Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | फंदे में फांसी- विशेष प्रस्तुति(प्रभात खबर)

फंदे में फांसी- विशेष प्रस्तुति(प्रभात खबर)

Share this article Share this article
published Published on Aug 3, 2015   modified Modified on Aug 3, 2015
फांसी की सजा को खत्म करने पर एक बहस दुनियाभर में सालों से चल रही है. भारत में भी मुंबई धमाकों के दोषी याकूब मेमन की फांसी दिये जाने से पहले 291 प्रतिष्ठित लोगों ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिख कर फांसी रोकने की मांग की थी. 

भारत उन देशों में शामिल है, जहां फांसी की सजा पर अमल नहीं के बराबर हो रहा है. हालांकि जघन्यतम अपराध के दोषियों में कानून का भय बनाये रखने के लिए भारतीय संविधान में इसका प्रावधान है और इन्हीं प्रावधानों के तहत याकूब को अंतत: फांसी दी गयी है. 

अब यह बहस फिर से तेज है कि देश के कानून में फांसी की सजा रहनी चाहिए या नहीं. इसके पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने तर्क हैं, जिन पर गौर करते समय हमें उन लोगों की पीड़ा को भी समझने की जरूरत है, जो ऐसे जघन्यतम अपराधों से अकारण पीड़ित होते हैं. फांसी की सजा पर जारी बहस के बीच ले जा रहा है आज का समय.

मृत्युदंड पर छिड़ी बहस

सुधांशु रंजन
वरिष्ठ पत्रकार

मृत्यु दंड की वांछनीयता पर पूरे विश्व में दशकों से बहस चल रही है. अपने देश में भी जब किसी को फांसी होती है, तो इस पर जोर-शोर से बहस शुरू हो जाती है कि कानून की किताब में ऐसा प्रावधान होना चाहिए या नहीं. ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत है, जो इस दंड को खत्म करवाना चाहते हैं. 

याकूब मेमन की फांसी को लेकर भी विवाद काफी गहरा गया और उच्चतम न्यायालय की तीन जजों की एक पीठ ने एक विशेष याचिका पर मध्य रात्रि के बाद सुनवाई कर सुबह पौ फटने के पहले-पहले उसके डेथ वारंट पर वैधता की अंतिम मुहर लगा दी और उसके दो घंटे के बाद ही याकूब फांसी के तख्त पर झूल गया. याकूब के मामले में न्यायिक प्रक्रिया का पूरा पालन हुआ.

अब बहस में सवाल मृत्यु दंड की वैधता और वांछनीयता का है. इसका विरोध करनेवालों का सबसे बड़ा तर्क यह है कि यह ऐसा दंड है, जिसे पलटा नहीं जा सकता. अर्थात् फांसी होने के बाद उसे जिंदा नहीं किया जा सकता, यदि बाद में ऐसे साक्ष्य सामने आयें कि वह व्यक्ति बेगुनाह था.

इस तरह की एक घटना अमेरिका में हाल के वर्षो में हुई है. फांसी के बाद पता चला कि जिसकी हत्या के जुर्म में उसे सजा हुई, वह व्यक्ति जिंदा है. दूसरा तर्क यह है कि फांसी देना एक पाशविक कृत्य है. हत्यारे तो बर्बर होते ही हैं, किंतु बर्बरता का दमन बर्बरता से तो नहीं किया जा सकता. अर्थात् राज्य को वहशीपन या बर्बरता नहीं दिखानी चाहिए.

इस तरह का तर्क देनेवालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि दंड नीति की आवश्यकता समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए आवश्यक है. 

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने कहा था कि मृत्यु दंड समाप्त करने का अर्थ हत्यारों को एक प्रकार का जीवन बीमा देना होगा कि तुम चाहे जितनी भी हत्याएं जितनी भी बर्बरता से करो, हम तुम्हें मारेंगे नहीं. मृत्यु दंड क्रूर एवं बर्बर जरूर है, लेकिन समाज को अराजकता से बचाने के लिए ऐसे दंड की जरूरत है.

भारत में फांसी पर अमल लगभग समाप्त हो चुका है. 1995 में सर्वाधिक 13 व्यक्तियों को फांसी हुई. उसके बाद मात्र नौ व्यक्तियों को फांसी हुई. 1999 से 2003 तक एक भी फांसी नहीं हुई, 2004 में धनंजय चटर्जी को फांसी हुई. फिर 2005 से 2011 तक एक भी फांसी नहीं हुई. 

2012, 13 और 15 में एक-एक व्यक्ति को फांसी हुई. 2012 से अब तक जो तीन को फांसी हुई है, वे सभी आतंकवादी घटनाओं में अभियुक्त थे. 1980 में बच्चन सिंह बनाम पंजाब में सुप्रीम कोर्ट की 11 जजों की पीठ ने व्यवस्था दी कि विरल से विरलतम मामलों में ही मृत्यु दंड दिया जाना चाहिए. इसमें बहुमत यह था कि उन कारक तत्वों पर विचार करना जरूरी है, जो अपराध की बर्बरता को बढ़ाते या घटाते हैं. 

इसी से ‘विरल से विरलतम' मामलों में ही फांसी देने के सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ. इसमें न्यायमूर्ति पीएन भगवती ने अपनी असहमति दिखायी और उन्होंने अलग निर्णय दिया, जिसमें मृत्यु दंड के प्रावधान को संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) तथा अनुच्छेद 21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन माना. 

उन्होंने यह भी कहा कि यह हमेशा जज के ऊपर निर्भर करेगा कि किसे मृत्यु दंड दिया जाये और किसे नहीं. इसलिए जज के हाथों में इतना विवेकाधिकार होना ठीक नहीं है. उच्चतम न्यायालय ने फर्जी मुठभेड़ में हत्या किये जाने को भी विरल से विरलतम मानते हुए दोषी पुलिसकर्मियों को मृत्यु दंड देने की अनुशंसा की.

इसके 27 वर्ष बाद 2007 में रावजी मामले में सुप्रीम कोर्ट की 2 जजों की एक खंडपीठ ने निर्णय दिया कि जघन्य अपराधों में उन कारक तत्वों पर विचार नहीं किया जाना चाहिए, जो अपराधों को कम करते हों. यह बड़ा अजीब निर्णय था, जिसमें दो जजों की पीठ ने 11 जजों की संविधान पीठ के फैसले को पलट दिया. इस निर्णय के आलोक में कई मामलों में मृत्यु दंड दे दिया गया. 

बाद में 2009 में संतोष कुमार बरिया बनाम महाराष्ट्र में न्यायमूर्ति एसबी सिन्हा ने निर्णय दिया कि रावजी मामले में दिये गये फैसले का कोई कानूनी आधार नहीं है और उसके आधार पर जो मृत्यु दंड दिये गये, वे गलत हैं.

मौजूदा स्थिति यह है कि मृत्यु दंड को लेकर कोई एकरूपता नहीं है. बच्चन सिंह में संविधान पीठ के विस्तृत फैसले के बावजूद यह जज पर निर्भय करता है कि वे किसे विरल से विरलतम मानें. यानी न्यायमूर्ति भगवती की आशंका सही थी कि यह न्यायाधीशों का विवेकाधिकार होगा. 2008 में स्वामी श्रद्धानंद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक तीसरी श्रेणी का प्रतिपादन किया. न्यायालय ने कहा कि अपराध इतना जघन्य नहीं है कि इसे विरल से विरलतम की श्रेणी में रख कर मृत्यु दंड दिया जाये, परंतु ऐसा भी नहीं है कि 14 वर्ष का आजीवन कारावास दिया जाये. 

अदालत को यह उस अपराध के लिए छोटी सजा लगी और उसने आजीवन कारावास की सजा दी और स्पष्ट किया कि आजीवन का अर्थ ताउम्र जेल में रहना होगा. यानी 14 वर्ष बाद वह जेल से बाहर नहीं आ सकेगा. इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने एक नया कानून बना दिया, जो विधायिका का काम है.

मृत्यु दंड के विरुद्ध अमेरिका में पिछले एक दशक से बड़ा अभियान चल रहा है. वहां कुछ ऐसे आलेख प्रकाशित हुए कि मृत्यु दंड देने से अपराधी शहीद एवं नायक बन जाता है. आतंकवादी तो ऐसा ही चाहते हैं, इसलिए इस आधार पर मृत्यु दंड का विरोध हुआ. इसका असर अपने देश पर भी हुआ.

हालांकि संविधान से मृत्यु दंड को पूरी तरह समाप्त करना फिलहाल सही नहीं होगा, क्योंकि इससे यह भय खत्म हो जायेगा कि अपराध करने पर मौत की सजा हो सकती है. परंतु यह सजा दुर्लभतम मामलों में ही दी जानी चाहिए और इसमें एकरूपता होनी चाहिए. अभी विधि आयोग एवं नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली द्वारा कराये एक सर्वेक्षण से पता चला कि मृत्यु दंड पानेवालों में अधिकार गरीब, कमजोर वर्गो से हैं, जिनके पास अच्छे वकील की सेवा लेने की सामथ्र्य नहीं है. 

मृत्यु दंड देते वक्त इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अभियुक्त को अच्छे वकील की सेवा मिली या नहीं. लेकिन, आज के माहौल में मृत्यु दंड के प्रावधान को पूरी तरह खत्म करना उचित नहीं होगा, जब संगठित अपराध एवं आतंकवाद इस कदर बढ़ रहे हैं.

मानवाधिकारों के दौर में अजीब है मौत की सजा

महेश झा
संपादक, डीडब्ल्यू हिंदी

याकूब मेमन को फांसी देकर भारत ने एक मौका गंवा दिया है. मौत की सजा को बीते समय की बात बनाने का मौका. लेकिन, एक नया मौका मिला भी है, वह है मौत की सजा पर राष्ट्रीय बहस का मौका. इस पर कोई बहस नहीं है कि याकूब मेमन को सजा मिलनी चाहिए थी या नहीं, लेकिन यह बहस जायज है कि क्या यह सजा मौत की सजा होनी चाहिए थी.

भारत ने नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर किया है. 1989 में पास हुए एक प्रोटोकॉल में सदस्य देशों से मृत्युदंड को समाप्त करने के लिए जरूरी कदम उठाने की बात कही गयी है. भारत ने अब तक ऐसा नहीं किया है. यह अच्छा मौका था.

यूरोप में 18वीं सदी में ही मानवतावादियों ने जान लेने के शासन के अधिकार को चुनौती दी थी. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी सहित कई देशों ने इसे खत्म कर दिया और इस तरह के प्रावधान संविधान में शामिल किये. आज नैतिक और आपराधिक दोनों ही तरह से मौत की सजा पर विवाद है और गैर-सरकारी संगठन पूरे विश्व में इसकी समाप्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2007 में मृत्युदंड पर अमल को रोकने की मांग की थी.

यह सच है कि मृत्युदंड को समाप्त करने का फैसला अंतत: सरकार और संसद को ही लेना होगा. लेकिन, भारत में न्यायपालिका पहले भी कई मामलों में स्पष्ट संदेश देती रही है और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को राह दिखाती रही है. याकूब मेमन पर फैसला मार्गदर्शक साबित हो सकता था.

मुंबई की अदालत द्वारा डेथ वारंट जारी किये जाने के बाद अंतिम दिनों में जिस तरह से घटनाएं घटीं और याकूब मेमन को फांसी के फंदे से बचाने की अंतिम कानूनी कोशिशें हुईं, सुप्रीम कोर्ट में बार-बार अपील की गयी, प्रक्रियाओं का हवाला दिया गया, राज्यपाल और राष्ट्रपति के यहां दया की गुहार लगायी गयी, उसने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों पर जनमत के दबाव को भी दिखाया है.

अदालतों से न्याय और निष्पक्ष फैसले की उम्मीद की जाती है. निष्पक्ष फैसलों के लिए उन्हें मीडिया और जनमत के दबाव से मुक्त करना होगा. इसलिए उचित होगा कि मौत की सजा के औचित्य पर अब बहस हो. पूरे देश में आम लोगों सहित अपराध नियंत्रण से जुड़े सभी पक्ष खुली बहस करें और फैसला लिया जाये.

मानवाधिकारों और जीवन के अधिकार के इस युग में मौत की सजा अजीब लगती है. महात्मा गांधी ने कहा था कि आंख के बदले आंख का नतीजा होगा कि पूरी दुनिया एक दिन अंधी हो जायेगी. सजा का लक्ष्य अपराध को खत्म करना और समाज को ज्यादा सुरक्षित बनाना होना चाहिए. कानून का सम्मान उसके समक्ष बराबरी और सबों की भागीदारी से ही संभव है. 

(डीडब्ल्यू हिंदी से साभार)

फांसी के पक्ष में तर्क

- फांसी की सजा के विरोधियों का प्रमुख तर्क है कि मानव जीवन अनमोल है और जीवन का अधिकार मौलिक अधिकारों में एक है. ये तर्क पूरी तरह खारिज नहीं किये जा सकते, पर सवाल यह है कि कोई आतंकवादी अपनी इच्छा से लोगों की हत्याएं करता है या कोई सीरियल कातिल या बलात्कारी है, ऐसे अपराधियों के जीने का अधिकार हमेशा पवित्र माना जा सकता है क्या?
- मौत की सजा के स्थान पर जीवन भर सलाखों के पीछे एक छोटी कोठरी में दोषी को कैद रखने का विकल्प अधिक मानवीय नहीं माना जा सकता है, जैसा कि उम्रकैद की वकालत करनेवाले लोग सुझाव देते हैं. जो दोषी दूसरों के जीवन का मोल नहीं समझते और खुद अपनी जान की परवाह किये बिना अपराध को अंजाम देते हैं, वे मरने की चिंता नहीं करते हैं.
- खतरनाक अपराधियों को जीवित जेल में रखना उनके सहयोगियों को अधिक हिंसा और आतंक करने के लिए उत्साहित कर सकता है. कंधार विमान अपहरण प्रकरण इसका उदाहरण है और अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों के पीछे भी यह कारक हो सकता है. जेल में कैद साथियों को छुड़ाने के लिए आतंकी खतरनाक कोशिशें कर सकते हैं.
- कभी-कभी व्यापक भलाई किसी एक व्यक्ति की जान से अधिक महत्वपूर्ण हो सकती है. इसलिए भावनाओं में बह कर हमें मौत की सजा को नहीं खारिज करना चाहिए.
- किसी निदरेष को मौत की सजा देना घोर अन्याय है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून अभियुक्त को अपनी सफाई देने और खुद को निदरेष साबित करने का पूरा मौका देता है. बड़े मामलों में अदालतें भी अभियुक्तों को आवश्यक होने पर कानूनी सहायता उपलब्ध कराती हैं. दुर्भाग्य से मृत्यु दंड प्राप्त दोषी गरीब और कमजोर तबके से हैं और उन पर आम चर्चा भी नहीं होती है. इस संबंध में हमारे कानून व्यवस्था में पर्याप्त सुधार की जरूरत है ताकि इन गरीबों को कानूनी सहायता मिल सके.
- कभी-कभार हुई गलतियों के आधार पर मृत्यु दंड के प्रावधान को खारिज करना ठीक नहीं है. लेकिन इस संबंध में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि कमजोर सबूतों के आधार पर किसी को मौत की सजा न दी जा सके.
- मौत की सजा के अपराध निरोधक न होने का तर्क सबसे कमजोर तर्क है. अगर मौत से अपराधी भयभीत नहीं होंगे, तो फिर उम्रकैद से इसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है? दंड का मूल उद्देश्य समाज को संदेश देना है और इसी से हमें सही तथा गलत की समझ आती है.
- फांसी बदले की कार्रवाई नहीं है. राज्य इसीलिए कानून व्यवस्था की जिम्मेवारी लेता है कि समाज स्वयं ही बदले की भावना से हिंसक प्रतिकार न करने लगे. बदला एक मानवीय भावना है और समाज में ऐसी सोच होती है. अगर दंड का प्रावधान न हो तो समाज में अव्यवस्था और अराजकता फैल जायेगी.
- अति विकसित देशों में मौत की सजा हटाना संभव है, क्योंकि लोग कानून का पालन करते हैं और वहां राज्य मजबूत है. उसके पास ऐसे संसाधन हैं जिससे वह खतरनाक अपराधियों को भी सुधार सकता है. हम सभ्य समाज बनने की प्रक्रिया में हैं और इस स्तर पर हमें फांसी की सजा की जरूरत है.

- यह भी देखा जाना चाहिए कि आदमी का ही जीवन कीमती क्यों है, जबकि हजारों जानवरों की हत्या वैश्विक गर्मी की समस्या के समाधान के लिए कर दी जाती है, जिनसे हम स्वास्थ्य के खतरनाक मांसाहारी भोजन प्राप्त करते हैं तथा इस प्रक्रिया में हम उन जानवरों को अकारण कष्ट देते हैं.

फांसी के विरोध में तर्क

- वर्ष 2000 और 2015 के बीच देश में विभिन्न अदालतों ने 1,617 लोगों को फांसी की सजा सुनायी है. यह स्थिति तब है, जब मृत्यु दंड देने के मामले में ‘जघन्यतम अपराध' के मामलों का सिद्धांत लागू है. 
राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के अध्ययन के मुताबिक उस सजा से दंडित मुख्य रूप से गरीब, वंचित और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं. यह स्थिति बहुत कुछ अमेरिका की तरह है जहां गोरे लोगों की हत्या के दोषी काले अभियुक्तों को मृत्यु दंड मिलने की संभावना काले लोगों की हत्या के दोषी गोरे लोगों से तीन गुनी अधिक होती है.
- आपराधिक कानूनों को ‘विवेक के समुद्र में बारीकियों का द्वीप' कहा जाता है. पुलिस, अभियोजन और न्यायाधीश को विवेकानुसार काम करने का अधिकार है. राष्ट्रपति और राज्यपाल को भी अपने विवेक से दोषी की सजा को खारिज करने या बहाल रखने का अधिकार है. क्या मारने का निर्णय इस तरह से व्यक्तियों के विवेक पर छोड़ा जाना चाहिए?
- भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती ने कहा था कि मृत्यु दंड मर्जी का मामला है, क्योंकि यह जजों के व्यक्तिगत निर्णय पर निर्भर करता है. यह निर्णय उनकी प्रवृत्ति, पूर्वाग्रह, सोच और सामाजिक दर्शन पर आधारित होता है.
- देश का संविधान बनानेवाली संविधान सभा में मृत्यु दंड पर बहस हुई थी और सभा के अध्यक्ष बाबासाहेब भीमराव समेत अनेक वरिष्ठ सदस्यों ने इसे हटाने के पक्ष में राय दी थी, लेकिन अंतत: इस बारे में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार चुनी हुई संसद के ऊपर छोड़ दिया गया.
- एसकेएस बरियार बनाम महाराष्ट्र मामले में न्यायाधीश एसबी सिन्हा ने राय दी थी कि क्रूररतम और नृशंस अपराधों समेत सभी मामलों में ‘अपराधी' से जुड़ी परिस्थितियों को पूरी तरह ध्यान में रखा जाना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है कि उसके द्वारा दिये गये मृत्यु दंड के सात फैसले सही नहीं थे और उनमें दोषी के अपराध ‘जघन्यतम' अपराध की श्रेणी में नहीं थे. अदालत ने यह भी माना है कि ‘जघन्यतम' अपराध के सिद्धांत का पालन करने में सर्वोच्च न्यायालय का रुख असंगत रहा है. मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने के मामलों में भी विसंगतियां रही हैं.
- अमेरिका समेत दुनिया के विभिन्न देशों में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें मौत की सजा पाये व्यक्ति को अंतत: निदरेष पाया गया, इनमें कुछ तो मारे जाने से थोड़े समय पूर्व ही निदरेष साबित हुए. मृत्यु गलती के सुधार की किसी भी संभावना को खत्म कर देती है.
- भारत सहित अनेक देशों में किये गये अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि मौत की सजा से अपराध निरोध या नियंत्रण नहीं होता है.
- यह सजा मानवाधिकारों और मौलिक अधिकारों की व्यवस्था के विपरीत है. फांसी की सजा को मिल रहे जन-समर्थन का यह अर्थ नहीं है कि राज्य द्वारा किसी व्यक्ति का जान लेना उचित है. 

अपराधों और आतंक के कारण लोग फांसी से उम्मीद लगा बैठते हैं, जबकि राज्य को अपराधों पर नियंत्रण के लिए जरूरी और गंभीर प्रयास करने चाहिए. यह नेताओं और अन्य गणमान्य संस्थाओं का काम है कि वे इस बात को जनता के सामने स्पष्ट करें कि यह सजा अनुचित है तथा हिंसा की संस्कृति का लक्षण है, समाधान नहीं.

अगर कोई गुनहगार ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर' गुनाह करता है, तो उसे जरूर फांसी मिलनी चाहिए. फांसी का मतलब यह नहीं कि उस आरोपी को सजा, बल्कि ‘लाइकमाइंडेड' लोग जो समाज में वापस जाकर घिनौना काम करते हैं, उनको फांसी की सजा मिलनी चाहिए. फंडामेंटल प्रिंसिपल ऑफ क्रिमिनल ज्यूरिसप्रूडेंस के मद्देनजर, हमारे कानून में जो फांसी का प्रावधान है, वह सही प्रावधान है. 

लेकिन यहां मैं एक बात जरूर मानता हूं कि फांसी के मामले में देरी से फांसी का उद्देश्य अवरुद्ध होता है. इसलिए हमें कानून में ऐसा संशोधन करना होगा, ताकि ऐसे संगीन मामलों पर उचित सजा से समाज में सुधार आये. मैं चाहता हूं कि ऐसे बड़े मामलों की सुनवाई जल्द होनी चाहिए, समय-सीमा में होनी चाहिए, ताकि अदालत इन सुधार की गुंजाइश न होनेवाले मामलों में फांसी की सजा सुना सके.

- उज्ज्वल निकम, सरकारी वकील

मेरे ख्याल से फांसी का प्रावधान रहना चाहिए, क्योंकि कानून का भय समाप्त हो रहा है. इसके दो कारण हैं, एक तो हमारी जो न्यायिक प्रणाली है, वह वर्षो तक आखिरी फैसला नहीं आता. मामला लंबे समय तक खिंचने के कारण केस कमजोर सा होने लगता है. 

दूसरी यह कि अपराध सिद्धि की दर बराबर गिर रही है और अपराध की दर बढ़ रही है, क्योंकि कानून का भय कम हो रहा है. कानून में फांसी का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि बहुत से ऐसे जघन्य अपराध होते हैं, जिनमें मौत के अलावा कोई और सजा नहीं हो सकती. किसी भी मामले में फैसला जल्दी होना चाहिए, नहीं तो इंसाफ का मतलब नहीं रह जाता. समय-सीमा के भीतर ही किसी मामले पर फैसले लेने का प्रावधान होना चाहिए. 

- केटीएस तुलसी, वरिष्ठ वकील

कितने साल में कितने लोगों को फांसी हो गयी है, बात इन संख्याओं की नहीं है. यहां पर बात है नैतिकता की. पहली बात, आज से तीन हजार साल पहले, जब इतिहास में धर्मग्रंथ लिखे गये थे, और आज के बीच क्या हमारा समाज कुछ आगे आया है? दूसरी बात, रेयरेस्ट ऑफ रेयर कह कर किसी को फांसी होती है, तो वह फांसी की सजा देने का एक बहाना बन जाता है. 

तीसरी बात, किसी मामले को लेकर समाज में जो वातावरण बनाया जाता है, जिसमें जनता को कहा जाता है कि इसने किसी की जान ली है इसलिए इसकी भी जान ली जानी चाहिए, तो क्या आज हम इस पर हम कुछ सोचेंगे कि अभी भी हम उसी पुराने समाज में रह रहे हैं, जिसमें आंख के बदले आंख की बात होती थी? इसलिए फांसी की सजा पर बहस होनी चाहिए.

- जॉन दयाल, सामाजिक कार्यकर्ता

फांसी पर मेरा विरोध कुछ दूसरे तरह का है. फांसी को लेकर मेरी राय यह है कि किसी आरोपी को फांसी मिले या नहीं, इसका फैसला अभियोजन पक्ष को ही ले लेना चाहिए. आजकल प्रावधान यह है कि पूरे ट्रायल के बाद जज पर छोड़ दिया जाता है कि वह निर्णय करे कि यह मामला रेयरेस्ट ऑफ रेयर है या नहीं.

मैं यह चाहता हूं कि अभियोजन पक्ष अपने विवेक पर यह पहले से ही तय कर ले कि वह फांसी की सजा चाहता है. इसके बाद जिस आदमी के खिलाफ मुकदमा चलेगा, उसे पूरी की पूरी कानूनी सहायता दे देनी होगी. आजकल के जमाने में बहुत से ऐसे मामले हैं, जिनमें आरोपी को कानूनी सहायता नहीं मिल पाती है.

- संजय हेगड़े, वरिष्ठ वकील

(ये विचार सीएनबीसी आवाज पर बहस में व्यक्त किये गये है.)

http://www.prabhatkhabar.com/news/vishesh-aalekh/story/530013.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close