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न्यूज क्लिपिंग्स् | बदलाव होता नजर भी तो आए - प्रदीप सिंह

बदलाव होता नजर भी तो आए - प्रदीप सिंह

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published Published on Dec 4, 2014   modified Modified on Dec 4, 2014
नरेंद्र मोदी सरकार के छह महीने हो गए। सबकी नजर इस पर है कि सरकार ने क्या किया और जो किया, उसका नतीजा क्या निकला। कांग्रेस इस सरकार को यू-टर्न सरकार बता रही है। सरकार का दावा है कि उसने छह महीने में बहुत कुछ कर दिया है। यह सही है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश में एक बदलाव और उम्मीद का माहौल बना है, लेकिन माहौल से आगे भी तो कुछ दिखाई दे! सरकार की किस्मत अच्छी है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में लगातार गिरावट का दौर चल रहा है। दूसरी ओर भाजपा को एक के बाद एक चुनावी कामयाबी मिल रही है। लेकिन हर चुनावी कामयाबी उम्मीदों का नया पहाड़ खड़ा कर रही है।

नरेंद्र मोदी की अपील उनकी पार्टी से बड़ी थी और है भी। देश के युवा मतदाता ने उन पर भरोसा किया तो इस उम्मीद से कि उसे रोजगार का अवसर मिलेगा। छह महीने में उसे अभी कुछ नजर नहीं आ रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक कहावत है - 'काहे बात के साये, जो हम न ब्याहे।" मतलब यह कि शादी का मौसम किस काम का जो हमारी शादी न हुई। तो देश का डंका दुनिया में बजे, इससे सबको खुशी ही हो रही है, लेकिन यह खुशी ज्यादा देर तक कैसे टिकेगी जब घर में राशन नहीं होगा, जवान लड़का बेरोजगार होगा और बेटी की पढ़ाई और शादी के लिए कर्ज लेने की भी गुंजाइश न रह जाए।

रोजगार के सबसे ज्यादा अवसर विनिर्माण क्षेत्र से पैदा होते हैं। प्रधानमंत्री ने 'मेक इन इंडिया" की योजना इसी मकसद से शुरू की है, लेकिन सवाल है कि विनिर्माण क्षेत्र के विकास के लिए बुनियादी जरूरतों में से एक है बिजली और सस्ती बिजली। प्रधानमंत्री ने एक वादा अगले पांच साल में देश के सभी घरों में चौबीस घंटे बिजली देने का किया है, लेकिन ऊर्जा क्षेत्र के सुधारों के बारे में मोदी सरकार क्या करने जा रही है, अभी तक कुछ पता नहीं है। कोयले और गैस के अभाव में रुकी पड़ी परियोजनाओं का रास्ता निकालने की बातें तो हो रही हैं, लेकिन अभी तक मामला आगे बढ़ा नहीं है। इस क्षेत्र में उम्मीद थी कि सरकार आते ही बड़े सुधार करेगी, लेकिन अभी तक ऐसा हुआ नहीं है। इसी तरह श्रम सुधार और व्यवसाय करने की सहूलियत के मामले में देश के ही नहीं, विदेशी निवेशकों की भी नजर है। कई देशों के निवेशक पूंजी निवेश के लिए तैयार बैठे हैं, लेकिन उन्हें इंतजार है कि सरकार लालफीताशाही को कम करे।

सरकार के सामने कई चुनौतियां हैं, जिनसे निपटने के लिए उसे संसद में विपक्ष के सहयोग की जरूरत पड़ेगी। खासतौर से जीएसटी विधेयक और बांग्लादेश के साथ सीमा समझौते के मसले पर। ये ऐसे मामले हैं, जिन पर राष्ट्रीय सहमति हो तो बेहतर है। इसके लिए सत्ता पक्ष को विपक्ष की मांगों को समायोजित करना होगा। अभी जो स्थिति है, उसमें विपक्ष और सत्ता पक्ष में सहयोग के आसार नजर नहीं आते। आज कई मुद्दों पर कांग्रेस की वही राय है, जो विपक्ष में रहते हुए भाजपा की होती थी। बीमा विधेयक हो या बांग्लादेश के साथ सीमा समझौता, आज भाजपा की सरकार वही कर रही है, जो संप्रग सरकार करना चाहती थी।

दरअसल, विपक्ष में रहते हुए पार्टियां अकसर सरकार के कदमों का दो कारणों से विरोध करती हैं। एक, सरकार को मुश्किल में डालने के लिए और दूसरे, उस विषय की पूरी जानकारी के अभाव में। एक समय था जब तय-सा ही था कि विपक्ष में किसे रहना है और सत्ता में किसे। विपक्ष को पता रहता था कि उसे कभी सत्ता में आना नहीं है, इसलिए उसे सत्तारूढ़ दल की नीतियों का विरोध करने में कोई संकोच नहीं होता था। अब हालात बदल गए हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि राजनीतिक दलों की सोच और व्यवहार में भी तदनुरूप बदलाव आएगा। लेकिन अभी तो स्थिति यह है कि बुरी तरह से हारने और लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद भी नहीं मिलने के कारण कांग्रेस खीझी हुई है। वह मोदी सरकार का किसी तरह से सहयोग करने के मूड में नहीं है और राज्यसभा में सत्तारूढ़ एनडीए अल्पमत में है।

छह महीने के कार्यकाल में मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि विदेश नीति के मोर्चे पर रही है। इतने कम समय में मोदी ने जिस तरह से अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया के अलावा पड़ोसी देशों से संबंध सुधारे हैं, उसकी शायद ही किसी को उम्मीद रही हो। संबंधों में यह सुधार भारत की अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छी खबर है। मोदी की इस उपलब्धि से देश में लोगों की खुशी और बेचैनी दोनों बढ़ रही है। ऐसे लोगों की संख्या में धीरे-धीरे इजाफा हो रहा है, जिन्हें लग रहा है कि उसी रफ्तार से देश में काम नहीं हो रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक लोगों की एक ही उम्मीद है - रोजगार, रोजगार और रोजगार। सरकार का रास्ता ठीक है, वह चलती हुई भी दिख रही है, लेकिन समस्या यह है कि वह कहीं पहुंचती हुई नहीं दिख रही है। सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने बड़े जोर-शोर से घोषणा की थी कि रोज तीस किमी सड़क बनेगी। पर अब वह कह रहे हैं कि इस लक्ष्य तक पहुंचने में डेढ़-दो साल लग जाएंगे। ऐसी बातों से ही उम्मीद निराशा में बदलती है।

यूं तो नई सरकार के लिए छह महीने का कार्यकाल बहुत ज्यादा नहीं होता, लेकिन यह सरकार अन्य सरकारों की तरह सामान्य नहीं है। इसकी तुलना अगर किसी से हो सकती है तो वह 1971 की इंदिरा गांधी, 1977 की मोरारजी, 1984 की राजीव गांधी की सरकारों से ही हो सकती है। तीनों पूर्ववर्ती सरकारों को अलोकप्रिय होने में दो-ढाई साल ही लगे थे। मोदी सरकार से लोगों की उम्मीद बहुत ज्यादा है। एक फर्क और है कि इतने बड़े पैमाने पर युवाओं ने शायद ही किसी सरकार को वोट दिया हो, क्योंकि देश में कभी इतने बड़े पैमाने पर युवा मतदाता नहीं रहे। इस पीढ़ी की एक खूबी यह है कि वह परिवर्तन के लिए हमेशा तैयार रहती है। वह नए का जोखिम लेने के लिए भी तत्पर रहती है, लेकिन उसमें धैर्य ज्यादा नहीं होता। समय आ गया है कि लोगों को लगे कि नई सरकार के आने के बाद उनके रोजमर्रा के जीवन में भी कोई बदलाव आ रहा है। सरकार काम करे तो लोगों को लगना भी चाहिए कि काम हो रहा है।

- लेखक वरिष्‍ठ स्‍तंभकार हैं


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