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न्यूज क्लिपिंग्स् | बचा लें अपने बच्चों का बचपन-- आशुतोष चतुर्वेदी

बचा लें अपने बच्चों का बचपन-- आशुतोष चतुर्वेदी

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published Published on May 1, 2017   modified Modified on May 1, 2017
पहले तनाव सिर्फ वयस्क लोगों में होता था, लेकिन अब इसकी चपेट में बच्चे भी आ गये हैं. बच्चों में तनाव सबसे अधिक पढ़ाई को लेकर है, माता-पिता से संवादहीनता को लेकर है. परिवार, स्कूल और कोचिंग में वे तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते और तनाव का शिकार हो जाते हैं. हमारी व्यवस्था ने उनके जीवन में अब सिर्फ पढ़ाई को ही रख छोड़ा है. रही सही कसर टेक्नोलॉजी ने पूरी कर दी है. मोबाइल और इंटरनेट ने उनका बचपन ही छीन लिया है. वे बच्चे से सीधे वयस्क बन जाते हैं. शारीरिक रूप से भले ही वे वयस्क नहीं होते, लेकिन मानसिक रूप से वे वयस्क हो जाते हैं. उनकी बातचीत, आचार-व्यवहार में यह बात साफ झलकती है.

दूसरी ओर माता पिता के पास वक्त नहीं है, उनकी अपनी समस्याएं हैं. नौकरी और कारोबार की व्यस्तताएं हैं, उसका तनाव है. और जहां मां नौकरीपेशा है, वहां संवादहीनता की स्थिति और गंभीर है.

बच्चे माता-पिता से खुलकर बात नहीं कर पाते. आप अपने आसपास गौर करें, तो बच्चों को गुमसुम, परिवार से कटा-कटा सा पाएंगे. स्कूल उन्हें अच्छा नहीं लगता, इम्तिहान उन्हें भयभीत करता है. नतीजन, वे बात-बात पर चिढ़ने लगते हैं और स्कूल और घर दोनों में आक्रामक हो जाते हैं. कई बार ऐसे अप्रिय समाचार भी सुनने को मिलते हैं कि किसी बच्चे ने तनाव के कारण आत्महत्या कर ली. आइआइटी जैसे संस्थानों के छात्र भी ऐसा कर गुजरते हैं. किसी भी समाज और देश के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है.

एक बार एक ब्रिटिश मनोविज्ञानी से मेरा आमना-सामना हुआ. वे भारत में एक रिसर्च के सिलसिले में आयीं हुईं थीं. मैंने जब उनसे पूछा कि उन्होंने भारत में क्या देखा, तो उन्होंने कहा कि भारतीय मां-बाप बच्चों को लेकर ‘नहीं' का इस्तेमाल बहुत करते हैं. वे बात बात में ‘ये नहीं',‘वह नहीं',‘ऐसा नही',‘वैसा नही',‘यहां मत जा',‘ऐसा मत कर',‘वैसा मत कर', का बहुत अधिक इस्तेमाल करते हैं.

इसमें सच्चाई भी है. उनका कहना था कि इसमें माताएं बहुत आगे हैं, जबकि ‘नहीं' शब्द का इस्तेमाल बहुत सोच-समझकर इस्तेमाल किया जाना चाहिए. इससे एक तो बच्चों में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, उनका मन विद्रोही हो सकता है, दूसरे, अत्यधिक इस्तेमाल से बच्चों पर ‘नहीं' का असर समाप्त हो जाता है. उनका कहना था कि जहां आवश्यकता हो, इसका जरूर इस्तेमाल करें, लेकिन ध्यान रखें कि आवश्यकता पड़ने पर ही इसका प्रयोग हो.

शायद आपने गौर नहीं किया कि आपके बच्चे में बहुत परिवर्तन आ चुका है. आप गौर करें कि आपके बच्चे के सोने, पढ़ने के समय, हाव भाव और खानपान सब बदल चुका है. हम या तो आंख मूंदे हैं या इसे स्वीकार नहीं करते. लेकिन आपके रोकने से ये परिवर्तन रुकने वाले नहीं है. आप सुबह पढ़ते थे, बच्चा देर रात तक जगने का आदी है. आप छह दिन काम करने के आदी हैं, बच्चा सप्ताह में पांच दिन स्कूल का आदी है, वह पांच दिन की नौकरी ही करेगा. उसे मैगी, मोमो, बर्गर, पिज्जा से प्रेम है, आपकी सूई अब भी दाल रोटी पर अटकी है.

यह व्हाट्सएप की पीढ़ी है, यह बात नहीं करती, मैसेज भेजती है, लड़के लड़कियां दिन-रात आपस में चैट करते हैं. आप अब भी फोन कॉल पर ही अटके पड़े हैं. पहले माना जाता था कि पीढ़ियां 20 साल में बदलती है, उसके बाद तकनीक ने इस परिवर्तन को 10 साल कर दिया और अब नयी व्याख्या है कि पांच साल में पीढ़ी बदल जाती है. इसका मतलब यह कि पांच साल में दो पीढ़ियों में आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है. होता यह है कि अधिकांश माता-पिता नयी परिस्थतियों से तालमेल बिठाने के बजाए पुरानी बातों का रोना रोते रहते हैं, परिवर्तन तो हो गया, उस पर आपका बस नहीं है.

अब जिम्मेदारी आपकी है कि आप जितनी जल्दी हो सके नयी परिस्थिति से सामंजस्य बिठायें, ताकि बच्चे से संवादहीनता की स्थिति न आने पाए.

इन्हीं चिंताओं की पृष्ठभूमि में प्रभात खबर झारखंड में बचपन बचाओ अभियान चला रहा है. इसमें प्रभात खबर की टीम विभिन्न स्कूलों में जाती है, उनके साथ मनोविशेषज्ञ भी होते हैं. हम भी जानना चाहते हैं कि बच्चे क्या सोच रहे हैं, कैसे सोच रहे हैं, उनकी महत्वाकांक्षाएं क्या हैं. हमारा मानना है कि बच्चा, शिक्षक और अभिभावक तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं.

इनमें से एक भी कड़ी के ढीला पड़ने पर पूरी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है. ऐसा भी देखा गया है कि बच्चे से माता-पिता कुछ भी कहने से डरते हैं कि वह कहीं कुछ न कर ले. दूसरी ओर टीचर्स के सामने समस्या है कि वह बच्चों को कैसे अनुशासित रखें. नयी पीढ़ी के बच्चे अत्यंत प्रतिभाशाली हैं. जानकारी के इस युग में टीचर्स का महत्व और आदर कम हो गया है. जानकारियां सर्वसुलभ हैं और बहुत से मामलों में बच्चे टीचर्स कहीं अधिक जानकारी रखते हैं.

प्रभात खबर के कार्यक्रम में बच्चों से उनकी समस्याओं को सुना जाता है और उनके समाधान का प्रयास भी किया जाता है. इसी मुहिम के तहत मुझे भी बच्चों से संवाद करने का मौका मिला. एक स्कूल का हॉल भरा हुआ था, लगभग 800-850 बच्चे रहे होंगे. प्रारंभिक वक्तव्य के बाद जैसे ही सवाल जवाब का सिलसिला शुरू हुआ. शुरुआत में बच्चों ने थोड़ा संकोच किया, लेकिन बाद में वे मुखर होते गये. लगभग 90 फीसदी बच्चों के सवाल माता-पिता और कैरियर को लेकर केंद्रित थे. वे परिवार की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट नजर नहीं आये.

बच्चों ने पूछा माता-पिता उनकी तुलना दूसरे बच्चों से क्यों करते हैं, वे अपनी सोच बच्चों पर क्यों थोपते हैं, बच्चों पर हरदम शक क्यों किया जाता है, माता-पिता उनसे जबरन घर के काम क्यों कराते हैं. माता-पिता उनके कैरियर का फैसला क्यों करते हैं. ये गंभीर सवाल हैं. ये सवाल है जो आज हर बच्चा अपने माता-पिता से पूछ रहा है. ये सवाल मेरे लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं और जितने आपके लिए. इन सवालों का जवाब हम सबको तलाशना है तभी हम युवा पीढ़ी से संवाद स्थापित कर पायेंगे.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/980308.html


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