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न्यूज क्लिपिंग्स् | प्रबुद्ध वर्ग को आगे आना होगा-- डा. शैबाल गुप्ता

प्रबुद्ध वर्ग को आगे आना होगा-- डा. शैबाल गुप्ता

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published Published on Oct 17, 2016   modified Modified on Oct 17, 2016
किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री के लिए केंद्र सरकार के तंत्र के अभाव में शराबबंदी लागू करना अत्यंत कठिन कार्य है. मद्य निषेध को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने से उसको अमल में लाना आसान हो जाता है, क्योंकि उसका तरीका भिन्न होता है. राज्य स्तर पर इसके लिए सिर्फ राज्य की कमजोर मशीनरी के जरिये ही नहीं निपटना होता है, बल्कि वैसे पड़ोसी राज्यों की सीमाओं से भी निपटना होता है, जहां शराबबंदी नहीं है. 

ऐसी परेशानियां इस एजेंडे की राह में बड़ी बाधा हैं. इनके अलावा कुछ प्रबुद्ध वर्गों का नकारात्मक रवैया भी रोड़ा पैदा करता है. पूर्ण राजनीतिक समर्थन के बावजूद इस एजेंडे पर अमल के लिए बुद्धिजीवियों के विचारों का भी महत्व है. इस लिहाज से मद्य निषेध के बारे में महात्मा गांधी के विचार या राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत महत्वहीन हो जाते हैं. इस पृष्ठभूमि में भारत के सबसे गरीब राज्य में मद्य निषेध को सही ठहराने के लिए वैश्विक ऐतिहासिक संदर्भों में इसकी पड़ताल जरूरी है.

मद्य निषेध का सबसे पहला दर्ज ऐतिहासिक प्रमाण झिया वंश (2070 ईपू-1600 ईपू) के 'यू द ग्रेट' के काल का है. नये युग में मद्य निषेध के पीछे एकमात्र वजह धार्मिक नहीं थी. उत्तरी अमेरिका और नार्डिक राज्यों में भी मद्य निषेध का आंदोलन 'नैतिक' और 'आत्मसंयम' की छत्रछाया में चल रहा था. पहला सदाचार संबंधी कारण और दूसरा भोजन से संबंधित वैकल्पिक 'प्रोटेस्टेंट' एथिक्स भी इसी कड़ी में हैं. इसी ने पूंजीवाद की नींव रखी, जैसा मार्क्स वेबर ने कहा है. 

प्रोटेस्टेंट नैतिकता मितव्ययिता और बचत पर आधारित है. इसी वजह से उन आंदोलनों ने मद्य निषेध का समर्थन किया. इसकी गूंज पूंजी निर्माण के शुरुआती दिनों और औद्योगिक क्रांति में भी सुनाई देती है. 

अमेरिकी गृह युद्ध के दोनों पक्ष भी मद्य निषेध के सवाल पर एकमत थे. इन दोनों धाराओं का मानना था कि मद्य निषेध से धन संग्रह होता है. पूंजी संग्रह के अकाट्य तर्क की वजह से अमेरिकी संविधान में 18वां संशोधन हुआ और शराबबंदी लागू हुई, जो 1929 के महामंदी तक जारी रही. वर्ष 1932 में फ्रैंकलीन रूजवेल्ट ने इसे हटा दिया था.

जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मद्य निषेध लागू किया, तो वह केवल परोपकार की दृष्टि से उठाया गया कदम नहीं था. अपने पहले दो कार्यकाल में उन्होंने महिलाओं का एक बहुत बड़ा मतदाता वर्ग तैयार किया, जो उनसे शराबबंदी का बड़ा वादा चाहता था. यह महिला मतदाता वर्ग पंचायती राज संस्थाओं में 'सकारात्मक पक्षपात की नीति' की वजह से न सिर्फ राजनीतिक रूप से सशक्त था, बल्कि जीविका के माध्यम से आर्थिक सशक्तीकरण का स्वाद भी चख चुका था. छोटे स्तर पर पूंजी निर्माण में सबसे बड़ी बाधा घर के पुरुषों में शराब की लत उत्पन्न कर रही थी. अगर यूरोप और उत्तरी अमेरिका के 'बॉटम अप' कैपिटलिज्म का बिना उनके आंदोलनों का फायदा लिए बिहार में अनुसरण करना था, तो मद्य निषेध बहुत जरूरी था. 

बिहार देश के उन कुछ राज्यों में से है, जिसका विकास पिछले दशक में दस फीसदी की दर से हुआ है. राज्य के प्रति व्यक्ति आय में अच्छी बढ़ोतरी हुई है. कई जगहों पर यह देखा गया है कि आय बढ़ने के साथ शराब का उपभोग भी बढ़ा. बिहार समेत देश के अनेक हिस्सों में जमीन के बदले मिले मुआवजे को कई लोग मद्यपान का उत्सव मनाने में खर्च करते हैं या महंगी शादियों में उड़ाते हैं. 

शराब की लत को एक तरह से बड़े लोगों के रहन-सहन की नकल माना जाता है. कई साहित्यकारों ने शराब की स्तुति में खूब लिखा है. पर, बिहार जैसे राज्य के लिए यह एक आपदा की तरह है. बॉटम अप या टॉप डाउन कोशिशों की बदौलत जिस पूंजी का निर्माण होता है, वह शराब पीने में खर्च हो जाता है, जो पूरी तरह से अनुत्पादक खर्च है. यह सही है कि मद्य निषेध लागू करने से बिहार को छह हजार करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान उठाना पड़ेगा. 

यह राजस्व करीब 14,000 करोड़ रुपये की शराब की बिक्री से प्राप्त होता था. लेकिन, अगर शराब पर खर्च होनेवाले पैसे को शिक्षा, स्वास्थ्य या उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद जैसे उत्पादक निवेश की तरफ मोड़ दिया जाये, तो इससे न सिर्फ राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कई गुना वृद्धि होगी, बल्कि परिवार भी समर्थ होंगे. पूंजीवाद या औद्योगिक क्रांति की सफलता का आधार सिर्फ तकनीक और प्रबंधन की नीतियां नहीं थीं, बल्कि प्रोटेस्टेंट नैतिकता और सोच में मौलिक बदलाव भी बड़े कारक थे. 

शराबबंदी में सबसे बड़ी बाधा अवैध तरीके से शराब बनाना और बेचना है. ऐसी कोई गारंटी नहीं है कि अगर मद्य निषेध हटा लिया जाये, तो अन्य नशीले पदार्थ बाजार से बाहर हो जायेंगे. अमेरिका में मद्य निषेध हटाने की सबसे बड़ी वजह अवैध तरीके से शराब बनाना और बेचना था. वहां मद्य निषेध कानून हटाने के बाद भी नशीले पदार्थों के कारोबारी माफिया की ताकत को कम नहीं किया जा सका है. 

उत्तरी अमेरिका में नारकोटिक्स का एक बहुत बड़ा बाजार है. लैटिन अमेरिका में माफिया इतने ताकतवर हो गये हैं कि वे शासन तंत्र को भी चुनौती देते रहते हैं. सत्तर के दशक में गांजा तस्कर बेगूसराय के कामदेव सिंह के पास राजनीतिक ताकत भी थी. उस समय राज्य में शराबबंदी नहीं थी. गांजा की बदौलत वह राजनीतिक गुंडा बन गये और मतदान केंद्रों पर कब्जा करने लगे. इस ताकत की भयावहता के कारण ही अंतत: उनकी हत्या कर दी गयी.

संभव है कि आज भी छोटे स्तर पर अवैध रूप से शराब का कारोबार हो रहा होगा. परंतु राज्य में एक समर्थ सरकार होने तथा शहाबुद्दीन और अनंत सिंह जैसों के जेल में होने की वजह से अमेरिका के अल कपोने जैसे माफिया बिहार में नहीं हो सकते. मद्य निषेध समस्याओं को पैदा होने से पहले ही खत्म करने की दिशा में एक पहल है. मारियो पूजो के उपन्यास 'द गॉडफादर' का पात्र विटो कोरलिओन ने भी विरगिल सोल्लोज्जो के ड्रग्स के कारोबार में पैसा लगाने से इनकार कर दिया था. 

वैसे कोरलिओन जुआ और भ्रष्टाचार में लिप्त था, लेकिन ड्रग्स के कारोबार से दूर रहता था. उसका मानना था कि इससे अमेरिका की आनेवाली पीढ़ियां बरबाद हो जायेंगी. दिलचस्प है कि कोरलिओन पर न तो नैतिक मूल्यों का प्रभाव था और न ही पूंजीवादी सिद्धांत के बारे में उसे ज्ञान था. विटो कोरलिओन भविष्य के बारे में जो सोच सकता था, बिहार के बुद्धिजीवी उसे क्यों नहीं समझ पा रहे हैं!

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/877763.html


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