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न्यूज क्लिपिंग्स् | बाढ़ जनित समस्या का प्रबंधन-- डा. गोपाल कृष्ण

बाढ़ जनित समस्या का प्रबंधन-- डा. गोपाल कृष्ण

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published Published on Aug 22, 2017   modified Modified on Aug 22, 2017
आम तौर पर सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं बाढ़ जनित समस्या से चकित होने का स्वांग करती हैं. हिमालय के गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी घाटी जैसे क्षेत्रों में सदियों से नदी के भूमि बनाने के अपने नैसर्गिक कार्य के लिए बाढ़ का जन्म होता रहा है.

मौजूदा बाढ़ में खबरों के अनुसार अभी तक बिहार में 18 जिलों में 200 से अधिक लोग मौत के शिकार हुए हैं. पश्चिम बंगाल के 14 जिले बाढ़ ग्रस्त हैं, वहां से 50 लोगों की मौत की खबर है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिले- गोरखपुर, महाराजगंज, बलरामपुर, बस्ती, बहराइच कुशीनगर, सिद्धार्थनगर और लखीमपुर खीरी आदि बाढ़ से प्रभावित हैं, वहां से पांच लोगों की मौत की खबर है. असम के 32 में से 25 जिले बाढ़ग्रस्त हैं, वहां से भी 60 लोगों की मौत की खबर है.

तटबंध के टूटने से गांव और खेत जलमग्न हो गये हैं. यातायात रुक गया है. लोग विस्थापित हो गये हैं. पशुओं की मौत का सही आकलन अभी सामने नहीं आया है.

कमोबेश यही सब नौ साल पहले 18 अगस्त 2008 की कुसहा त्रासदी में भी हुआ था. सहरसा, अररिया और पूर्णिया के 35 प्रखंडों के 993 गांवों की लगभग 34 लाख लोग प्रभावित हुए. करीब साढ़े तीन लाख मकान भी तबाह हो गये थे.

तीन लाख हेक्टेयर खेतों में बालू भर गया और सवा सात लाख पशु मौत के शिकार हुए थे. सन् 1963 के बाद से ही कोसी पर विभिन्न स्थानों पर बने तटबंध लगातार टूटते रहे है. 1963 से लेकर 2017 तक के तटबंधों के टूटने का इतिहास से सरकारी संस्थान सबक लेने को तैयार नहीं दिखते.

इस आपदा काल में कुछ ऐसे कदम उठाये जा सकते हैं. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान यह स्वीकार करता है कि विनाशकारी बाढ़ के मुख्य कारण भारी वर्षा, जलग्रहण की दयनीय दशा, अपर्याप्त जल निकासी एवं बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाये गये बांधों का टूटना है. मिट्टी के खराब अवशोषण के कारण पानी का रिसाव जमींन की गहरी परतों में नहीं हो पाता है, जो बाढ़ का प्रमुख कारण बनता है.

सरकारों और ठेकेदारों द्वारा नदी के किनारे निर्माण, खराब योजना और उनका गलत क्रियान्वयन और अवैज्ञानिक जल निकासी बाढ़ के लिए जिम्मेदार हैं.

इस स्वीकारोक्ति के बाद पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील निर्णय लेने कि तार्किक बाध्यता है. जल निकासी की व्यवस्था के लिए कृषि, जल संसाधन, सिंचाई, स्वास्थ्य, आपदा प्रबंधन प्राधिकरण आदि संबंधित विभागों की एक स्थायी टोली बनायी जाये, जो त्वरित और दूरगामी पर्यावरणीय और वैज्ञानिक हस्तक्षेप करे.

कोसी तटबंध निर्माण के 50 साल बाद बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र चार गुना बढ़ गया है. हर साल नदियां याद दिलाती हैं कि तटबंध निर्माण ‘अल्पकालीन समाधान' भी नहीं है. सन् 1984 में तटबंध के टूटने से सहरसा और सुपौल के 196 गांव और 70,000 हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो गये थे और 4.58 लाख लोग विस्थापित हो गये थे.

आनेवाले 5-6 सितंबर को नव्हट्टा-केडली गांव में पूर्वी कोसी तटबंध के टूटने का 33वां वर्षगांठ मनाया जायेगा. कुसहा त्रासदी के नौवें साल बाद सरकारी संस्थानों को सबक लेकर तटबंधों वाली मानसिकता से निजात पाना होगा. कोसी नदी जो सबक दे रही है, उसे कोसी और अन्य नदी घाटी क्षेत्र संबंधित नीति, योजना व परियोजना में लागू करना होगा.

सबंधित संस्थानों को यह स्वीकार करके यह पहल करनी होगी कि समाज की संचित स्मृति और संस्थागत स्मृति से ज्यादा लंबी स्मृति नदियों की है. संबंधित विभागों को फरक्का बैराज, गंगा जल मार्ग और कोसी हाइ डैम जैसी परियोजनाओं को रोक कर नदी कि अविरल धारा को पुनः स्थापित करना होगा.

बाढ़ों को आपदा के तौर पर प्रस्तुत करने से बचना होगा. बाढ़ का पानी समस्या इसलिए बनी, क्योंकि सरकारी तंत्र ने बाढ़ के साथ भूमि बनाने के लिए जो गाद आती है, उसे नजरअंदाज करके ही सारी परियोजनाओं को अंजाम दिया. बाढ़ के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात है गाद का प्रबंधन. नदी तो स्वयं ही इसका प्रबंधन करती है, उसे अपना स्वाभाविक काम करने से रोका नहीं जाये. जब नदी की स्वाभाविकता रुकेगी, तो बाढ़ जैसी विभीषिका का ही जन्म होगा.

बाढ़ ग्रस्त इलाकों में बाढ़ के पहले की सरकारी और गैर-सरकारी तैयारी से लोगों को मौत से बचाया जा सकता है और बाढ़ प्रभावित लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया जा सकता है. यह कार्य राहत और आपदा प्रबंधन केंद्रित हस्तक्षेप अल्पकालीन अवधि के ही होते हैं.

इस काम को भी अंजाम नहीं देने से इन संस्थानों की वैधता पर सवालिया निशान लगता है, क्योंकि उनकी संचित स्मृति प्राकृतिक बाढ़ और जल निकासी मार्ग के अवरुद्ध होने से निर्मित सैलाब से जूझते समाज के काम नहीं आ पाया है. इस संबंध में जवाबदेही तय किये बगैर दीर्घकालीन सार्थक प्रयास असंभव है. जवाबदेही के बगैर समस्या-समाधान ग्रस्त यथास्थितिवाद की उलझन को सुलझाया नहीं जा सकता है.

नदी अपने स्मृति के वशीभूत प्राकृतिक स्वरूप में सैलाब के पानी को पूरे इलाके में फैला देती है, जिससे गाद/मिट्टी पूरे नदी घाटी क्षेत्र में फैल कर जमीन की नमी और उपजाऊ क्षमता को बढ़ा कर अनवरत भूमि का निर्माण करती है.

मनुष्य नदी घाटी क्षेत्र में आगमन से पहले से नदी यह कार्य सैलाब के जरिये करती रही है. शुरुआती दौर में मानवी हस्तक्षेप प्रकृति केंद्रित और नदी केंद्रित नजरिये से दूरगामी परिणामों का आकलन करने के बाद ही होते थे. बाढ़ के साथ सहजीवन के लिए पहले से तैयारी स्वाभाविक दिनचर्या का हिस्सा रहा है. नदी को अपना कार्य करने से रोकनेवालों को चिन्हित कर उन्हें अपराधी घोषित करने की प्रक्रिया शुरू करनी होगी.


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1042127.html


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