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न्यूज क्लिपिंग्स् | बचपन पर मंडराता अंधेरा- पत्रलेखा चटर्जी

बचपन पर मंडराता अंधेरा- पत्रलेखा चटर्जी

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published Published on Apr 21, 2014   modified Modified on Apr 21, 2014
नरेंद्र मोदी के बाल विवाह के मुद्दे की वजह से इस सामाजिक बुराई के मद्देनजर हमारे राजनीतिक वर्ग का अस्पष्‍ट रुख एक बार फिर सामने आया है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के चारों ओर फैले चुनावी कोलाहल के माहौल में बाल विवाह पर सार्थक बहस का अभाव काफी खलने वाला है। भारत में राजनीतिक दल कन्याओं के अधिकारों पर जोर-शोर से बातें करते हैं। भाजपा के घोषणापत्र में बाल विवाह को रोकने के लिए कड़े कदम उठाने का उल्लेख है। वहीं कांग्रेस के घोषणापत्र में भी लैंगिक समानता पर काफी कुछ कहा गया है। इसके अलावा राष्‍ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को और ज्यादा ताकत देने की बात भी इसमें की गई है। लेकिन हमारे राजनेता बाल विवाह को रोकने की दिशा में क्या वाकई गंभीर हैं?

भारतीय बाल विवाह निषेध कानून में बाल विवाह को प्रोत्साहित करने वाले किसी भी शख्स को, भले ही वह माता-पिता क्यों न हों, जेल भेजने का प्रावधान है। मगर सोचने वाली बात है कि पूरे विश्व में हर वर्ष होने वाले तकरीबन छह करोड़ बाल विवाहों के 40 फीसदी जिस देश (भारत) में होते हों, वहां 2012 में 400 से भी कम लोग इस कानून की गिरफ्त में आए। परंपरा और संस्कृति के नाम पर लाखों बच्चों को बाल विवाह जैसी कुप्रथा की आग में झोंक दिया जाता है। मगर इसे खत्म करने की स्पष्‍ट रणनीति के सवाल पर चाहे वह नरेंद्र मोदी हों या दूसरे नेता, किसी के पास भी कहने को कुछ खास नहीं है। अगर नरेंद्र मोदी के परिवारजनों पर विश्वास करें, तो मोदी खुद इस कुप्रथा के शिकार रहे हैं। न तो नरेंद्र मोदी न ही देश का कोई दूसरा बड़ा नेता इस मुद्दे पर कुछ बोलता है, जबकि बाल विवाह के खिलाफ सख्त कानून होने के बावजूद देश भर में इसका प्रचलन है।

सवाल यह भी है कि क्या शहरी मध्य वर्ग का इस समस्या से कोई सरोकार है। कुछ ही दिनों बाद अक्षय तृतीया के अवसर पर देश भर में, खासकर गांवों में, हजारों कन्याएं बाल विवाह का शिकार बन जाएंगी। साल दर साल यही होता रहा है। बावजूद इसके हमारे राजनीतिक वर्ग के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। ऐसे समय में जब देश के भविष्य की बागडोर युवाओं के हाथों में है, इस कड़वी जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करना नामुमकिन है। यूनिसेफ की 2012 की रिपोर्ट कहती है, 'भारत में 20 से 24 वर्ष के बीच की कुल महिलाओं (जनगणना 2011) में से सवा दो करोड़ से भी ज्यादा को बाल विवाह का शिकार होना पड़ा।' रिपोर्ट के मुताबिक 68 फीसदी मामलों के साथ बिहार बाल विवाह में अव्वल है। जबकि सबसे कम मामले हिमाचल प्रदेश (नौ फीसदी) में सामने आए।

राजस्‍थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल भी बाल विवाह की सबसे ज्यादा घटनाओं वाले राज्यों में शामिल हैं। लैंगिक प्रथाएं, परंपरागत मूल्य, महिला सुरक्षा के परिवार के सम्मान से जुड़े होने की सोच, गरीबी, अशिक्षा, आजीविका के अवसर और कानूनों का लचर क्रियान्वयन, ये वे वजहें हैं, जो बाल विवाह की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देती हैं। पितृसत्तात्मक मूल्य की प्रधानता भी इसके लिए उत्तरदायी है। दरअसल कन्या को ऐसी संपत्ति के तौर पर देखा जाता है, जो पिता के घर से पति के घर जाती है। और इस घर को बनाए रखना ही उसका प्राथमिक कर्तव्य माना जाता है।

बाल विवाह को केवल सामाजिक मुद्दा न मानकर राजनीतिक और आर्थिक मुद्दा समझे जाने की जरूरत है। लड़कियों पर इसके कुछ ज्यादा ही घातक असर दिखते हैं। इससे न सिर्फ उनकी शैक्षिक और करियर संबंधी जरूरतें बाधित होती हैं, बल्कि उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर भी असर पड़ता है। इसका एक गंभीर खतरा यह भी होता है कि कच्ची उम्र में ही कन्याओं को मां बनने पर मजबूर होना पड़ जाता है। पिछले साल भारत सरकार ने बाल विवाह से जुड़े संयुक्त राष्‍ट्र के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया था। यह प्रस्ताव सौ देशों द्वारा समर्थित था।

भारत का तर्क था कि प्रस्ताव में कम उम्र में विवाह की जो परिभाषा दी गई है, वह स्पष्‍ट नहीं है। मगर सच तो यह है कि बाल विवाह के चलते कन्याओं का बचपन और भविष्य, दोनों ही अंधकारमय हो गए हैं। समय आ गया है कि युवाओं से वोट मांगने वाले और कन्याओं के कल्याण का ढिंढोरा पीटने वाले राजनेताओं पर कड़े कदम उठाने का दबाव बनाया जाए।

http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/childhood-in-dardness/


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