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न्यूज क्लिपिंग्स् | बैंकों को संभालें तो सुधरेगी इकोनॉमी-- यशवंत सिंन्हा

बैंकों को संभालें तो सुधरेगी इकोनॉमी-- यशवंत सिंन्हा

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published Published on Jan 7, 2016   modified Modified on Jan 7, 2016
भारत में बैंक खासतौर पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हालत अच्छी नहीं है। इसका विस्तृत ब्योरा हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी ताज़ा वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में दिया है। इस रिपोर्ट के कुछ तथ्य हमें आगाह करते हैं। हमें मालूम है कि भारतीय व्यवस्था पिछले कुछ वर्षों से अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रही है। चूंकि बैंक अर्थव्यवस्था में सहायक भूमिका निभाते हैं, इसलिए खराब होती अर्थव्यवस्था के विपरीत प्रभाव बैंकिंग क्षेत्र की सेहत पर पड़ना अपरिहार्य है। मेडिकल जगत से उदाहरण लेकर इसे समझाएं तो कहना होगा कि यदि मानव शरीर किसी संक्रमण से पीड़ित हो तो तेज बुखार को टाला नहीं जा सकता। इसी प्रकार कृषि और खासतौर पर उद्योग जगत जैसे क्षेत्र खराब हालत में हैं, तो बैंकों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ना अपरिहार्य है, क्योंकि उनका ज्यादातर पैसा इन्हींं क्षेत्रों में जाता है। कभी-कभी तेज बुखार को क्रोसिन देकर नीचे लाया जाता है। बैंक भी जब बैलेंस शीट सजाते हैं तो ऐसी ही दवाई का इस्तेमाल कर रहे होते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार खनन, लौह एवं इस्पात, कपड़ा, नागरिक उड्‌डन और आधारभूत ढांचे जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में काम कर रहीं कंपनियां सबसे बड़ी डिफॉल्टर हैं। जहां बैंकों को उनका योगदान 24.2 फीसदी है वहीं, 53 फीसदी संपत्ति उनके यहां अटकी हुई है। सितंबर 2015 तक अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों में नॉन-परफार्मिंग असेट (एनपीए) मार्च 2015 के 4.6 फीसदी की तुलना में 5.1 फीसदी हो गई है। सितंबर 2016 तक तो यह बढ़कर 5.4 फीसदी होने की संभावना है। नवीनीकृत ऋण सहित दबाव का सामना कर रहे ऋण की हिस्सेदारी, कुल ऋण के 11.1 फीसदी से बढ़कर 11.3 हो गई है। सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों के मामले में यह आंकड़ा 14.1 फीसदी है।

इससे भी खतरनाक तथ्य यह है कि 2014-15 के अंत में कर्ज में फंसी कुल 441 कंपनियों में से 67 कंपनियों का ही कर्ज 5.65 लाख करोड़ रुपए है। यह सारे एडवांसेस का 20 फीसदी है, जो बहुत ज्यादा है। ज्यादातर कंपनियां बहुत गहरे वित्तीय संकट में हैं। हमेशा की तरह सबसे ज्यादा दोषी बड़े कर्जदार हैं, जिनकी कुल ऋण में हिस्सेदारी मार्च 2015 के 78.2 फीसदी की तुलना में सितंबर 2015 में 87.4 फीसदी थी। जब मार्च 1998 में मैं वित्त मंत्री बना तो मुझे विरासत में इससे भी खराब स्थिति मिली थी। संसद का शायद ही कोई ऐसा सत्र होता था, जिसमें बैंकों के एनपीए पर चर्चा नहीं होती थी। स्थिति सुधारने के लिए मुझे तत्काल कदम उठाने पड़े थे। बैंकिंग और कुल अर्थव्यवस्था में गर्भनाल जैसा रिश्ता होने के कारण अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारना और इसकी वृद्धि दर ऊंची उठाना सर्वोपरि महत्व का था।

पहला कदम था कर्ज वसूली न्यायाधिकरणों (डीआरटी) को मजबूत बनाने और सारे राज्यों को कवर करने के लिए और अधिक न्यायाधिकरणों की स्थापना करने का था। डीआरटी अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी और मामला काफी समय से लंबित था। हमने पूरी ताकत से सुप्रीम कोर्ट में मामला आगे बढ़ाया और फैसला हमारे पक्ष मेें आया और डीआरटी एक्ट की वैधानिकता को मंजूरी मिली। बैंकों को डिफॉल्टरों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने में सक्षम बनाने के लिए नया कानून बनाने की जरूरत थी। खासतौर पर ऐसे डिफॉल्टर, जो जान-बूझकर ऐसा कर रहे थे। इस तरह स्क्रूटीनाइजेशन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल असेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट एक्ट, 2002 अस्तित्व में आया। इससे बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को कर्ज वसूली के लिए संपत्ति को नीलाम करने का अधिकार मिला।

तीसरा कदम असेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनियों के गठन का था, जो डिस्काउंट पर बैंकों से फंसा हुआ ऋण खरीदकर उन्हें अपनी बैलेंस शीट की सफाई का मौका देती थीं। हम छोटे कर्जदारों खासतौर पर कृषि क्षेत्र के कर्जदारों के लिए सेटलमेंट स्कीम भी लाए। इसके साथ कॉर्पोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग प्लान लाया गया ताकि कंपनियां घटती ब्याज दरों का फायदा उठा सकें। हमने बैंकों पर भी प्रबंधन में सुुधार लाकर सरकारी फंड्स का रास्ता अपनाए बिना पूंजीगत उपलब्धता बढ़ाने के लिए काफी दबाव बनाया। आज हम घूम-फिरकर वहीं आ गए हैं। मुक्ति तो पूरी अर्थव्यवस्था की सेहत में सुधार, अटकी परियोजनाओं को गतिशील बनाने और इस झमेले में फंसे पैसे को निकालने में ही है। कॉर्पोरेट बैलेंस शीट तब सुधरेगी जब असली अर्थव्यवस्था में वास्तविक सुधार होगा। इस बीच, जहां तक मौजूदा एनपीए की बात है, मेरी सिफारिशें ये हैं :

1. यह जताना बंद कर दें कि सबकुछ ठीक चल रहा है और ऋण का बार-बार नवीनीकरण करना बंद कर दें। सबसे पहले आइए, हम तथ्यों को छिपाए बिना पूरी स्थिति का ईमानदारी से आकलन करें।

2. डिफॉल्टरों को तीन श्रेणियों में बांटें ए) वे जिन्हें उनकी कोई भी गलती या थोड़ी गलती के कारण डिफॉल्टर बनने पर मजबूर किया गया। इनमें वे प्रमोटर शामिल हैं, जिनके प्रोजेक्ट सरकार के कारण अटके हैं जैसे जमीन उपलब्ध न होना, पर्यावरण व वन संबंधी मंजूरी न मिलना, आधारभूत ढांचे संबंधी दिक्कतें आदि। बी) वे जिनमें उस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी कौशल या क्षमता नहीं है, जिसके लिए उन्होंने ऋण ले रखा है। सी) जो जान-बूझकर डिफॉल्टर बने हुए हैं।

जहां तक पहली श्रेणी का सवाल है, उन्हें पूरी मदद दी जानी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रोजेक्ट को जल्दी मंजूरी मिलकर वह तेजी से पूरा हो जाए। इससे पहले लिया गया कर्ज अपने आप चुकने लगेगा। दूसरी श्रेणी के डिफॉल्टर से बिज़नेस ले लिया जाना चाहिए और पारदर्शी प्रक्रिया के जरिये किसी दूसरे को सौंप दिया जाना चाहिए। तीसरी श्रेणी के मामलों में बैंकों से कहना चाहिए कि वे जान-बूझकर डिफॉल्टर बनी कंपनियों पर टूट पड़ें। बिना कोई दया दिखाए उनसे निपटना चाहिए।

3. असेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनियों (एआरसी) को मजबूत बनाना चाहिए ताकि बैंक वसूली के लिए बहुत मुश्किल बन चुके एनपीए से मुक्ति पाकर बैलेंस शीट सुधार सकें। एआरसी को जो समस्याएं आ रही हैं, उन पर तत्काल ध्यान देना चाहिए।

4. बैंकों को उनके अप्रैजल नियमों को सुधारने के लिए मजबूर करना चाहिए ताकि वे संदिग्ध व्यवसायों या संदिग्ध आंत्रप्रेन्योर को ऋण न दें। ऐसे संदिग्ध सौदों में बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से दृढ़ता से निपटना होगा। स्थित गंभीर है। यह सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक का कर्तव्य है कि वे स्थिति को और खराब होने से रोकें। इसे अपने आप में कोई संकट बनने से रोकना चाहिए। इस चरण पर इंद्रधनुष कार्यक्रम की समीक्षा उपयोगी होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

यशवंत सिन्हा
पूर्व केंद्रीय वित्त एवं विदेश मंत्री


http://www.bhaskar.com/news/ABH-yashwant-sinha-column-in-dainik-bhaskar-5216105-NOR.html


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