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न्यूज क्लिपिंग्स् | बैंकों की बैलेंस शीट बदहाल क्यों? - धर्मेंद्रपाल सिंह

बैंकों की बैलेंस शीट बदहाल क्यों? - धर्मेंद्रपाल सिंह

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published Published on Feb 16, 2016   modified Modified on Feb 16, 2016
बैंक देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, लेकिन दुर्भाग्य से आज वे बदहाल हैं। देश में लिस्टेड 39 में से 30 बैंकों की तीसरी तिमाही की जारी रिपोर्ट खतरनाक संकेत देती है। पता चलता है कि महज तीन महीनों में उनके नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) में 26 प्रतिशत इजाफा हो गया है। रिपोर्ट जारी करने वाले सोलह सार्वजनिक और चौदह निजी बैंकों की बैलेंस शीट एक दर्दभरी दास्तान बयान करती हैं। भारत के सबसे बड़े स्टेट बैंक की चेयरमैन ने तो साफ कह दिया कि चालू वित्त वर्ष में ऋ ण इजाफे का लक्ष्य (14 फीसदी) हासिल करना कठिन है। कल तक ठोस धरातल पर खड़े अधिकांश सार्वजनिक बैंक अब जमीन पर लोटपोट नजर आते हैं। देना, सेंट्रल, इलाहाबाद, ओरियंटल तथा बैंक ऑफ इंडिया तो घाटे में आ चुके हैं, जबकि स्टेट बैंक और पीएनबी बाल-बाल बचे हैं। स्टेट बैंक का मुनाफा गिरकर 1115 करोड़ और पीएनबी का सिर्फ 51 करोड़ रह गया है।

बैंकिंग शब्दकोष में जब कोई कर्ज लेने वाला तीन माह से ज्यादा समय तक अपनी किश्त नहीं चुकाता तो उसका ऋण एनपीए घोषित कर दिया जाता है। बैलेंस शीट को सेहतमंद दिखाने और एनपीए के दाग से बचने के लिए बैंक अक्सर मोटे कर्जे रिस्ट्रक्चर कर देते हैं। साफ शब्दों में कहा जाए तो ऋ ण न चुकाने वाले को दंडित करने के बजाय छूट दी जाती है। एनपीए और रिस्ट्रक्चर्ड लोन को जोड़कर जो रकम बनती है, उसे स्ट्रेस लोन (ऐसा कर्ज जो संकट में हो) कहा जाता है। आज हमारे सरकारी बैंकों का 14.1 प्रतिशत कर्ज स्ट्रेस लोन की श्रेणी में है, जबकि निजी बैंकों का मात्र 4.6 फीसदी कर्ज संकट में है। जब उधार दी रकम और उसका ब्याज वापस मिलने की कोई संभावना नहीं रहती, तब बैंक ऐसा ऋण बट्टे खाते में डाल देते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार बैंकों ने 1.14 लाख करोड़ का कर्ज बट्टे खाते में डाल दिया है। यह रकम खाद्य सुरक्षा कानून पर केंद्र सरकार के सालाना वार्षिक व्यय के करीब है। यदि एनपीए, रिस्ट्रक्चर्ड लोन और बट्टे खाते में डाल दिए गए ऋण को जोड़ें तो सितंबर 2015 में यह रकम कुल कर्जे का 17 प्रतिशत थी। अब और बढ़ चुकी होगी।

राजनीतिक दलों की मेहरबानी से कभी अरबों का मुनाफा कमाने वाले हमारे सार्वजनिक बैंक आज फटेहाल हैं। कई बैंकों का एनपीए तो दस फीसदी के निकट है। सत्तारूढ़ दल के नेता सरकारी बैंकों पर दबाव डालकर कॉर्पोरेट और औद्योगिक घरानों को नाजायज ऋ ण दिलवा देते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार आज मात्र दस बड़ी कंपनियों के पास बैंकों का 7.32 लाख करोड़ रुपया फंसा हुआ है। मजे की बात यह है कि सरकार और बैंक पैसा मारने वाले बड़े लोगों और कॉर्पोरेट के नाम बताने को राजी नहीं हैं। जनता के अरबों-खरबों रुपये की लूट की सारी साजिश पर्दे के पीछे चल रही है। दिवालिया बैंकों को बचाने के लिए सरकार अक्सर पैसा देती है। इससे जनता पर दोहरी मार पड़ती है। एक ओर बैंकों में जमा उनका धन डूब जाता है, दूसरी तरफ उनसे बतौर टैक्स वसूली रकम सरकार संकट में फंसे बैंकों को देती है।

भला हो रिजर्व बैंक का जिसके दबाव में अब सरकारी बैंकों की खुरदुरी सूरत दिखने लगी है। गत वर्ष उसने एक आदेश जारी किया था, जिसके अनुसार चालू वित्त वर्ष में सभी बैंकों के लिए दो किश्त में अपने एनपीए और रिस्ट्रक्चर्ड लोन जाहिर करना और मार्च 2017 तक उनकी भरपाई के प्रावधान बताना जरूरी कर दिया गया। अभी अक्टूबर-दिसंबर के परिणाम आए हैं, जिसमें बैड लोन कई गुना कूद गए हैं। जनवरी-मार्च की तिमाही की रिपोर्ट आने के बाद स्थिति और साफ हो जाएगी। आशंका है कि अगली बार कई अन्य बैंकों की पोल खुलेगी। वैसे बैंकों की हालत का पहले से ही पता था, इसीलिए रिपोर्ट जारी होने से पूर्व ही बाजार में सार्वजनिक बैंकों के शेयर गोता खाने लगे थे। सेंसेक्स दिसंबर के बाद आठ फीसदी गिरा है, जबकि इस अवधि में सार्वजनिक बैंकों के शेयर 33 प्रतिशत लुढ़क गए। जिस दिन रिपोर्ट आई, उस दिन देना बैंक का शेयर 12.1 फीसदी, इलाहाबाद बैंक का 3.2 फीसदी, पीएनबी का 6.9 फीसदी व स्टेट बैंक का 2.99 प्रतिशत गिर गया।

फंसे कर्जों में वृद्धि और वसूली में विलंब का मुख्य कारण उद्योगों की बदनीयती और शासन का ढीला रवैया है। जानबूझकर ऋण न लौटाने वालों या फर्जी बिल बनाकर धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ बैंक कड़ा कदम नहीं उठाते। यदि कर्ज न लौटाने वाले चुनिंदा बड़े लोगों को जेल में डाल दिया जाए तो कई कसूरवार खुद-ब-खुद सुधर जाएंगे। कमजोर आर्थिक हालात भी ऋण वसूली के आड़े आ रहे हैं। कई बार प्रोजेक्ट मंजूरी में अनावश्यक विलंब की वजह से कंपनी समय पर ऋण नहीं लौटा पाती हैं। एक कंसल्टेंसी कंपनी के अनुसार वर्ष 2011 और 2015 के बीच भारत में खराब कर्ज के मर्ज में पांच गुना वृद्धि हो गई, जो उसके पड़ोसी देशों की तुलना में भी कहीं अधिक है। ऐसे ऋ ण 2011 में 27 अरब डॉलर (करीब 18 खरब रुपए) थे, जो 2015 में बढ़कर 133 अरब डॉलर (करीब 99 खरब रुपए) हो गए।

बैंकों ने छह सेक्टर की निशानदेही की है, जो कर्ज लौटाने में फिसड्डी हैं। फंसे कर्जों में इस्पात और स्टील, कपड़ा, ऊर्जा, चीनी, अल्युमिनियम और निर्माण सेक्टर की हिस्सेदारी पचास फीसदी से अधिक है। जब तक इनकी हालत नहीं सुधरती, बैंकों के एनपीए में सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती। यदि बैंकरप्सी कानून संसद के आगामी सत्र में पारित हो गया तब बैंकों को व्यापक अधिकार मिल जाएंगे। अभी तो किसी कंपनी को जानबूझकर ऋण न लौटाने का दोषी साबित करने में उन्हें पसीना आ जाता है। बदकिस्मती ही है सरकारें उद्योगों का अंधा पक्षपात करती हैं!

 


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