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न्यूज क्लिपिंग्स् | बीतते हुए 2015 में टूटीं समृद्धि की उम्मीदें, अपेक्षा से कम आर्थिक विकास

बीतते हुए 2015 में टूटीं समृद्धि की उम्मीदें, अपेक्षा से कम आर्थिक विकास

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published Published on Dec 26, 2015   modified Modified on Dec 26, 2015
इस बात की जरूरत है कि सरकार राजनीतिक इच्छाशक्ति से सब्सिडी में कटौती कर अधिक कुशल, बुद्धिमत्तापूर्ण तथा सतर्क कराधान के साथ-साथ उद्योग, बुनियादी ढांचे के विस्तार और आधुनिकीकरण के क्षेत्र में अधिक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आकृष्ट कर पूंजीगत व्यय बढ़ाये़

अर्थव्यवस्था में कुछ मामूली बेहतरी के संकेतों को छोड़ दें, तो 2015 के आर्थिक रुझान बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं रहे हैं. वर्ष के आखिरी महीने में संसद में पेश अर्द्धवार्षिक आर्थिक समीक्षा में मौजूदा वित्त वर्ष में विकास दर के आकलन को 8.1-8.05 से घटा कर 7-7.05 फीसदी किया गया है.

उद्योग, कृषि, रोजगार, निवेश और निर्यात में निराशाजनक स्थिति रही, तो ग्रामीण भारत में मांग में कमी बनी रही. महंगाई से जनता को निजात मिलने की सूरत भी नजर नहीं आयी. संसद में गतिरोध के कारण और व्यापक सहमति के अभाव में सुधार से संबंधित कई जरूरी नीतियां लंबित हैं या उन्हें किनारे रख दिया गया है. वर्ष 2015 की आर्थिकी पर नजर डालते हुए आज का वर्षांत विशेष...

अभी वर्ष का वैसा वक्त है, जब हम पूरे वर्ष का लेखा-जोखा किया करते हैं. हालांकि, कंपनियों तथा राष्ट्रों के लिए यह मौका वित्तीय वर्ष के अंत यानी मार्च के अंत में आया करता है, पर अब तक प्रगति की मुख्य रुझानें साफ हो जाती हैं. इस बार सबसे स्पष्ट रुझान यह है कि अर्थव्यवस्था में खासी मंदी आ चुकी है. सरकार ने पूरे साल की आर्थिक वृद्धि को फरवरी में घोषित मध्यवर्षीय अनुमान 8.1- 8.5 फीसदी से घटा कर अब 7- 7.5 फीसदी कर दिया है. मगर ऐसा लगता है कि 7 प्रतिशत की आशा भी एक दूर की कौड़ी ही है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों में एक लचीलापन अंतर्निहित होता है. इस साल फरवरी में संख्यात्मक बाजीगरी के द्वारा इन अंकों को 2.2 फीसदी का बोनस देते हुए देश की आर्थिक वृद्धि को ज्यादा ऊंचे स्तर पर दिखाया गया था. पहले सकल घरेलू उत्पाद की गणना कारकों की लागत के आधार पर की जाती थी. पर अब इसे स्थिर मूल्यों के आधार पर किया जाता है, ताकि वस्तुओं तथा सेवाओं के साथ अप्रत्यक्ष करों में हुए सकल मूल्यवर्धन को भी इसमें शामिल किया जा सके. इसके अलावा, आधार वर्ष को भी पूर्व के 2004-05 से खिसका कर 2011-12 कर दिया गया.

इस नये पैमाने के आधार पर संप्रग सरकार के अंतिम वर्ष के लिए उस वक्त गणना की गयी वृद्धि दर 4.7 फीसदी के निराशाजनक अंकों से बढ़ कर 6.9 फीसदी के कहीं बेहतर दिखते अंकों तक जा पहुंचती. चालू वर्ष के अंत के अनुमानों के आधार पर यह सहज ही कहा जा सकता है कि मनमोहन सिंह के पद छोड़ने के पश्चात के दो वर्षों में भी सकल घरेलू उत्पाद में मात्र 0.5 प्रतिशत की ही बढ़ोतरी हो सकी है. प्रधानमंत्री की असंख्य घोषणाओं और कथनों के बावजूद यह सब 'खोदा पहाड़ और निकली चुहिया' जैसी उपलब्धि ही लगती है. यदि इसमें से 2.2 के बोनस को निकाल दें, तो यह वृद्धि 5.2 प्रतिशत के अधिक तार्किक स्तर पर जा ठहरती है, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के शुरुआती पूर्वानुमान के अनुरूप ही है.

सकल घरेलू उत्पाद की सांकेतिक वृद्धि दर की गणना बाजार की वर्तमान कीमतों के आधार पर की जाती है और सामान्यत: कॉरपोरेट क्षेत्र भी उसी दर पर वृद्धि करता है. सकल घरेलू उत्पाद की इस सांकेतिक वृद्धि दर से उसकी वास्तविक दर निकालने के लिए उससे मुद्रास्फीति की दर घटा दी जाती है.

2015-16 के बजट में वित्तमंत्री ने इस सांकेतिक वृद्धि दर का लक्ष्य 11.5 फीसदी तय किया है. किंतु 7.4 प्रतिशत की जिस वृद्धि दर की शेखी वे बघार रहे हैं, वही वास्तविक वृद्धि दर है. 2015-16 में हमारी अपस्फीति (डिफ्लेशन) लगभग 2.2 फीसदी है. इसका मतलब यह है कि सकल घरेलू उत्पाद की सांकेतिक वृद्धि दर 5.2 प्रतिशत है और सरकार अपने लक्ष्य से 6.3 प्रतिशत पीछे है.

हाल ही में वित्तमंत्री ने आशा व्यक्त की थी कि वे अब 'हरी शाखें' देख सकते हैं. यह आर्थिक जगत की एक आधुनिक अभिव्यक्ति है, जिसका इस्तेमाल मंदी के दौर में आर्थिक स्वास्थ्य में सुधार के संकेतों को बताने के लिए करते हैं. मगर अर्थव्यवस्था पर नजर रखनेवाले हम अधिकतर लोगों के लिए ऐसी किसी 'हरी शाख' का दीदार कठिन है, जिसे केवल अरुण जेटली ही देख पा रहे हैं. यदि मुझे हरी शाखों की तलाश करनी हो, तो मैं सबसे पहले उन्हें व्यावसायिक बैंकों द्वारा दिये जानेवाले ऋणों की बढ़ोतरी में करूंगा. उद्योग, विनिर्माण, खनन, बिजली, निर्माण तथा अन्य बुनियादी ढांचों के छह अहम क्षेत्रों के लिए 2014-15 तथा 2015-16 के अप्रैल से सितंबर तक की तुलनात्मक वृद्धि साफ तौर पर मंदी के गलियारों में जा खिसकी है.

विनिर्माण के लिए ऋण उठाने की दर 21 फीसदी से घट कर 7.1 फीसदी पर पहुंच गयी है. निर्माण के क्षेत्र में यह 27.4 प्रतिशत से कम होकर 4.1 प्रतिशत पर और खनन में 17.1 प्रतिशत से नीचे आकर 8.2 प्रतिशत पर पहुंच गयी है. केवल बिजली के लिए ऋण लेने की यह दर 13.7 फीसदी से कुछ ही नीचे 12.7 फीसदी पर बनी हुई है और उद्योगों के लिए यह 9.6 फीसदी से नीचे 5.2 फीसदी पर आ अटकी है.

कोई भी किसान यह बता सकता है कि उसे खेतों की तैयारी करने तथा बीज, कीटनाशक, उर्वरक और उपकरणों की खरीद के लिए ऋण की जरूरत होती है. उसके बाद तो वह प्रकृति द्वारा अपनी भूमिका अदा करने तथा हरी शाखों के निकलने का ही इंतजार कर सकता है. मगर हमारे वित्त मंत्री को ऋणों के उठाव के बगैर ही हरी शाखों के निकलने की प्रतीक्षा है. यदि कृषि तथा उससे संबद्ध गतिविधियों के लिए ऋण में वृद्धि को देखें, तो पायेंगे कि यह जून, 2014 के 18.8 फीसदी की तुलना में जून, 2015 में केवल 11.1 फीसदी ही रही.

कृषि उत्पादन को हानि पहुंचानेवाले प्रतिकूल मौसम, ऊंची ग्रामीण उपभोक्ता मुद्रास्फीति और कृषि व निर्माण मजदूरों के रूप में मौसमी रोजगार में गिरावट जैसे कारकों के मेल ने ग्रामीण मांग घटा दी है. एक अन्य मानव निर्मित कारक यह है कि मुद्रास्फीति घटाने की चिंता में वर्तमान सरकार ने संप्रग द्वारा स्थापित ऊंचे कृषि समर्थन मूल्यों की परंपरा छोड़ दी.

इन सबने ग्रामीण क्षेत्र की तकलीफें बढ़ा दीं, जिस पर बीच में ही छोड़ दी गयी निर्माण परियोजनाओं से गांवों की ओर वापस लौटे मजदूरों का बोझ भी आ पड़ा. 2004-05 और 2011-12 के बीच तकरीबन 370 लाख लोगों ने कृषि क्षेत्र को छोड़ दिया. नतीजन, श्रमबल की कमी का असर ग्रामीण दिहाड़ी पर पड़ा, जो 15 से 20 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ती गयी. पिछले साल के दौरान यह केवल 6 प्रतिशत बढ़ी. मोटरसाइकिलों की बिक्री दर में बढ़ोतरी, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति का एक अच्छा संकेतक मानी जाती है, अब मंद पड़ चुकी है.

2015 में दोपहिये वाहनों की बिक्री ने 16 लाख की संख्या छूकर 8.09 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज की, किंतु इसमें 10 लाख 70 हजार की संख्या के साथ मोटरसाइकिलों के हिस्से केवल 2.5 प्रतिशत की ही वृद्धि दर है. ट्रैक्टरों की बिक्री भी प्रतिवर्ष 6.3 लाख से घट कर पिछले वर्ष 5.51 लाख ही रह गयी.

विश्व के आर्थिक स्वास्थ्य में कमजोर सुधार की वजह से भारत द्वारा व्यापारिक वस्तुओं के निर्यात में नवंबर के दौरान लगातार 12वें माह में भी सिकुड़न जारी रही और इसने 20 अरब डॉलर के निम्न स्तर तक पहुंच 24.4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की. अक्तूबर में भी यह 17.5 फीसदी की दर से गिरा था.

तेल तथा गैर-तेल दोनों ही क्षेत्रों के आयात में तेज कमी की वजह से नवंबर, 2015 में कुल आयात ने 29.7 अरब डॉलर के आंकड़े पर पहुंच कर 30 फीसदी की गिरावट दर्ज करायी. दालों, फलों, सब्जियों और इलेक्ट्रॉनिक सामग्रियों को छोड़ कर बाकी लगभग सभी श्रेणियों में इस साल नवंबर के दौरान गिरावट दर्ज की गयी.

स्टॉक दलाली फर्म मोतीलाल ओसवाल सिक्योरिटीज लिमिटेड ने कॉरपोरेट मुनाफे को सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में 2015-16 में उसके 3.9 फीसदी तक आ जाने का आकलन किया है, जो 2003-04 से लेकर अब तक सबसे कम है. भारतीय फर्मों का कुल मुनाफा इस साल 4 लाख करोड़ रुपयों पर स्थिर रहने की संभावना है. सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में बचत का अनुपात 2008 में 38.1 प्रतिशत की ऊंचाई से घट कर 28 प्रतिशत पर स्थिर है. तो फिर निवेश के लिए पैसे कहां से आयेंगे?

इस बात की जरूरत है कि सरकार राजनीतिक इच्छाशक्ति से सब्सिडी में कटौती कर अधिक कुशल, बुद्धिमत्तापूर्ण तथा सतर्क कराधान के साथ-साथ उद्योग, बुनियादी ढांचे के विस्तार और आधुनिकीकरण के क्षेत्र में अधिक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आकृष्ट कर पूंजीगत व्यय बढ़ाये़, ऐसा होने तक हरी शाखों की आशा बेमानी ही होगी.

(अनुवाद : विजन नंदन)

एक नजर

आर्थिक विकास दर 7.4 फीसदी रहने का अनुमान

मौजूदा वित्त वर्ष में देश का आर्थिक विकास दर 7.4 फीसदी रहने का अनुमान है. एशियाई विकास बैंक (एडीबी) के साथ ग्लोबल रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने यह अनुमान जाहिर किया है. हालांकि, एडीबी ने कमजोर विदेशी मांग के कारण निर्यात में गिरावट होने की आशंका जतायी है.

निजी निवेश में सुस्ती और ग्रामीण क्षेत्रों में मांग कम होने के कारण वृद्धि दर के घटने के जोखिम की चेतावनी भी दी है. एडीबी की रिपोर्ट में वर्ष 2015-16 में भारत के लिए आर्थिक विकास के अनुमानों को यथावत 7.4 फीसदी रखा है.

निर्यात में कमी, पर व्यापार घाटा कम

भारत से होनेवाले निर्यात में इस वर्ष नवंबर में लगातार 12वें महीने गिरावट देखी गयी. इससे पहले, वर्ष 2008-09 में वैश्विक आर्थिक मंदी के दौरान लगातार नौ महीने निर्यात में गिरावट आयी थी. वाणिज्य मंत्रालय द्वारा हालिया जारी आंकड़ों के मुताबिक, नवंबर, 2015 में पिछले वर्ष की इसी अवधि के मुकाबले निर्यात 24 फीसदी घट कर 20 अरब डॉलर रह गया, जबकि नवंबर, 2014 में यह आंकड़ा 26 अरब डॉलर था.

अप्रैल-नवंबर 2015 के दौरान भारत का कुल आयात 261 अरब डॉलर रहा. पिछले वर्ष की समान अवधि के मुकाबले कुल आयात में करीब 17 फीसदी की गिरावट आयी है. सोने का आयात भी 36 फीसदी घट कर 3.5 अरब डॉलर रह गया, जबकि नवंबर, 2014 में 5.6 अरब डॉलर का सोने का आयात किया गया था. नतीजन चालू वित्त वर्ष में नवंबर तक का कुल व्यापार घाटा 88 अरब डॉलर रह गया. पिछले साल की समान अवधि में यह 102 अरब डॉलर था.

16 हजार करोड़ का कालाधन

केंद्र सरकार ने बीते 20 महीनों के दौरान 16,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की अघोषित रकम का पता लगाया है. राजस्व सचिव के मुताबिक, इसके अलावा 1,200 करोड रुपये की संपत्ति भी जब्त की गयी है.

उनका कहना है कि सरकार ने यह संपत्ति और रकम मार्च, 2014 के बाद की गयी कार्रवाई के दौरान जब्त की है. इस वर्ष नवंबर तक आयकर विभाग और इसके संबंधित प्रभागों ने 16 हजारा करोड़ से ज्यादा की अघोषित संपत्ति पता लगायी है. इन मामलों में सितंबर, 2015 तक 774 केस दर्ज कराये गये हैं.

आर्थिक प्रदर्शन

भारत का ग्रास डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी जीडीपी ग्रोथ मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में 7 फीसदी रही, जबकि पिछले साल की इसी तिमाही के दौरान ग्रोथ रेट 7.5 फीसदी रही थी. यह मूलरूप से निजी खपत, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर की दर धीमी रहने के कारण हुई है.

हालांकि, पिछले वर्ष की इसी तिमाही में फिक्स्ड इनवेस्टमेंट 4.1 फीसदी तक ही रही थी, जो इस वर्ष की पहली तिमाही में बढ कर 4.9 फीसदी तक पहुंच गयी, जो कैपिटल एक्सपेंडीचर में सुधार के संकेत को दर्शाता है. कृषि क्षेत्र में इस दौरान महज 1.9 फीसदी की ही बढ़ोतरी रही.

तेल की कीमतों में वैश्विक स्थिरता जैसे सकारात्मक प्रभाव और कठोर मुद्रा नीति कायम रखने के कारण वित्तीय वर्ष 2015 के पहले चार माह के दौरान कंज्यूमर प्राइस इन्फ्लेशन को 4.8 फीसदी के औसत पर बनाये रखने में सफलता मिली है. पिछले वित्तीय वर्ष में व्यापार घाटा जीडीपी का करीब 1.6 फीसदी रहा था, जिसमें कुछ हद तक कामयाबी मिली है और मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में यह जीडीपी का 1.2 फीसदी तक रहा.

कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था

राष्ट्र में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के योगदान में कमी आयी है. 2013-14 में कृषि क्षेत्र की विकास दर रिकाॅर्ड 4.7 प्रतिशत थी. इस वर्ष यह दर घट कर मात्र 1.1 प्रतिशत रह गयी है. पिछली तीन फसलों के दौरान गेहूं, चावल एवं मक्के की फसलों में 29 प्रतिशत की गिरावट हुई है.

2013-14 में खरीफ फसल पर यूपीए सरकार ने 420 रुपये अरहर पर, 135 रुपये मक्का पर और 300 रुपये काले सोयाबीन पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की बढ़ोतरी की थी. एनडीए सरकार ने 2015-16 में इन्हीं फसलों पर 75 रुपये, अरहर पर 16.7 प्रतिशत 15 रुपये, मक्के पर 16.7 प्रतिशत एवं 15 रुपये 11.1 प्रतिशत रुपये काले सोयाबीन के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की.


http://www.prabhatkhabar.com/news/vishesh-aalekh/story/677131.html


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