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न्यूज क्लिपिंग्स् | बबुआ से बड़ा झुनझुना- विनोद कुमार

बबुआ से बड़ा झुनझुना- विनोद कुमार

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published Published on Jul 22, 2014   modified Modified on Jul 22, 2014
जनसत्ता 21 जुलाई, 2014 : आजादी के बाद हमने वयस्क मताधिकार पर आधारित भारतीय गणराज्य की स्थापना की।

मूल अवधारणा यह रही कि हम एक ऐसी व्यवस्था बनाएंगे जिसके केंद्र में रहेगा देश का नागरिक। विधायिका उसके हित में कानून बनाएगी, कार्यपालिका उन कानूनों के दायरे में नागरिकों को एक विधि-सम्मत सुशासन मुहैया कराएगी, सेना बाह्य दुश्मनों से देश की सुरक्षा की गारंटी करेगी, पुलिस नागरिकों के जान-माल की रक्षा करेगी। विधि-सम्मत शासन में कोई त्रुटि हुई तो न्यायपालिका हस्तक्षेप कर मानवाधिकारों की रक्षा करेगी। इस पूरी व्यवस्था का मूल तत्त्व यह कि जनता मालिक है और व्यवस्था को चलाने वाले लोग उसके सेवक। लेकिन व्यवस्था को बनाए रखने का खर्च इतना भारी-भरकम हो जाएगा, इसकी कल्पना ही शायद किसी ने उस वक्त नहीं की थी। सबों को स्मृति में होगा यह तथ्य कि आजादी के बाद विधायकों को राजधानी में रहने की सुविधा उतने ही दिनों के लिए मिलती थी जितने दिन विधानसभा का सत्र चलता था। उनसे उम्मीद की जाती थी कि शेष दिन वे अपने क्षेत्र में रहेंगे। उनको आज की तुलना में वेतन सुविधाएं भी कम मिलती थीं। इसी तरह नौकरशाही को भी आज जितनी वेतन-सुविधाएं नहीं मिलती थीं। यानी देश की कुल आमदनी का एक हिस्सा ही व्यवस्था को चलाने के तामझाम पर खर्च होता था।

धीरे-धीरे व्यवस्था को चलायमान रखने का खर्च बढ़ता गया और आज आलम यह है कि कुल बजट का बड़ा हिस्सा जनता के हित में न खर्च होकर, जनता के तथाकथित सेवकों पर खर्च होता है। इसी को तकनीकी भाषा में योजना-मद और गैर-योजना मद के रूप में चिह्नित किया जाता है। योजना मद यानी वास्तविक विकास योजनाओं पर होने वाला खर्च और गैर-योजना मद यानी मुख्यत: कर्मचारियों, अधिकारियों, सेना, पुलिस, जज, मुख्तार आदि के वेतन, ग्रैच्यूटी, पीएफ आदि पर होने वाला खर्च।

योजना-मद की तुलना में गैर-योजना मद की राशि निरंतर बढ़ती जा रही है। कहने के लिए इस बजट में गैर-योजना मद में होने वाले खर्च में पिछले बजट से कुछ कमी हुई है, लेकिन कुल मिला कर वह खतरनाक स्थिति तक पहुंच चुकी है। यानी आमद का बड़ा हिस्सा जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में खर्च न कर योजनाओं को जो क्रियान्वित करेंगे, उन पर खर्च हो रहा है।

इस बार का कुल बजट-आकार 17,94,892 करोड़ का है। कर राजस्व के रूप में 9,77,258 करोड़ की राशि आएगी और गैर-कर राजस्व के रूप में 2,12,505 करोड़ की। और इस तरह जमा राशि में योजना-व्यय तो मात्र 5,75000 करोड़ का है लेकिन गैर-योजना मद दो गुने से भी ज्यादा, 12,19,763 करोड़ का। और वह इसलिए कि इस व्यवस्था का संचालन-खर्च बहुत बहुत बढ़ता जा रहा है। किसी भी विभाग के कुल आबंटन का बड़ा हिस्सा उस विभाग के कर्मचारियों, अधिकारियों के वेतन-सुविधाओं पर ही खर्च हो जाता है। मसलन, अगर हमें स्वास्थ्य सेवाओं पर सौ रुपए खर्च करने हैं तो नब्बे रुपए डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों के वेतन पर ही खर्च हो जाते हैं। और ऐसा इसलिए कि गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की बात जानें दें, एक भारतीय की औसत आमदनी अगर हजार रुपए प्रतिमाह है तो एक सरकारी सेवक की आमदनी कम से कम दस हजार रुपए प्रतिमाह तो है ही। सेवाकाल में मोटी तनख्वाह, पीएफ, ग्रैच्यूटी और अवकाश ग्रहण करने के बाद जीवन भर मिलने वाला पेंशन।

हम यह नहीं कहते कि सेवकों को सेवा का पारिश्रमिक न मिले, लेकिन थोड़ा यह तो ध्यान देना ही होगा कि हमारी आमद कितनी है और देश के आम आदमी का जीवन स्तर क्या है? बजट बनाते वक्त इस घोर असंतुलन को कम करने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन जब सत्ता की चाभी ही नेताओं और अधिकारियों के हाथ में है तो वे अपनी सुविधाओं में निरंतर इजाफा क्यों न करें? इस बार भी निसंकोच कैबिनेट के खर्चे में 15.6 फीसद का इजाफा किया गया है।

कितनी घनघोर बहस चली है बजट पर! भाजपा के नेता इसे प्रगतिशील बजट बता रहे हैं, कांग्रेस के नेता अपनी आर्थिक नीतियों की नकल, कम्युनिस्ट पार्टियां जनता के हितों के प्रतिकूल। मध्यवर्ग को अब भी असंतोष है और कॉरपोरेट जगत को जितनी उम्मीद थी उतना ‘सुधार’ नजर नहीं आ रहा। हमारे लिए यह बजट अपने पूर्ववर्ती बजटों से दिशा और दृष्टि के हिसाब से खास भिन्न नहीं, उससे भी ज्यादा हमारे समक्ष यह दहकता प्रश्न है कि पिछले सड़सठ वर्षों में एक-एक प्रखंड में करोड़ों-करोड़ रुपए विकास मद में खर्च किए जा चुके। लेकिन गांवों की तस्वीर क्यों नहीं बदलती? हमारी अर्थव्यवस्था में ग्रामीणों का सहारा खेती-बाड़ी है, लेकिन बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में सिंचित क्षेत्र में बढ़ोतरी क्यों नहीं होती?

वजह यह है कि बिना जनता की भागीदारी के योजनाएं बनती हैं और योजनाओं के तहत किसी वीरान इलाके में पुलिया, यात्री शेड, ग्राम पंचायत भवन आदि बन जाते हैं, लेकिन वहां झाड़ू लगाने वाला, दीया-बाती जलाने वाला भी कोई नहीं होता। धीरे-धीरे वे खंडहर में बदल जाते हैं। क्योंकि थोपी गई उन योजनाओं से जनता का कोई लगाव नहीं होता। वे महज लूट का सबब हैं। ऐसी ही योजनाएं बनती हैं जिनमें लूट का अवसर ज्यादा हो।

कुल बजट का बड़ा हिस्सा तो गैर-योजना मद यानी वेतन, सुविधा, ग्रैच्यूटी, पेंशन आदि पर खर्च हो जाता है। दूसरी तरफ, जो राशि योजना मद के तहत विकास योजनाओं के नाम पर खर्च होती है, उसका बड़ा हिस्सा कमीशनखोरी में चला जाता है। इसकी जांच-पड़ताल के लिए किसी आयोग के गठन की जरूरत नहीं। यह तो सामान्य तथ्य है। दस्तूरी है। बीस से चालीस फीसद तक कमीशनखोरी तो ‘ईमानदार’ नेता और नौकरशाह भी करता है; भ्रष्टाचार का मामला तब बनता है जब कुल राशि का साठ-सत्तर फीसद भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाए! इसलिए कुल बजट की एक तुच्छ-सी राशि जनता के हित के काम में लगती है और वह भी बिना उसकी भागीदारी के बेमतलब होती है। आप गौर यह भी कर सकते हैं कि गैर-योजना मद की राशि तो शत-प्रतिशत खर्च हो जाती है, लेकिन योजना-मद की राशि राज्य सरकारें खर्च ही नहीं कर पाती हैं।

मोदी सरकार ने इस बार के बजट में ऐसी ही योजनाओं के लिए आबंटन किया है जिनमें लूट की अपार संभावनाएं हैं। सड़क निर्माण पर 38000 करोड़, स्मार्ट शहर पर 7060 करोड़, कृषि योजनाओं पर 7,500 करोड़, गंगा की सफाई पर 2037 करोड़। सड़क निर्माण नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों की कमाई का एक बहुत आसान माध्यम है। झारखंड में कोल्हान क्षेत्र की एक सड़क के निर्माण को लेकर ही अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा में तलवारें खिंचीं, जिसकी परिणति अर्जुन मुंडा सरकार के पतन में हुई और मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बने थे।

गंगा की सफाई पर होने वाले ताजा आबंटन को डूबना ही है। गंगा की समस्या यह है कि उसका सहज-स्वाभाविक प्रवाह उत्तराखंड की जल परियोजनाओं की वजह से अवरुद्ध हो गया है, सामान्य दिनों में उसमें पानी कम रहता है और बरसात में पहाड़ों के क्षरण के साथ भारी मात्रा में गाद भी नीचे बह कर आती है। इसके अलावा जिन रास्तों से वह गुजरती है, करीब के शहरों का मल-जल, गंदी नालियां उसमें आकर गिरती हैं। कानपुर के बाद वह बेहद प्रदूषित हो जाती है। उसके भीतर जमा गाद की सफाई हो, लेकिन बड़ी समस्या शहरों के मूल उपभोक्तावादी चरित्र से जुड़ी है। उस दिशा में सरकार की कोई दृष्टि ही नहीं दिखाई देती। मतलब साफ है कि वह पूरी राशि हर-हर गंगे की भेंट चढ़ने वाली है।

कृषि क्षेत्र के योजना-मदों पर जरा गौर करें। कृषि क्षेत्र की मूल समस्या सिंचाई सुविधा का निरंतर कम होते जाना है। थार का विस्तार है। दक्षिण भारत में सिंचाई सुविधाओं पर ध्यान दिया गया, इसलिए वहां साल-भर कुछ न कुछ कृषि-कार्य चलता रहता है। लेकिन उत्तर भारत में, कुछ इलाकों को छोड़, बारिश के पानी पर ही किसान निर्भर रहता है। दूसरी तरफ बाढ़ की तबाही। कैसे पानी का संचय हो, उसे खेतों तक पहुंचाया जा सके, इसकी कोई कार्य-योजना बजट में नजर आती है?

साढ़े सात हजार करोड़ रुपए कृषि क्षेत्र के लिए आबंटित किए गए हैं। इसमें से पांच सौ करोड़ की धनराशि गांवों को इंटरनेट से जोड़ने पर खर्च होगी। सौ करोड़ रुपया किसान टीवी पर, पांच हजार करोड़ रुपया कृषि भंडारण पर, 3600 करोड़ रुपया पेयजल योजनाओं पर। हर योजना ऐसी जिसमें कमाई का अपार अवसर। टीवी खरीदिए, इंटरनेट का साजो सामान और सबमें कमीशन खाइए। विकास नीति की वजह से भूमिगत जल-स्तर भागा जा रहा है, लेकिन करीब के नदी-नाले में बोरिंग बैठाइए, पाइप को पानी टंकियों में ले जाइए। योजना कामयाब हो न हो, निर्माण-कार्यों में कमाई ही कमाई। पांच हजार करोड़ रुपया कृषि भंडारण के लिए खर्च होने वाला है। शायद गोदाम बनाने, कोल्ड स्टोरेज बनाने आदि पर यह राशि खर्च होगी।

इस तरह निर्माण-कार्य और खरीद पर सरकार का सारा जोर है। अपने रांची में ठीक फिरायालाल चौक पर एक विशाल बहुमंजिला, कई खंडों वाला सदर अस्पताल बना है। लेकिन अगर आप चाहें कि उस सरकारी अस्पताल में एक्स-रे हो जाए, या दुर्घटनाग्रस्त होने की स्थिति में आपका भरोसे का इलाज, तो संभव नहीं। बस एक विशाल इमारत बन गई और खरीद का एक हास्यास्पद उदाहरण यह कि वहीं के एक स्वास्थ्य मंत्री ने अपने कार्यकाल में इतना अधिक कंडोम खरीद लिया कि वह कई वर्षों तक खर्च नहीं होने वाला। ये सभी मामले जांच के दायरे में हैं। और यहां इसका जिक्र महज यह बताने के लिए मंत्रियों की सर्वाधिक रुचि निर्माण-कार्य और खरीद वाली योजनाओं में रहती है, क्योंकि इनमें पैसा बनाने के खूब मौके होते हैं।

इस बजट में आदिवासियों के प्रति घोर उपेक्षा और संवेदनहीनता झलकती है। भावी योजनाओं में आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा, वहां के जल-जंगल-जमीन की भारी भूमिका होने वाली है। लेकिन आदिवासियों के प्रति मोदी सरकार का नजरिया क्या है, वह इस तथ्य से उजागर होता है कि आदिवासियों के लिए वनबंधु कल्याण योजना के मद में महज सौ करोड़ की राशि रखी गई है, जबकि पटेल की लौह प्रतिमा के लिए दो सौ करोड़ रुपए।

साफ है कि बजट राशि का बड़ा हिस्सा संगठित क्षेत्र की सुख-सुविधाओं और आमोद-प्रमोद पर खर्च होना है और योजना-मद की राशि बेमतलब की योजनाओं पर, जबकि विकास के मोदी मॉडल के लिए सरकार मूल रूप से विदेशी निवेश पर निर्भर रहेगी। कई क्षेत्रों में विदेशी निवेश की अधिकतम सीमा छब्बीस फीसद से बढ़ा कर उनचास फीसद कर दी गई है। रेलवे तक में विदेशी निवेश को बढ़ावा देने की बात कही गई है। कुल मिला कर इस बजट में बहुसंख्यक आबादी के लिए न कोई उम्मीद है न संभावना।

http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=74024:2014-07-21-06-11-29&catid=20:2009-09-11-07-46-16


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