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न्यूज क्लिपिंग्स् | बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड - 2

बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड - 2

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published Published on Jul 29, 2010   modified Modified on Jul 29, 2010
सही है कि पूरे बुंदेलखंड में लगभग 2 लाख 80  हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं - या तो मरम्मत के अभाव में वे गिर गए हैं या वे सूख गए हैं- लेकिन थोड़े-से रुपए खर्च करके उन्हें फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सकता है. मगर पंचायतों और अधिकारियों का सारा जोर नए कुएं-तालाब खुदवाने पर अधिक रहता है. एेसा इसलिए होता कि इनमें ठेकेदारों, जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों को फायदा होता है. पचपहरा के पूर्व प्रधान और महोबा के किसान नेता पृथ्वी सिंह इस प्रक्रिया को समझाते हैं, ‘मान लीजिए कि लघु सिंचाई विभाग के पास पैसा आया और उसे यह खर्च करना है. तो वे पुराने कुओं की मरम्मत पर खर्च नहीं करेंगे, क्योंकि उसमें बहुत कम खर्च आएगा. वे एक नया कुआं खोदेंगे. इसमें तीन लाख रुपए की लागत आती है. विभाग का मानक अगर 20 फुट का है तो ठेकेदार 20 फुट गहरा कुआं खोद कर चले जाएंगे. उन्हें इससे मतलब नहीं है कि इतनी गहराई पर कुएं में पानी है भी कि नहीं.’

नतीजे सामने हैंः फसलें बरबाद हो रही हैं. किसान बदहाल हैं. परिवार उजड़ रहे हैं.  इसने इलाके के पुराने  गौरवों को भी अपनी चपेट में लिया है. कभी महोबा की एक पहचान यहां उगने वाले पान से भी थी. मगर दूसरी और वजहों के अलावा पानी की कमी के कारण आज शहर से जुड़ी पट्टी में इसकी खेती पूरी तरह से चौपट हो चुकी है और करीब 5 हजार परिवार  बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं.

यह बरबादी बहुआयामी है. अभी कुछ साल पहले तक महोबा के ही कछियनपुरवा गांव के 70 वर्षीय पंचा के पास सब-कुछ था. उनके चार बेटों और तीन बहुओं का परिवार अच्छी स्थिति में था. उनके 21 बीघा (करीब तीन एकड़) खेतों ने कभी साथ नहीं छोड़ा था. लेकिन पिछले दस साल में सब-कुछ बदल गया. पहले पानी बरसना कम हुआ, इसके बाद बारी आई फसलों के सूखने की. इतनी लंबी उमर में उन्होंने जो नहीं देखा था वह देखा- गांव के पास से गुजरती चंद्रावल नदी की एक नहरनुमा धारा सूख गई, लोगों के जानवर मरने लगे. घरों पर ताले लटकने लगे. अब तो उनकी बूढ़ी आंखों को किसी बात पर हैरत नहीं होती, पिछले साल ’कुआर’ (अगस्त-सितंबर) में 16 बीघे में लगी अपनी उड़द की फसल के सूखने पर भी नहीं.

दो दिनों से आसमान में बादल आ-जा रहे हैं और धूप न होने का फायदा उठाते हुए वे अपने छप्पर की मरम्मत कर रहे हैं. उनकी उम्मीद बस अब अच्छे मौसम पर टिकी है. जितना उन्होंने देखा और समझा है उसमें पंचायत और सरकार से कोई उम्मीद नहीं रह गई है. वे बताते हैं, ‘जब फसल सूखी तो हमें बताया गया कि सरकार इसका मुआवजा दे रही है. चार महीने चरखारी ब्लॉक के चक्कर लगाने के बाद मुझे दो हजार रुपए का चेक मिला. यह तो फसल बोने में लगी मेरी मेहनत जितना भी नहीं है. क्या 16 बीघे की उड़द को आप 20 दिनों की मेहनत में उपजा सकते हैं?’

आज उनका घर बिखर-सा गया है. उनके चारों बेटे पंजाब में रहते हैं. दो बहुएं घर छोड़कर किसी और के साथ जा चुकी हैं. उनकी जमीनें अब साल-साल भर परती पड़ी रहती हैं.

हमारे आग्रह पर उनकी पत्नी बैनी बाई शर्माते हुए बारिश या सूखे से जुड़ा कोई गीत याद करने की कोशिश करती हैं, लेकिन शुरू करते ही उनकी सांस उखड़ने लगती है. सांस उखड़ने की यह बीमारी उन्हें लंबे समय से है, जिसका इलाज वे चार साल से सरकारी डॉक्टर के यहां करा रही हैं. उन्हें बारिश के साथ एक अच्छे (लेकिन सस्ते) डॉक्टर का भी इंतजार है जो इस बीमारी को ठीक कर दे. इसके बावजूद कि राशन के कोटेदार ने पिछले सवा दो साल में पंचा को सिर्फ एक बार 20 किलो गेहूं और 2 लीटर मिट्टी का तेल दिया है, और इस बात को भी आठ माह हो चुके हैं, वे पूरी विनम्रता से मुस्कुराते हैं. आप उनकी मुस्कान की वजहें नहीं जानते लेकिन उनमें छिपी एक गहरी पीड़ा को जरूर महसूस कर सकते हैं.

पंचा थोड़े अच्छे किसान माने जा सकते हैं क्योंकि उनके पास करीब तीन एकड़ खेत हैं. लेकिन बुंदेलखंड में एेसे लोगों की संख्या ज्यादा है, जिनके पास या तो बहुत कम जमीन है या वे भूमिहीन हैं. उनके पास दूसरों के खेतों में काम करने का विकल्प भी नहीं बचा है, क्योंकि खेती का सब जगह ऐसा ही हाल है. तब वे पलायन करते हैं और दिल्ली-लखनऊ जैसे शहरों के निर्माण कार्यों तथा कानपुर के ईंट-भट्ठों में जुट जाते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता और पानी के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वाले और एक कालजयी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब लिखने वाले अनुपम मिश्र इस पर तंज स्वर में कहते हैं, ‘अगर सूखे और अकाल की स्थितियां न होतीं तो राष्ट्रमंडल खेल कैसे होते भला!’

महोबा स्थित एक एनजीओ कृति शोध संस्थान की एक टीम ने जब इस साल फरवरी में जिले के आठ गांवों का दौरा किया तो पाया कि यहां के कुल 1,689 परिवारों में से 1,222 परिवार पलायन कर चुके हैं. इनमें से 269 घरों पर ताले लटके हुए थे जबकि 953 परिवारों के ज्यादातर सदस्य दूसरी जगह चले गए थे.

लोगों ने पलायन करने को नियम बना लिया है. वे जून-जुलाई में गांव लौटते हैं और इसके बाद फिर काम की अपनी जगहों पर लौट जाते हैं. उनके गांव आने की दो वजहें होती हैं. वे या तो किसी शादी में शामिल होने के लिए आते हैं या बारिश की उम्मीद में.

बिंद्रावन अभी एक हफ्ते पहले गांव से लौटे हैं. महोबा के खरेला थाना स्थित पाठा गांव के रहने वाले बिंद्रावन पूर्वी दिल्ली में रहते हैं, सीलमपुर के पास गोकुलपुरी के एक छोटे और संकरे-से दुमंजिले मकान की पहली मंजिल पर. उनकी पत्नी फिलहाल थोड़ी बीमार हैं, इसलिए वे थोड़े चिंतित दिख रहे हैं.

64% वन खत्म हो चुके हैं. बारिश की कमी के पीछे यह बड़ा कारण है. बुंदेलखंड के सातों जिलों में 10 करोड़ पौधे लगाने की योजना सरकार चला रही है, पर इसकी सफलता पर संदेह जताया जा रहा है

वे यहां पिछले 6 साल से हैं और दिल्ली नगर निगम के तहत राजमिस्त्री का काम करते हैं. इससे उन्हें रोज 225 रुपए मिलते हैं. उनकी पत्नी भी कभी-कभी काम करती हैं और उन्हें 140 रुपए मिल जाते हैं. दोनों मिला कर महीने में लगभग सात हजार रुपए कमा लेते हैं.

लेकिन उनके लिए इस आमदनी से ज्यादा महत्वपूर्ण उनके खर्च का ब्योरा है. वे इस रकम से 1,300 रुपए कमरे और बिजली के किराए के रूप में दे देते हैं. 1,000 रुपए अपने बच्चों की फीस और किताबों पर खर्च होते हैं. 3,000 रुपए हर महीने वे राशन पर खर्च करते हैं. 1,000 रुपए हर माह जेल में बंद उनके एक रिश्तेदार पर खर्च हो जाते हैं. अगर कोई बीमार नहीं पड़ा-जिसकी संभावना कम ही होती है- तो वे महीने में 700 रुपए बचा सकते हैं.  

लेकिन यह आमदनी बहुत भरोसे की नहीं है. बारिश के दिनों में काम कई दिनों तक ठप रहता है. बिंद्रावन अपनी आय में कुछ और बचत कर सकते थे, अगर उन्हें राशन की सस्ते दर की दुकान से राशन मिलना संभव होता, दिल्ली में चलने पर गाड़ियों में कुछ कम पैसे देने होते, बीमारी के इलाज पर उन्हें हर महीने एक-दो हजार रुपए खर्च नहीं करने होते और सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी अच्छी होती कि उनमें भरोसे के साथ बच्चों कोे पढ़ाया जा सके. तब वे अपने पिता के सिर से कर्ज का बोझ उतारने में उनकी मदद कर सकते थे. बिंद्रावन ने 7 साल पहले जब गांव छोड़ा तो उनके पिता के ऊपर कर्ज था. उनके पिता पर आज भी कर्ज है, क्योंकि उन्हें अपने 6 बीघे खेतों से उम्मीद बची हुई है.

एक किसान आसानी से अपने खेतों से उम्मीद नहीं छोड़ता. तब भी नहीं जब दस साल से बारिश नहीं हो रही हो और लगातार कर्जे के जाल में फंसता जा रहा हो. लेकिन तब एेसा क्यों है कि उनका भरोसा चुकता जा रहा है?

सुंदरलाल का नाम उस सूची में 62वें स्थान पर है जिसे महोबा के एक किसान नेता और पचपहरा ग्राम के पूर्व प्रधान पृथ्वी सिंह ने 2008 में बनाना शुरू किया था. पिछले पांच सालों में अकेले इस जिले में 62 लोगों ने आत्महत्या की है. बांदा के एक सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पेंद्र के अनुसार पूरे बुंदेलखंड के लिए यह संख्या 5,000 है. आत्महत्या करने वाले किसानों में सिर्फ भूमिहीन और छोटे किसान ही नहीं हैं, वे किसान भी हैं जिनकी आर्थिक स्थिति एक समय अच्छी थी और जिनके पास काफी जमीन भी थी. आत्महत्या करने की उनकी वजहों में सबसे ऊपर बैंकों का कर्ज चुका पाने में उनकी नाकामी है. पृथ्वी सिंह कहते हैं, ‘किसान यहां अकसर ट्रैक्टर या पंपिंग सेट के लिए कर्ज लेते हैं. लेकिन जमीन में पानी ही नहीं है, इसलिए प्रायः पंपिंग सेट काम नहीं करता. किसानों के घर में जब खाने को नहीं होता तब बैंक उन्हें अपना कर्ज लौटाने पर मजबूर करते हैं. मजबूरन कई जगह किसान उसे लौटाने के लिए साहूकारों से कर्ज लेते हैं और एक दूसरे तथा और बुरे जाल में फंस जा रहे हैं.’

बांदा जिले के खुरहंड गांव के इंद्रपाल तिवारी हालांकि उतने बड़े किसान भी नहीं हैं. उनके पास करीब 9 बीघा जमीन है. उन्हें ट्रैक्टर की कोई खास जरूरत नहीं थी, लेकिन एक ट्रैक्टर एजेंट के दबाव में आकर उन्होंने 2004 में अतर्रा स्थित भारतीय स्टेट बैंक से इसके लिए 2 लाख 88 हजार रुपए कर्ज लिए. फसलों से बीज तक न निकल पाने के कारण उनकी हालत वैसे भी खस्ता थी और ट्रैक्टर ने उनकी आय में कोई वृद्धि नहीं की थी, इसलिए वे उसकी किस्तें नहीं चुका पा रहे थे. आखिरकार 2006 में झांसी स्थित मेसर्स सहाय एसोसिएट्स के कुछ लोग तिवारी के पास आए और खुद को बैंक का आदमी बताकर उनका ट्रैक्टर छीन कर ले गए. इसके पहले बैंक ने उनसे 1 लाख 25 हजार रु की वसूली का नोटिस जारी किया था. ट्रैक्टर छीने जाने के बाद बैंक ने जब बकाया राशि की रिकवरी का आदेश जारी किया तो तिवारी ने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से आरटीआई कानून के तहत बैंक से जानकारी मांगी. इसमें कई चौंकानेवाले तथ्य सामने आए. बैंक ने रिकवरी एजेंसी सहाय एसोसिएट्स के जरिए ट्रैक्टर को तिवारी से लेकर 1 लाख 99 हजार रु में नीलाम कर दिया था.      

दो साल बाद जब सरकार ने किसानों के लिए कर्ज माफी की घोषणा की तो बुंदेलखंड भी इसमें शामिल था. तिवारी ने इसके लिए आवेदन किया. कुछ ही दिनों बाद तिवारी भी उन सौभाग्यशाली किसानों की सूची में शामिल थे जिनके कर्ज ‘मानवीय चेहरेवाली केंद्र सरकार’ ने माफ किए थे. तिवारी के लिए भले न हो आपके लिए उस रकम के बारे में जानना महत्वपूर्ण हो सकता है. वह रकम थी 525 रुपए.

यह मजाक था. लेकिन तिवारी को इसे सहना पड़ा. उन्होंने अपने साथ हुए इस अपमानजनक व्यवहार के बारे में केंद्रीय कृषि मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री तक को पत्र लिखा है. उन्हें हाल ही में कृषि मंत्रालय का जवाब भी मिला है जिसमें कहा गया है कि उनके मामले पर विचार किया जा रहा है.

पुष्पेंद्र कर्ज देने की इस पूरी प्रक्रिया को ही किसानों के लिए उत्पीड़क बताते हैं. उनका कहना है कि किसानों को सहायता के नाम पर ट्रैक्टर के लिए कर्ज थमा दिए जाते हैं जबकि अधिकतर किसानों को न तो ट्रैक्टर की जरूरत होती है न उन्होंने इसकी मांग की होती है. वे इसे बैंक और ट्रैक्टर एजेंसी के लाभों की संभावना से जोड़ते हैं. वे कहते हैं, ‘एक ट्रैक्टर के लिए दिए जाने वाले कर्ज पर बैंक मैनेजर 20 से 40 हजार रुपए, ट्रैक्टर एजेंसी के दलाल 10 से 20 हजार रुपए और ट्रैक्टर एजेंसी 40 से 60 हजार रुपए कमीशन लेते हैं. इस तरह किसान से 1 लाख रुपए तो कमीशन के रूप में ही ले लिए जाते हैं. इस तरह किसान को वह राशि तो अपनी जेब से चुकानी ही पड़ती है, उस पर सूद भी देना पड़ता है, जो उसे कभी मिली ही नहीं.’ यह एेसे होता है कि एजेंसी कर्ज की राशि में ट्रैक्टर के साथ हल-प्लाऊ जैसे अनेक उपकरण भी जोड़ लेती है, लेकिन उन्हें किसानों को दिया नहीं जाता. इसके अलावा कई बार बीमा और स्टांप के नाम पर भी किसानों से नकद राशि ली जाती है. अगर किसान के पास पैसे न हों तो उन्हें एजेंट नकद कर्ज भी देते हैं.

दूसरी कल्याणकारी योजनाओं की असलियत कर्ज माफी और संस्थागत ऋणों की इस कहानी से अलग नहीं है.

75-80% आबादी गांवों से पलायन करती है. यह प्रायः  जुलाई-अगस्त में शुरू होता है.  इनमें भूमिहीन किसान भी हैं और जमीनवाले भी. इस दौरान गांवों में सिर्फ महिलाएं और वृद्ध रह जाते हैं

नरेगा को ही लेते हैं. नरेगा की राष्ट्रीय वेबसाइट पर 2009-10 के लिए हमीरपुर जिले के भमई निवासी मूलचंद्र वर्मा के जॉब कार्ड (UP-41-021-006-001/158) के बारे में पता लगाएं. वेबसाइट बताती है कि 1 मई 2008 से 25 अप्रैल 2010 तक उनको 225 दिनों का काम मिल चुका है. लेकिन मूलचंद्र के कार्ड पर इस पूरी अवधि में सिर्फ 16 दिनों का काम चढ़ा है. हालांकि वे जो ज़बानी आंकड़े देते हैं उनसे साइट के आंकड़ों की  कमोबेश पुष्टि हो जाती है. पुष्टि नहीं होती तो भुगतान की गई रकम की. मूलचंद्र का दावा है कि उन्होंने नरेगा के तहत 3 साल में 300 दिनों का काम किया है. उन्हें अब तक 18,300 रुपए का भुगतान किया गया है. वे अपने बाकी 11,300 रुपए के लिए पिछले तीन-चार महीनों से भाग-दौड़ कर रहे हैं. लेकिन यह नहीं मिली है. वे कहते हैं कि प्रधान और पंचायत सचिव उनसे नरेगा के तहत काम करवाते हैं लेकिन उसे जॉब कार्ड पर दर्ज नहीं करते, ‘2008 से लेकर अब तक मैंने 300 दिनों का काम किया है. लेकिन यह मेरे कार्ड पर दर्ज नहीं है. उन्होंने मेरे खाते में रकम जमा भी कराई है, लेकिन जो रकम बाकी है उसका भुगतान वे नहीं कर रहे हैं.’

वे प्रदेश की मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक का दरवाजा खटखटा चुके हैं. लेकिन अब तक उन्हें यह रकम नहीं मिल पाई है. पैसे के अभाव में वे अपनी बीमार बेटी का इलाज तक नहीं करा सके और वह मर गई. इसके उलट भमई की प्रधान उर्मिला देवी बताती हैं, ‘मूलचंद्र झूठ बोल रहे हैं. उन्हें पूरी रकम दी जा चुकी है.’ लेकिन तब भी जॉब कार्ड और उनके अपने आंकड़ों में इतना भारी अंतर बताता है कि कुछ गड़बड़ है. और यह गड़बड़ी एेसी नहीं है कि इसे खोजना पड़े. यह सतह पर दिखती है. अधिकतर शिकायतें प्रधानों के रवैए को लेकर हैं. वे नरेगा की रकम को कर्ज के रूप में देते हैं और जॉब कार्ड पर काम कराकर उसे ब्याज समेत वसूलते हैं. प्रायः वे  अपने नजदीकी लोगों को काम पर रखते हैं. अगर किसी तरह काम मिल जाए तो प्रायः 100 दिनों की गारंटी पूरी नहीं होती. ये सारी धांधलियां इस तरह की जाती हैं कि कोई भी उन्हें पकड़ सकता है. तहलका को उपलब्ध दस्तावेज दिखाते हैं कि साल में सौ दिन से अधिक काम दिए गए हैं और मर चुके लोगों के नाम पर भी भुगतान किए गए हैं.

महोबा जिला हाल के कुछ दिनों में नरेगा में भारी भ्रष्टाचार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाने लगा है. शायद यह अकेला जिला है जहां 52 प्रधानों से रिकवरी का ऑर्डर हुआ है. नरेगा के नियमों के तहत जितना खर्च होना चाहिए उससे 20 गुना अधिक खर्च की भी घटनाएं सामने आई हैं. जिले में मुख्य विकास अधिकारी समेत सात बड़े प्रशासनिक अधिकारी नरेगा में भ्रष्टाचार के आरोपों में निलंबित हुए हैं.

लेकिन महोबा के मौजूदा मुख्य विकास अधिकारी रवि कुमार के लिए यह बहुत परेशानी की बात नहीं है. वे कहते हैं, ‘भ्रष्टाचार तो ग्लोबल फिनोमेना है. इसका कोई ओर-छोर दिखाई नहीं देता. दरअसल, इसमें पंचायतों को इतना पैसा खर्च करने के लिए दे दिया जाता है कि वे समझ नहीं पातीं कि क्या करना है.’ वे चाहते हैं कि पंचायती राज के नियमों की समीक्षा की जाए, क्योंकि इससे अपेक्षित परिणाम नहीं आ रहे हैं.

सवाल कुछ और भी हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों की पर्सपेक्टिव नाम की एक टीम अक्तूबर 2009 में बुंदेलखंड गई थी. इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित रिपोर्ट में टीम ने इसे रेखांकित किया है कि नरेगा जैसी योजना, जो सामान्य स्थितियों में गांव के एक सबसे वंचित हिस्से को राहत मुहैया कराने के लिए बनाई गई है, वह एेसे संकट के समय सारी आबादी को संकट से नहीं उबार सकती.

और एेसे में जब केंद्र सरकार ने सामरा रिपोर्ट में सिफारिश किए जाने के दो साल की देरी के बाद 7,277 करोड़ रुपए का पैकेज पिछले साल नवंबर में बुंदेलखंड को दिया है, जिसमें से 3,506 करोड़ रुपए उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के हिस्से आएंगे, तो उम्मीद से अधिक चिंताओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया है. ये चिंताएं बड़ी राशि की प्रधानों और अधिकारियों द्वारा लूट से जुड़ी चिंताएं हैं, क्योंकि यह राशि भी उसी चैनल के जरिए और उन्हीं योजनाओं पर खर्च होनी है जिनकी कहानी अब तक हमने पढ़ी है.

ये चिंताएं कितनी वाजिब हैं, इनका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पैकेज मिलने के तीन महीने के भीतर मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में 11 योजनाएं पूरी कर ली गई हैं और पिछले छह महीने में 36 योजनाओं को पूरा किया गया है. पैकेज गांवों में रोजगार और काम पर कितना सकारात्मक असर डाल रहा है, इसके संकेत के तौर पर हम कुतुब (महाकौशल एक्सप्रेस) से दिल्ली लौटने वालों की भारी भीड़ के रूप में भी देख रहे हैं. योजनाएं तेजी से पूरी हो रही हैं, उस समय भी जब लोग गांवों में नहीं हंै. वे काम की अपनी पुरानी जगहों पर लौट रहे हैं.

इसीलिए रामकली को उम्मीद नहीं है कि यह पैकेज उनकी कोई मदद कर सकता है. वे कानपुर में ईंट भट्ठे पर अपने बेटे और बहू के पास जाने की सोच रही हैं.

(तारा पाटकर के सहयोग के साथ)

http://www.tehelkahindi.com/indinon/national/633.html
 

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