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न्यूज क्लिपिंग्स् | बजट में हो ‘भारत’ पर नजर- निशिकांत दुबे

बजट में हो ‘भारत’ पर नजर- निशिकांत दुबे

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published Published on Jan 29, 2019   modified Modified on Jan 29, 2019
वर्ष 2019-20 का केंद्रीय बजट एक ऐसे वक्त में पेश होने जा रहा है, जब पूरा विश्व जटिल आर्थिक परिस्थितियों का शिकार है. विश्व की बड़ी औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में अपस्फीति (डीफ्लेशन) की प्रवृत्ति एक ऐसा जोखिम बनकर उभरी है, जिसके प्रभाव से आगामी कई वर्षों के लिए वैश्विक विकास के अवरुद्ध हो जाने का खतरा मंडरा रहा है.

वैसे, यह एक दूसरी बात है कि कच्चे तेल तथा अधिकांश जिंसों की कीमतों में गिरावट से हमारी अर्थव्यवस्था को एक फौरी फायदा जरूर मिल गया है, क्योंकि इस वजह से हमें उस पर पड़े सब्सिडी-बोझ में कमी लाने का मौका मिल गया है. पर चूंकि इस वृहद आर्थिक परिदृश्य में कई और भी तत्व शामिल हैं, जिनके मद्देनजर देश के इस आगामी बजट के लिए कुछ अनुशंसाएं इस प्रकार की जा सकती हैं:

बजट को खासकर नियोजित पूंजीगत व्यय के हालिया दौर को कायम रखनेवाला होना चाहिए. दरअसल, पूंजीगत व्यय को इस वजह से सर्वोत्तम कोटि का व्यय माना जाता रहा है कि पूरी अर्थव्यवस्था पर इसके बहुमुखी सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं, जो दीर्घावधि आधार पर ही नजर आते हैं.

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि पूंजीगत व्यय का प्रत्येक रुपया अर्थव्यवस्था के आउटपुट में अपने मूल्य की अपेक्षा 2.45 गुना अधिक विस्तार लाता है. इसलिए सड़कें और रेलवे समेत इससे संबद्ध अन्य क्षेत्रों जैसे सार्वजनिक बुनियादी ढांचे के लिए अधिक बड़े आवंटन की रणनीति अपनाना जरूरी होगा. इसके अंतर्गत, सार्वजनिक निधियों पर इस भांति बल दिया जाना चाहिए, ताकि अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिल सके. इस वृहद कोटि के अंदर विभिन्न कार्यक्रमों के लिए कम-से-कम एक लाख 20 हजार करोड़ रुपयों का आवंटन किये जाने की जरूरत होगी.

देश के आर्थिक विमर्श में धीरे-धीरे यह राय भी बलवती होती जा रही है कि इस बजट के मुतल्लिक सरकार को राजकोषीय घाटे के लक्ष्य से बहुत अधिक बंधा नहीं रहकर इस मोर्चे पर उसे लचीली रणनीति के संकेत देने चाहिए.

मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि बजट ‘राजकोषीय फिजूलखर्ची' की राह पर चला जाये, बल्कि यह है कि उसके द्वारा यह संकेत अवश्य दिया जाना चाहिए कि हमारी सरकार सार्वजनिक व्यय करने से पीछे नहीं हटेगी, ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था को तेज रफ्तार से गतिशील रखा जा सके. इसी दलील के सहारे आगे चला जाये, तो यह कहा ही जाना चाहिए कि आम आदमी के लिए मुद्रास्फीति बहुत अधिक कष्टकारक होती है, क्योंकि वह अत्यंत निर्धनों को सबसे ज्यादा चोट पहुंचाती है.

जैसा अर्थशास्त्री कहा करते हैं, मुद्रास्फीति ‘गरीबों पर लादा गया कर' है. इसलिए हमारी अर्थव्यवस्था की अब तक की प्रवृत्ति के मद्देजनर आगामी बजट के अंतर्गत ऐसे कदम अवश्य उठाये जाने चाहिए, जो जनता को मुद्रास्फीति के दबाव से राहत दे सकें.
इससे जुड़ा एक दूसरा मुद्दा मितव्ययिता का है, अन्य बातों के अलावा जिसका मतलब करों में वृद्धि तथा व्ययों में कमी लाना होता है. मेरी यह सलाह भी होगी कि हम अभी इस अवधारणा से हर हाल में दूरी बनाकर ही रखें, क्योंकि अभी की स्थिति में इसे अंगीकार करना गलत होगा.

मैं कहना चाहूंगा कि आगामी बजट को ‘भारत' के लिए होना चाहिए, जिसमें ग्रामीण जरूरतों पर खास ध्यान दिया जाये. दूसरे शब्दों में, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए हमें आवश्यक कदमों की एक पूरी शृंखला का ही सहारा लेना होगा, जो उसके स्वरूप में सांगोपांग शक्ति का संचार कर उसे स्वस्थ बना सके.

केंद्रीय सरकार को बांधों (डैम), रोधक बांधों (चेक डैम), तालाबों इत्यादि के साथ ही सभी जल स्रोतों से संबद्ध सभी वैसी वर्तमान सिंचाई योजनाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए, जिनके लिए वह राज्य स्तर पर आर्थिक सहायता दिया करती है.

इस क्षेत्र में एक नयी ऐसी योजना लायी जानी चाहिए, जिससे अंतरराज्यीय विवादों पर लगाम लग सके और देश के संसाधनों के समुचित उपयोग से सिंचित तथा कृषि योग्य भूमि के रकबे में बढ़ोतरी संभव हो सके. ऐसी योजना के विषय में यह आशा की जा सकती है कि वह सूखे के खतरे को कम करके खाद्य उपलब्धता पर भी सकारात्मक असर डालेगी.

स्वास्थ्य की देखरेख हेतु बीमा व्यवस्था के सार्वभौमीकरण की दिशा में प्रगति लाने हेतु भी जरूरी परिवर्तन लाये जाने चाहिए तथा गरीबी रेखा से ऊपर और नीचे की वर्तमान विभेदकारी दृष्टि से भी अपने रास्ते अलग किये जाने चाहिए.
इसकी बजाय, खाना पकाने की गैस पर दी जानेवाली सब्सिडी की ही तर्ज पर इसे आय-स्तर से जुड़ी किसी योजना से संबद्ध किया जाना चाहिए. इस नयी व्यवस्था के तहत, सरकार द्वारा जनता के सभी आय वर्गों हेतु स्वास्थ्य एवं दुर्घटना/दिव्यांगता बीमा को अनिवार्य बना दिया जाना चाहिए और केवल उन्हीं लोगों को सब्सिडी दी जानी चाहिए, जिन्हें सरकारी सहायता की जरूरत हो.

ऐसी परिवर्तित योजना लोगों पर आ पड़नेवाले आकस्मिक मेडिकल व्ययों के कमरतोड़ बोझ में कमी लाते हुए एक सांस्कृतिक परिवर्तन की भी वाहक बनेगी, जहां स्वास्थ्य बीमा को केवल ‘कर योजना निर्माण' के औजार के रूप में ही नहीं देखा जायेगा


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1245235.html


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