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न्यूज क्लिपिंग्स् | बे-कायदा क्यों हों कैदखाने? - गोपालकृष्‍ण गांधी

बे-कायदा क्यों हों कैदखाने? - गोपालकृष्‍ण गांधी

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published Published on Oct 11, 2014   modified Modified on Oct 11, 2014
अदालती फैसलों की कानूनी वजहें होती हैं। अदालतें बहुत सोच-समझकर, ध्यान से, अपने नतीजों पर आती हैं। उन्हें हमें बाइज्जत कुबूल करना चाहिए।

उन पर अगर हमें कुछ कहना हो तो वह बहुत समझ-बूझकर, ध्यान से ही कहना चाहिए।

वैसा ही इस छोटे-से रिसाले में करना चाहूंगा।

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता-जी के 'केस" पर मैं कुछ नहीं कह सकता। अव्वल, मैं उस मामले की तफसीली अंतर्वस्तुओं से वाकिफ ही नहीं। अच्छा ही है! कई हैं, जो उस मुआमिले की छानबीन करेंगे। कहां से कितने रुपैये उन मोहतरमा के पास पहुंचे, क्यूं पहुंचे। वह सब मेरी इल्म के ऊपर है। मेरी सोच से भी। अगर कानून भंग हुआ है तो कानून अपना फैसला देगा।

लेकिन कर्नाटक के माननीय हाईकोर्ट ने जब उन मोहतरमा को जमानत पर छोड़ने से इनकार किया तो मुझमें कई खयाल उट्ठे।

इस महिला को तकदीर ने बचपन और यौवन में बेहद तकलीफ दी है, खतरों में डाला है। उनकी दास्तान को हम सब पूरी तरह जानते नहीं, लेकिन अंदाज लगा सकते हैं। सिनेमा की दुनिया सितारों से नहीं, तीरों से जड़ी होती है। उस दुनिया से निकलकर जयललिता-जी सीधे सियासत की दुनिया में आईं, जहां फिर वही बात! लेकिन वहां भी वे अपने तरीकों से कामयाब हुईं। काश, उन्हें अक्लमंद नहीं, दानिशमंद सलाहकार मिलते, खुशामाती नहीं सलामाती, जो कि बताते 'बेटी, यूं नहीं यूं करो..." काश।

जब मोहतरमा को जेल के सन्नाटे ने घेरा, तब कई नई-पुरानी यादें आई होंगी। कई अफसोसों ने, कई रंजिशों ने भी उस सन्नाटे के साथ उन्हें घेरा होगा। क्या उनका यह अलहदा तजुर्बा उन्हें एक अलहदा इंसान बना सकता है?

सुनने में आता है कि वे खुद सजा के लिए तैयार थीं, लेकिन ऐसी सजा के लिए नहीं, जिसमें जमानत की इजाजत ना मिले। वे इस अंदाजे पर थीं कि केस के फैसले को सुनकर, वह जो भी हो, उसको कुबूल कर, जमानत मांगकर, पाकर, वे अपने घर पर लौट आएंगी।

लेकिन बात कुछ और ही हुई।

हो सकता है कि जयललिता-जी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट उन्हें जमानत पर बाहर आने की इजाजत दे दे। ऐसा हो तो नेक-अंदेशी के तौर पर, इंसानियत के तौर पर, दर्दमंदाना रिवाज में लोगों में खुशी होगी।

दौलत, जायदाद, जमा और वाजिब-उल-वसूल के मुआमिले में जयललिता-जी अंत में कहां निखरकर आती हैं, वो बात दूसरी है। फिलहाल, उस छियासठ साल की, काफी नासाज ख्वातून को, काबिल-ए-जमानत माना जाना उनको सुकून देगा।

वकीलों को मुझ जैसा क्या बतलाए! लेकिन जब हाईकोर्ट में जयललिता-जी की जमानत पर अपील की सुनवाई हो रही थी तो उनके माननीय वकीलों ने इंसानियती दलील पर जोर कम और केस की अंतर्वस्तु पर जोर ज्यादा दिया था। अगर वकील सिर्फ इतना ही कहते कि इस समय, इस वक्त, इस लमहे पर, बात उनकी मासूमियत की नहीं, उनकी सेहत की है, उनकी पीढ़ी की है, तो गालिबन हाईकोर्ट का जमानत के बारे में फैसला कुछ और होता।

जयललिता-जी मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, नामी राजनीतिज्ञ हैं। वो जमानत पर बाहर आएं तो कहीं गुम या लापता हो जाने वाली नहीं। यह सब कहा जा सकता था।

बहरहाल। जब तक पाठकगण यह पढ़ेंगे, तब तक उनकी जमानत पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय मालूम हो गया होगा।

अब मैं बात से बात जाना चाहूंगा जयललिता-जी की जमानत से आगे। और मैं चाहूंगा कि इस जेल के तजुर्बे के बाद वे खुद इस आगे की बात को अपनी दास्तान से आगे ले जाते हुए, उसको अपना एक 'मिशन" बनाएं।

और वह बात है हमारे कैदी-कायदों की। यानी कायदा-ए-कैदियों की।

मैं मानता हूं कि हर समाज, हर मुल्क की असली पहचान होती है उसके पांच रवैयों से : पहला रवैया उसके बच्चों से, दूसरा उसके बुजुर्गों से, तीसरा उसकी बहुओं-बेटियों से, चौथा उसके बीमार लोगों से और पांचवां उसके बंदियों से, यानी उसके कैदियों, मुजरिमों से।

कैदखाने बे-कायदा नहीं हो सकते।

'जेल मैन्युअल" करके एक जिल्द होती है।

वह अपने में एक इल्मियत है।

वह कितनों के पास है?

सन् 2005 की बात है। राज्यपालों की सालाना कांफ्रेंस थी दिल्ली में, राष्ट्रपति भवन में। कलकत्ते में उस ओहदे पर था, तिस कर मैं भी वहां मौजूद था।

तब के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह साहिब ने अपनी तकरीर में गवर्नरों को कहा : 'ख्वातिनो-हजरात, हमारे सियासती इंतजाम में प्रशासनिक तकाजे अवाम की चुनी हुई सरकार में रहते हैं, यानी मुख्यमंत्रियों में। लेकिन अवाम की जिंदगी में कई ऐसे कोने होते हैं, जिन पर गौर करने के लिए वक्त मुख्यमंत्रियों को आसानी से मिलता नहीं। ऐसा एक कोना है, हमारे कैदखानों का इंतजाम, उनके हालात।" और उन्होंने यह हिदायत दी कि गवर्नर-लोग जब भी हो सके, तब जेलों के हालात खुद अपनी आंखों से देखें और जेल मैन्युअलों और जेल-संबंधी इंतजामों के अम्ल के बारे में ध्यान दें। कैदखाने सजा के घर होने चाहिए, सितम के नहीं। वे दुरुस्ती के मकतब होने चाहिए, ज्यादती के नहीं।

बहुत दर्दमंदाना सलाह थी वो।

बहुत उपयोगी भी।

हिंदुस्तान के जेल पहले से अब बहुत बेहतर हैं। उन्हें अब

'सुधारगृह" कहा जाता है, कैदखाना नहीं। ऐसा होते हुए भी उनमें सुधार की बहुत गुंजाइश है। बहुत। खासकर महिला-कैदियों के हालात में।

गुनाह जो होता है, क्या कहें, बहुत अजीब चीज है। किन परिस्थितियों में, किन मजबूरियों में, किन-किन हादिसों-इत्तेफाकों, गाफिलात में गुनाह, गुनाह बन जाता है। बात एक पल की, सालों तक के लिए कैद में भेज सकती है।

कानून अपनी जगह है और हमें उसकी इज्जत करनी चाहिए। सिर्फ जुबानी इज्जत नहीं, दिली इज्जत। अदालतों से ही तो समाज में आज कुछ व्यवस्था है,

कुछ नैतिकता, कुछ इंसाफ।

लेकिन इंसाफ के साथ इंसानियत करके भी एक चीज होती है।

हमारे कैदखानों में लाखों दास्तान हैं, तकदीरों की, तदबीरों की। हर कैदी एक दुनिया है, एक अनलिखी गीतांजलि।

स्वच्छ भारत में स्वच्छ जेल होने चाहिए। स्वच्छ सिर्फ 'साफ" के मायने में नहीं, इंसाफ के मायने में भी। उस इंसाफ के मायने में, जिसमें इंसानियत शामिल है।

(लेखक पूर्व राज्यपाल, उच्चायुक्त और सेंटर फॉर पब्लिक अफेयर्स एंड क्रिटिकल थ्योरी में सीनियर फेलो हैं)


http://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-why-prisons-should-be-lawless-202229


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