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न्यूज क्लिपिंग्स् | बढ़ते गरीब और बेमानी बहस - अश्वनी कुमार

बढ़ते गरीब और बेमानी बहस - अश्वनी कुमार

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published Published on Jun 17, 2011   modified Modified on Jun 17, 2011

देशभर के शहरों में रहनेवाले गरीबों के आंकड़े जुटाने के लिए एक जून से सात माह का सर्वे शुरू हो चुका है. इसके साथ ही गरीबों की पहचान के मानदंड पर बहस भी फ़िर छिड़ गयी है. यह विडंबना ही है कि तमाम योजनाओं के बावजूद गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है.

शहरी गरीबों की गणना की खबरों के साथ ही गरीबी को लेकर जारी बहस फ़िर छिड़ गयी है. यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही है कि एक तरफ़ तो यह चुनावी प्रक्रिया में गरीबों की बढ़ती भागीदारी पर गर्व महसूस करती है, दूसरी तरफ़ इसी भागीदारी ने राजनीतिक और सांख्यिकीय रूप से गरीबों की पहचान को अत्यंत जटिल और चुनौतीपूर्ण बना दिया है. इस हद तक कि हम महात्मा गांधी जी के उस सूत्र वाक्य को भी भूल गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि कोई भी कदम उठाने से पहले सबसे गरीब व्यक्ति के चेहरे को याद करें और खुद से पूछें कि आपका यह कदम क्या उसके किसी काम आयेगा?

गरीबी की हकीकत जानने और तथाकथित बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) सूची तैयार करने (जिसके लिए ग्रामीण विकास विभाग ने 1992 में प्रयास शुरू किये थे) से होने वाले नफ़ा-नुकसान को लेकर भ्रम की स्थिति के बीच, बताया गया है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने एक नयी चर्चा शुरू की है कि फ्रिज, लैंडलाइन टेलीफ़ोन और दोपहिया वाहन जैसी चीजें अब आम आदमी की पहुंच में हैं और इन्हें रखना अमीर होने का सबूत नहीं रह गया है. अपने इस भावातिरेक में वे शायद भूल गये कि मार्च 2007 में बेगूसराय के मटिहानी प्रखंड में बीपीएल सूची में शामिल करने और इससे निकाले जाने को लेकर हुई अनियमितताओं के खिलाफ़ प्रदर्शन कर रहे दो लोग पुलिस फ़ायरिंग में मारे गये और छह अन्य घायल हो गये थे.

खुद योजना आयोग यह मान चुका है कि देश में केवल 57 फ़ीसदी गरीबों के पास राशन कार्ड हैं. आयोग यह भी कह चुका है कि अनुदानित मूल्य पर बांटा जा रहा 58 फ़ीसदी अनाज बीपीएल परिवारों तक नहीं पहुंच पाता है और इसके 36 फ़ीसदी हिस्से की कालाबाजारी हो रही है. जनवितरण प्रणाली में जारी भ्रष्टाचार पर जस्टिस वाधवा कमिटी की रिपोर्ट में इसका जिक्र है. महत्वपूर्ण यह भी है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य देश के विभिन्न भागों में भुखमरी और इससे होने वाली मौतों की खबरों को भी निराधार बताते रहे हैं. नि:संदेह भारत में पिछले दो दशक में कई मिथक टूट चुके हैं.

बावजूद इसके यह विरोधाभास कायम है कि एक और यहां अरबपतियों की सूची लंबी होती जा रही है, दूसरी ओर गांवों में महिलाएं अब भी आजीविका के लिए बाहर गये पतियों के घटते वेतन का इंतजार करती हैं. घोटालों के वर्तमान दौर में राजनेता असंभव को संभव करने की कला के लिए बधाई के पात्र हैं, लेकिन गरीबी के मूलभूत तथ्य के प्रति वे लापरवाह होते जा रहे हैं. गरीबी केवल कुछ सामानों या आय से नहीं मापी जा सकती, यह सत्ता और आजादी से लोगों की दूरी को दर्शाती है. गरीब सत्ता द्वारा तय मानदंड के ही शिकार नहीं हैं, बल्कि वे समान अवसर और संस्थागत संसाधनों में भागीदारी से भी वंचित हैं. इसी कारण देश में भूख, भुखमरी और कुपोषण की स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है.

ऐसी स्थिति केवल सुदूर उड़ीसा के जनजातीय समुदायों की ही नहीं है, बल्कि मुंबई जैसे महानगर से भी भूख से मौत की खबरें आती हैं. गरीबी की प्रक्रिया में समाज और कभी-कभी सत्ता भी शोषक की भूमिका निभाती है. इस संदर्भ में राजनीतिक विश्‍लेषक पार्था चटर्जी के सामाजिक और राजनीतिक समाज के बीच दूरी संबंधी विचार सार्थक लगते हैं. वे कहते हैं कि भारत के अधिकतर लोगों के पास संविधान की परिकल्पनाओं के मुताबिक मूलभूत अधिकार नहीं हैं. वे न तो सिविल सोसाइटी का हिस्सा हैं और न ही राज्य के संस्थान उन्हें अपना अंग मानते हैं. गरीबों की संख्या कम नहीं हो रही, क्योंकि गरीबी उन्मूलन और ग्रामीण विकास की ज्यादातर सरकारी योजनाएं गरीबों को वंचित और बेसहारा मानकर तैयार की जाती हैं. जबकि सरकार को गरीबों की आवाज और क्षमता पर भरोसा कर देश में गरीबों की संख्या कम करने की योजना तैयार करनी चाहिए.

परंपरागत रूप से गरीब लोगों को कम आय वाला और स्वास्थ्य एवं शिक्षा से वंचित समझा जाता है. बीपीएल सूची के आधार पर अलग से बनने वाली विभिन्न योजनाएं उन्हें आगे भी अमानवीय जीवन जीने के लिए विवश करती हैं. संक्षेप में, यह मान लिया जाता है कि गरीबों में सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीने की क्षमता ही नहीं है. सामाजिक नीतियां तय करने में इस बात को दरकिनार कर दिया जाता है कि गरीब मानवता को आगे बढ़ाने में बहुत बड़ी सकारात्मक भूमिका निभाते हैं. उपभोक्ताओं के खर्च के बहुप्रचारित सर्वे, जिनके आधार पर भारत का योजना आयोग गरीबी का अनुमान लगाता है, के मुताबिक सामाजिक नीति तैयार करने में सांख्यिकीय अनिश्चितता और हठधर्मिता दिखती है. सरकार की कल्याणकारी योजनाएं गरीबों को ’सबसे निचले पायदान का व्यक्ति’ मानकर तैयार की जाती हैं.


http://www.prabhatkhabar.com/node/11015


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