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न्यूज क्लिपिंग्स् | बहुत कठिन है डगर सुशासन की - एनके सिंह

बहुत कठिन है डगर सुशासन की - एनके सिंह

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published Published on Nov 26, 2015   modified Modified on Nov 26, 2015
बिहार की जनता ही नहीं, राजनीतिक विश्लेषक और देश का बुद्धिजीवी वर्ग भी बेहद उत्कंठा से देख रहा है कि नई नीतीश सरकार राज्य में कैसी चलेगी, इसकी गुणवत्ता कैसी होगी व इसका जीवन कितने दिनों का होगा। जिन सामाजिक, राजनीतिक और पारस्परिक विभेदों के बीच इस सरकार का जन्म हुआ, उन्हें और चुनाव के बाद के घटनाक्रमों को देखते हुए सकारात्मक पहलू कम नजर आते हैं। खतरा सिर्फ 26 साल के नौवीं पास नौसिखिये बेटे को उपमुख्यमंत्री बनाना या दूसरे 12वीं पास नौसिखिये बेटे को स्वास्थ्य मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण विभाग देने में नहीं है। खतरा यह है कि अन्य 14 महत्वपूर्ण रिश्तेदार जिसमें सात दामाद और सात बेटियां हैं ( लालू के दो बेटों के अलावा सात बेटियां भी हैं, उनमें सभी की शादी भी चुकी है और अधिकांश पटना में डेरा डाले बैठे हैं) भी सीधे तौर पर नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से ही इस सत्ता में दखलंदाजी करेंगे, जिसके स्वरूप भांति-भांति के हो सकते हैं।

लॉर्ड ऐक्टन ने कहा था कि सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूरी तरह से भ्रष्ट करती है। शायद योरोपीय प्रजातंत्र में सत्ताधारी पतन का अंतिम सोपान केवल एकआयामी हो, किंतु भारत में यह लंपटवाद को भी जन्म देती है। इसका कारण रोजगार की कमी है, जो समाज में लंपटवाद को जन्म देती है। ये लंपट कुछ न होने पर खद्दर पहन राजनीति का चोला ओढ़ लेते हैं। चूंकि अधिकांश राजनीतिक पार्टियों में वैचारिक प्रतिबद्धता का लोप हो चुका है, लिहाजा ये कार्यकर्ता नेताओं के लिए निजी प्रतिबद्धता के आधार पर अपने को पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में स्थापित करने की कोशिश करते हैं। नेता इनकी मदद करता है। भाजपा में भी इस रोग का फैलाव तब देखने को मिला जब पार्टी अध्यक्ष ने दावा किया कि 15 करोड़ लोग पार्टी के सदस्य बन चुके हैं। अर्द्धशिक्षित, औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेषों से ग्रस्त भारतीय समाज में रातोंरात सत्ताधारियों और समाज में दलालों के बीच एक अलिखित संबंध बनता है और तब शुरू होता है शोषण और भ्रष्टाचार का समाजीकरण। मंत्री से मिलवाने के लिए दलाल पैदा होते हैं। राज्य अभिकरण जान-बूझकर जनसेवाओं की डिलीवरी नहीं करते (इस डर से भी कि सहज में यह सब कुछ मिलता रहा तो जनता काम करवाने के लिए पैसे देना बंद कर देगी।) और इस काम के लिए भी बिचौलिए कार्यकर्ता के रूप में अवतरित होते हैं।

बिहार में सत्ता नए स्वरूप में आई है। राजनीतिक पार्टियों की एक नई केमिस्ट्री विजयी हुई है। दोनों मुख्य दल लालू यादव का राजद और नीतीश कुमार की जदयू क्षेत्रीय पार्टियां हैं, जिसके साथ एक राष्ट्रीय दल कांग्रेस गैरप्रमुख भूमिका में है। चूंकि ये क्षेत्रीय पार्टियां हैं, जिनकी बुनियाद कहीं न कहीं जाति आधारित होती है, लिहाजा वैचारिक प्रतिबद्धता की जगह व्यक्तिगत निष्ठा ले लेती है। चूंकि यह व्यक्तिगत निष्ठा भी क्षणभंगुर होने लगी है, लिहाजा कोई रामकृपाल यादव, कोई जीतन मांझी या कोई श्याम रजक अचानक एक नई पार्टी में जाता है और और फिर नए मुल्ले की तरह पानी पी-पीकर अपने पुराने आका की लानत-मलामत करता है। राजस्थान में तीन साल पहले बसपा के टिकट पर जीते 11 के 11 विधायक कांग्रेस में शामिल हो जाते हैं। लिहाजा व्यक्तिगत निष्ठा को भी छलावा मानते हुए अधिकांश क्षेत्रीय नेता अपने परिवार को ही आगे बढ़ाते हैं।

इधर उम्मीद थी कि 10 साल में लगे झटकों के बाद जब जन-स्वीकार्यता की बुलंदी हासिल हुई है तो लालू यादव की समझ बदली होगी, गरिमा के पैमाने बदले होंगे और अपनी नहीं तो पारिवारिक भविष्य की चिंता इस नेता के आचरण को बदलेगी। आम तौर पर देश की जनता और खासकर बिहार के लोगों में एक आदत है। इन्हें नेता का त्याग और नि:स्वार्थता बेहद पसंद है। सोनिया गांधी ने ताकत और स्थितियां होते हुए भी प्रधानमंत्री का पद नहीं लिया और यह जनता को इतना भाया कि 10 साल तक कांग्रेस शासन करती रही। लालू यादव से उम्मीद थी कि जंगलराज के मसीहा की तस्वीर को तोड़ते हुए वह यह कहते कि हमारे बेटे अभी राजनीति में नए हैं, लिहाजा इन्हें शासन करने की ट्रेनिंग नीतीश की देखरेख में मिले और इन्हें अपेक्षाकृत लघुतर मंत्रालय शुरू के साल भर तक दिए जाएं। लेकिन लालू ने यह गरिमा नहीं दिखाई।

बिहार में 80 प्रतिशत हत्याएं जमीन को लेकर होती हैं। इसका कारण यह है कि बिहार का आबादी घनत्व राष्ट्रीय औसत (368 व्यक्ति प्रति वर्गकिमी) के तीन गुना (1108) है। जमीन पर जबर्दस्त दबाव है। ऐसे में सत्ता में यादव जाति का एक वर्ग जिसने लालू के चुनाव में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, सत्ता में बड़ा हिस्सा चाहेगा ताकि वह जमीन के नए लाभकारी व्यवसाय में सत्ता शक्ति का इस्तेमाल कर सके। वह लालू जो अपने बच्चों को परिवारवाद के मोह में यहां तक पहुंचाते हैं, इन कार्यकर्ता-व्यवसायी-दलाल ब्रांड लोगों को क्या मना कर पाएंगे?

नीतीश कुमार को अब यह समझौता भारी पड़ रहा है। क्या वह इस हालत में हैं कि लंपटवादी राजनीति पर लगाम लगा सकें? अगर साहस था तो तनकर यह क्यों नहीं कहा कि तेजस्वी जैसे नौसिखिए को अभी उप-मुख्यमंत्री बनाना ठीक नहीं होगा।

खैर, लालू के बेहतर व्यक्ति और नैतिक रूप से खरा नेता होने के दो कारण हो सकते हैं, बशर्ते वह इन्हें समझें। पहला : नीतीश के पास यह विकल्प आज भी खुला है कि वह भाजपा से हाथ मिला लें। सरकार चलती रहेगी और भाजपा इस इंतजार में है। दूसरा, बच्चों का राजनीतिक भविष्य। अगर भ्रष्टाचार और जंगलराज का संदेश गया तो ये बच्चे दोबारा राजनीति की दहलीज पर खड़े नहीं रह पाएंगे।

-लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।

 


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