चस्व बढ़ा है। राजनीति में पहले किसी राजनीतिक संगठन का कार्यकर्ता होने की शर्त होती थी। अलबत्ता कुछेक दूसरे पेशों के लोग भी राजनीति में अपना प्रभाव रखते थे। इनमें खासकर वकील होते थे। लेकिन उनकी राजनीतिक सक्रियता कार्यकर्ताओं और राजनीतिक संस्कृति के दबाव में रहती थी। राजनीतिक संस्कृति से तात्पर्य उस वातावरण से भी है जो धूल-धक्कड़ और समाज के बेहद कमजोर लोगों की भावनाओं से निर्मित होता था।
इस वातावरण में आम समाज की छवि और उसे बेहतर स्थिति में पहुंचाने की ललक साफ दिखती थी। लेकिन खासतौर से भूमंडलीकरण के बाद दूसरे पेशों से आने वाले लोगों का राजनीति पर वर्चस्व बढ़ता चला गया। जब दूसरे पेशे से लोग राजनीति में आते हैं तो अपने वातावरण और संस्कृति की पृष्ठभूमि भी लेकर आते हैं। आम लोगों और उनके जीवन के साथ घुल-मिल कर एक राजनीतिक समझ और विचार का निर्माण एक अलहदा स्थिति होती है और दूसरे पेशे से जुड़ी प्रक्रियाओं से गुजरते हुए जो एक राजनीतिक समझ बनती है वह भिन्न होती है। किसी भी समस्या और उसके समाधान के लिए राजनीतिक नजरिया ही भिन्न नहीं होता, भाषा और तर्क-पद्धति भी बिल्कुल बदल जाती है।
मोटे तौर पर एक सर्वेक्षण करें और पिछले बीस वर्षों में केंद्रीय मंत्रिमंडल के बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आधार पर नजर डालें तो एक बड़ा फर्क दिखाई देगा। राजनीति में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है और राजनीतिक प्रक्रियाओं से निकल कर आने वाले लोग बेहद भ्रष्ट होते हैं, इस प्रचार ने दूसरे पेशों के लोगों के लिए बहुत जगह बनाई है। यह तथ्य कम प्रचार ज्यादा है और किसी स्थान पर कब्जा जमाने का एक जरिया है, यह बात इस एक तथ्य से साबित हो जाती है कि पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा भ्रष्टाचार है। जबकि व्यवस्था के राजनीतिक हिस्से पर दूसरे पेशों से आए लोगों का नेतृत्व और वर्चस्व है। मौजूदा प्रधानमंत्री नौकरशाह रहे हैं। इसके अलावा, जिन्हें मंत्रिमंडल के सबसे प्रभावशाली सदस्यों में गिना जाता है वे दूसरे पेशों से आकर राजनीतिक मंचों पर सक्रिय होने वाले लोग हैं।
यानी राजनीतिक कार्यकर्ता का जीवन जीने वाले लोग न सिर्फ कम हुए हैं, बल्कि वे नए राजनीतिक वातावरण के दबाव में हैं। अगर भ्रष्टाचार को राजनीतिक मंचों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आधारों में परिवर्तन की एक बड़ी वजह के रूप में स्वीकार करते हैं तो यह पूछा जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार को देखने और उसके समाधान के तौर-तरीके किस रूप में अब भिन्न दिखाई दे रहे हैं। और वे कितने तर्कपूर्ण हैं।
यहां दो उदाहरण पेश किए जा सकते हैं। जब 2-जी स्पेक्ट्रम का एक लाख पचहत्तर हजार करोड़ रुपए का घोटाला हुआ तो उसे सरकार ने मानने से इनकार कर दिया था। दूरसंचार मंत्रालय से ए राजा के हटाए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल को न केवल मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई, बल्कि उन्हें 2-जी घोटाले को महज दुष्प्रचार करार देने की रणनीति बनाने की भी जिम्मेदारी सौंपी गई। मैं भी माननीय मंत्री कपिल सिब्बल की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद था जिसमें उन्होंने 2-जी घोटाले पर अपने विद्वत्तापूर्ण तर्क पेश किए थे।
एक वकील की तरह तर्क करते हुए कपिल सिब्बल ने इस बात को कई-कई बार दोहराया था कि 2-जी स्पेक्ट्रम में जीरो नुकसान हुआ है। यानी एक पैसे का भी घोटाला नहीं हुआ है। इसके बाद 2-जी स्पेक्ट्रम को लेकर जो तथ्य सामने आए उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं है और न ही सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और निर्देशों को दोहराने की जरूरत है। वकील का काम एक पक्ष में खड़े होकर अपनी काबिलियत को प्रमाणित करना है। वह तकनीकी तौर पर तर्क में पारंगत होता है। लेकिन राजनीतिक प्रक्रिया में तकनीकी स्तर पर बचाव और हमले कारगर नहीं होते।
अगर राजनीतिक मंचों पर पिछले बीस वर्षों के दौरान जो भाषा बदली है उसका सर्वेक्षण करें तो वहां तकनीकी नजरिया हावी दिखाई देता है। तकनीकी रूप से बचने की जुगत लगाई जाती है और तकनीकी तौर पर हमले की गुंजाइश तलाशी जाती है। यह बात किसी एक पार्टी या सरकार तक सीमित नहीं रह गई है। पूरे राजनीतिक ढांचे के संदर्भ में यह बात कही जा सकती है। अकेले कपिल सिब्बल के संसद, संसद से बाहर और प्रेस वार्ताओं में दिए गए वक्तव्यों का अध्ययन करें तो यह बात पहली दृष्टि में ही साफ हो जाती है कि यह भाषा एक विद्वान वकील की भाषा है।
इसी तरह जब 2-जी स्पेक्ट्रम से बड़ा कोयला घोटाला सामने आया तो सरकार ने उसकी सफाई देने की जिम्मेदारी पी चिदंबरम को सौंपी। उन्होंने कोयला घोटाले पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि कोयला घोटाला हो ही कैसे सकता है, जबकि कोयला तो अभी निकाला ही नहीं गया है। कोयले के निकाले जाने के बाद उसकी खरीद-बिक्री होती तब तो उसमें घोटाले की बात की जा सकती थी। अगर केंद्रीय मंत्रिमंडल के विभिन्न सदस्यों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को सामने रख कर उनके बयानों का अध्ययन करें तो राजनीति की बदलती भाषा के कारणों को समझा जा सकेगा।
एक उदाहरण केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का भी हो सकता है। वे शौचालय के अभाव पर जिस तरह से प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं, उस पर गौर करें। वे कभी कहते हैं कि लोगों को शौचालय नहीं मोबाइल चाहिए। फिर वे कहते हैं कि मंदिर से ज्यादा जरूरी शौचालय हैं। इस तरह से समस्याओं को देखने और पेश करने की जो भाषा अभी दिखाई दे रही है वह आज से बीसेक साल पहले तक मौजूद नहीं थी।
अपने देश में कुछ बातें निश्चित-सी हैं। जैसे केंद्रीय मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री वही होगा जिसकी भाषा अंग्रेजी होगी। यानी यह मान कर चला गया है कि इस देश में अर्थशास्त्र की भाषा अंग्रेजी ही है। एक भी हिंदीभाषी, कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि वाले राजनीतिक को वित्तमंत्री के रूप में हम नहीं देख पाते। (माफ करें, नौकरशाह रहे यशवंत सिन्हा को यहां याद नहीं करेंगे) क्या यह सवाल खड़ा किया जा सकता है कि भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया ही राजनीतिक प्रक्रियाओं की विरोधी है? वैसे यह पूरी तरह से तर्कपूर्ण और तथ्यात्मक तौर पर सही है।
भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया विचार-विमर्श की जरूरत ही महसूस नहीं करती। उसकी रूपरेखा किसी देश की जमीनी हकीकत से जुड़ कर तैयार नहीं हुई है। वह हर देश को एक खास तरीके से बनाने की योजना के रूप में सामने आई है। उसके योजनाकार यह मान कर चलते हैं कि पूरी दुनिया भूमंडलीकरण के अधीन है। उसे किसी भी मुल्क में राजनीतिक प्रक्रिया के तहत उपजे नेतृत्व की जरूरत नहीं है। उसे उस तरह के नेतृत्व की जरूरत है जो बस योजनाओं को लागू करने में यकीन करता हो। वह खुद योजनाकार न हो, सिर्फ योजनाओं को लागू करने में होशियार प्रबंधक साबित हो। इसीलिए प्रबंधन की खास तरह की पढ़ाई और प्रशिक्षण का भी बोलबाला बढ़ा है। भूमंडलीकरण के योजनाकारों को पूरी दुनिया में प्रबंधकों की एक फौज की जरूरत है।
देश की एक राजनीतिक विरासत है और उस विरासत और परंपरा पर आधारित एक राजनीतिक प्रक्रिया की अहमियत समझी जाती रही है। लेकिन भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद संसदीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों के प्रबंधकों की साख को पहले स्थापित करने के पर्याप्त तौर-तरीके अपनाए गए। इसके बाद एक प्रक्रिया के तहत, जिनके भीतर प्रबंधकीय क्षमता की संभावनाएं दिखीं उन्हें राजनीतिक जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस तरह विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रबंधकीय क्षमता के लिए मशहूर लोगों की भी पूछ बढ़ी। सांस्कृतिक तौर पर कोई धोती-कुर्ता वाला मंत्री या संसद सदस्य इस कदर दबाव में आ गया कि वह बिना टाई और कोर्ट के विदेश दौरे पर जाने की हिम्मत नहीं कर पाता है।
आखिर किसी भी मंत्री को अपने परिवेश और अपने अनुकूल वातावरण में रहने की ताकत और भरोसा कहां से मिलता है? वह भरोसा उसे अपनी राजनीतिक प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद हासिल होता है और उसे वह अपनी ताकत के रूप में इस्तेमाल करता है। लेकिन धोती-कुर्ता वाला नेता भी इस प्रक्रिया से कट गया है। उसे लगता है कि प्रबंधकीय क्षमताओं पर उसे खरा साबित होना है। राजनीति की जो नई तस्वीर उभरी है उसमें आम लोगों के लिए किए जाने वाले संघर्ष को गौण और पेशेवर दक्षता को महत्त्वपूर्ण मान लिया गया है। ऐसी स्थिति में मूल्यों के लिए जीने और दूसरों के लिए लड़ने की प्रेरणा कहां से आएगी? ऐसी प्रेरणा नहीं होगी तो देश की राजनीति में जो चौतरफा गिरावट दिख रही है वह कैसे रोकी जा सकेगी?
सामाजिक न्याय की राजनीति से भी जितने नेता निकले हैं उनके परिवेश और सरकार में उनके द्वारा जो अपनी उपलब्धियां गिनाई जाती हैं उन्हें देखें तो वे प्रबंधकीय क्षमताओं को साबित करने वाले आधार ही होंगे। मसलन, लालू यादव रेलमंत्री के रूप में यह साबित करने में लगे रहे कि कैसे आंकड़ों में वे रेल की ज्यादा से ज्यादा आमदनी दिखा सकते हैं। दबाव के स्तर को समझने के लिए ही यह उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। दरअसल, पूरी राजनीतिक प्रक्रिया ही कुंठित कर दी गई है। भूमंडलीकरण के लिए ऐसा करना जरूरी था। इसीलिए अब यह आसानी से देखा जा सकता है कि राजनीति को जन आंदोलनों की कोई परवाह नहीं। जबकि आंदोलन का अर्थ राजनीतिक सत्ता में परिवर्तन से लगाया जाता था।
देश के विभिन्न हिस्सों में जितने भी जन आंदोलन चल रहे हैं उनमें किसी भी राजनीतिक दल की भागीदारी नहीं दिखती। दलों को सिर्फ चुनाव से मतलब रह गया है। चुनाव प्रबंधकीय प्रक्रिया का हिस्सा हो गया है, इसीलिए राजनीति को आंदोलनों की कोई परवाह नहीं होती। उलटे आंदोलनों के दमन को राजनीतिक उपलब्धि के तौर पर स्थापित किया जाता है। भूमंडलीकरण की योजना आर्थिक गतिविधियों तक सीमित नहीं है। वह मुकम्मल समाज के ढांचे को बदलने की योजना है। इसीलिए संसदीय लोकतंत्र में उसके प्रतिनिधि बदल गए हैं।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/30776-2012-10-17-05-44-41


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