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फेसबुक और पश्चिमी पूंजीवाद- केविन रैफर्टी

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published Published on Jun 11, 2012   modified Modified on Jun 11, 2012
सिंगापुर में बीबीसी वर्ल्ड बिजनेस न्यूज का प्रस्तुतकर्ता खुशी-खुशी इस संभावना के बारे में बात कर रहा था कि अपने आईपीओ के मार्फत फेसबुक एक ‘ट्रिलियन डॉलर कंपनी’ बन सकती है। जाहिर है वह गलत था।


फेसबुक का कमजोर प्रदर्शन इस बात की ओर साफ इशारा करता है कि पश्चिमी पूंजीवाद पटरी से उतरता जा रहा है। तथाकथित वैश्विक नेता महज वक्त जाया कर रहे हैं, जबकि बुनियादी संरचनाओं के समक्ष गंभीर संकट मुंह बाए खड़े हैं।


फेसबुक (माइक्रोसॉफ्ट स्पेलचेकिंग डिवाइस द्वारा अभी तक इस शब्द को वैध नहीं माना गया है) को उचित ही 104 अरब डॉलर का मूल्यांकन मिला और उसके २८ वर्षीय संस्थापक मार्क जकरबर्ग 20 अरब डॉलर की संपत्ति वाले बेहद अमीर शख्स बन गए। लेकिन दूसरे ही दिन से शेयरों की कीमतें गिरना शुरू हुईं और तभी से लगातार गिरती जा रही हैं। इसी के साथ ही जकरबर्ग की दौलत का बड़ा हिस्सा और आईपीओ का प्रबंधन करने वाले बैंकर्स के चेहरों की मुस्कान दोनों ही गायब हो गए।


मई के अंत तक फेसबुक की शेयर कीमतें ३८ डॉलर की इनिशियल ऑफरिंग से गिरकर २९ डॉलर हो गई थीं, जिसका मतलब था कि जकरबर्ग को २ अरब डॉलर से अधिक का नुकसान हो चुका था। लेकिन कुछ सवाल अपनी जगह पर बने हुए हैं।


जैसे कि क्या कुछ निवेशकों को फेसबुक की संभावनाओं के बारे में विशेष सूचनाएं मिली थीं और क्या वाकई यह एक उपयुक्त आईपीओ था? जब बाजार में फेसबुक के शेयर चर्चा के केंद्र में थे, ठीक उसी समय जी८ सम्मेलन में दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के नेतागण बहस-मुबाहिसों में मसरूफ थे, लेकिन अर्थव्यवस्था, जॉब्स और विकास से संबंधित समस्याओं का निराकरण करने के लिए उन्होंने लगभग कुछ नहीं किया।


यूरोजोन से यूनान के बेदखल हो जाने का मतलब होगा एक बड़े पैमाने पर नुकसान, लेकिन यूनान की बेदखली की आशंका एक व्यापक समस्या का मात्र एक पहलू ही है। यह समस्या है कर्ज में डूबीं वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं और उनका डांवाडोल बैंकिंग तंत्र।


समूचा यूरोजोन एक अधपकी बुनियाद पर टिका है। यूरोजोन के २७ में १७ सदस्य यूरो को अपनी मुद्रा जरूर स्वीकारते हैं, लेकिन सभी वित्तीय मसले राष्ट्रीय सरकारों और बैंकिंग मसले राष्ट्रीय बैंकों के पाले में हैं। फिर मितव्ययिता बनाम विकास का केंद्रीय मसला है।



फ्रांस में मितव्ययिता की नीति से असहमति जताकर फ्रास्वां ओलांद जरूर निकोलस सरकोजी की कुर्सी पर काबिज होने में कामयाब रहे, लेकिन अब तक वे समझ चुके होंगे कि उन्हें कांटों का ताज मिला है। यूनान के लोग लंबे समय से आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं और अब आंदोलन की राह पर चल पड़े हैं।



कैम्प डेविड में जी८ सम्मेलन में एक उल्लेखनीय बात यह जरूर हुई कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल को मितव्ययिता की नीति पर नरमी बरतने की हिदायत दी। जी८ देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था की स्थिति मजबूत बनाने के लिए ‘सभी आवश्यक कदम उठाने हेतु’ एक साझा विज्ञप्ति पर सहमति जताई।



विज्ञप्ति में कहा गया था : हमारा उद्देश्य है विकास और रोजगार केंद्रित नीतियों को बढ़ावा देना। अक्सर मेरे मन में सवाल उठता है कि क्या इन विज्ञप्तियों पर लिखी जाने वाली बातों का विज्ञप्ति के लिए उपयोग किए जाने वाले कागज जितना भी मोल होता है? सम्मेलनों में जाया होने वाले बेशकीमती समय और बेहिसाब धन की बात तो खैर रहने ही दें।


एंगेला मर्केल वित्तीय अनुशासन के आग्रहों पर अडिग हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं अपने खर्चे बढ़ाकर आर्थिक संकट से बाहर नहीं निकल सकतीं। जर्मनी की अपनी अंदरूनी समस्याएं हैं, लेकिन ऐसे अवसर पर कोई समझदार-दूरदर्शी नेता एक ऐसी नीति बनाने की कोशिश करता, जो साझा समस्याओं का समाधान कर पातीं। दुर्भाग्यवश यूरोप में आज ऐसा कोई नेता नहीं है।


यूरोपियन एकता की चाहे जितनी बहादुरी भरी बातें की जाएं, लेकिन हकीकत तो यही है कि सभी राष्ट्रीय नेता अपने मतदाताओं के हितों के प्रति ही प्रतिबद्ध हैं। मर्केल दबंग नेत्री हैं, लेकिन उन्होंने कल्पनाशीलता के अभाव का परिचय दिया और वैकल्पिक नीतियों पर विचार भी नहीं किया।


जर्मनी को डर है कि कहीं वह एक ‘पे-मास्टर’ बनकर न रह जाए, लेकिन क्या यह सच नहीं कि यूरोप की कमजोरी का फायदा भी जर्मनी ने ही उठाया है? यूरोजोन का प्रयोग धीरे-धीरे समाप्त होने की ओर अग्रसर हो रहा है।


यूरोजोन के नेता भलीभांति जानते हैं कि यूनान कभी मितव्ययिता का समर्थन नहीं करेगा, इसके बावजूद वे उसे यूरोजोन में बनाए रखने की बात कर रहे हैं। इस माह जब तक यूनान की स्थिति स्पष्ट होगी, जब तक यूरोजोन और गहरे विरोधाभासों में फंस चुका होगा।


जहां तक फेसबुक का सवाल है तो क्या मार्क जकरबर्ग ने कंपनी के विभिन्न प्रकार के शेयर्स निर्मित कर समझदारी भरा काम किया था? कंपनी और स्टॉक्स दोनों को ही समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। २८ एक्स विक्रय और १क्क् एक्स कमाई के साथ फेसबुक का मूल्यांकन बहुत समृद्ध है।


इसकी तुलना में एप्पल का मूल्यांकन ३ एक्स विक्रय और १क् एक्स कमाई का ही है। हालांकि उपभोक्ताओं से धन कमाने के मामले में फेसबुक ने बहुत खराब प्रदर्शन किया है और वह प्रति उपयोगकर्ता मात्र पांच डॉलर की ही कमाई कर पाया है, जबकि गूगल प्रति उपयोगकर्ता 30 डॉलर और नेटफिक्स प्रति उपयोगकर्ता १४४ डॉलर कमा रहा है। फिर, चीन का रुख फेसबुक के प्रतिकूल होने का भी खासा नुकसान जकरबर्ग को झेलना पड़ा है। लगता नहीं कि निकट भविष्य में फेसबुक चीन में अपना प्रभाव स्थापित कर सकेगा।


सवाल यह भी है कि फेसबुक आधुनिक पूंजीवाद के समक्ष आखिर किस तरह का मॉडल प्रस्तुत करता है और ‘लाइक्स’ और गपशप के महिमामंडन की अपनी प्रणाली के साथ वह वास्तविक अर्थव्यवस्थाओं के लिए किस तरह का योगदान कर सकता है? इसके बावजूद पिछले महीने मार्क जकरबर्ग पूंजीवादी विश्व का अतिप्रिय बना हुआ था और दुनियाभर के अखबारों में उसकी प्रशंसा में प्रोफाइल्स प्रकाशित की जा रही थीं। पश्चिमी पूंजीवाद के हाल इन दिनों कुछ ऐसे ही हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-facebook-and-western-capitalism-3368371.html


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