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न्यूज क्लिपिंग्स् | बोलने की आजादी बनाम बड़बोलापन-- रमेश दवे

बोलने की आजादी बनाम बड़बोलापन-- रमेश दवे

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published Published on Jan 17, 2018   modified Modified on Jan 17, 2018

लोकतंत्र सभ्यता, शील और मर्यादा के उत्कर्ष की सत्ता-प्रणाली है। पर कुछ वर्षों में लोकतंत्र के शील का आसन भाषण की अराजकता से गंदा किया गया है। यह सच है कि भारत के सर्वश्रेष्ठ और विश्व के सबसे बड़े संविधान ने अनेक दायित्व, मर्यादाएं, सीमाएं और अभिव्यक्ति की आजादी का नागरिक और नैतिक अधिकार भी दिया है, लेकिन बोलना अगर बड़बोलापन बन जाए, अभिव्यक्ति अगर विकृति बन जाए और संविधान अगर अपमानित लगे, तो फिर लोकतंत्र और राजतंत्र या एकतंत्र के बीच फर्क ही क्या रहेगा?

 

स्वतंत्रता के पश्चात लोकतंत्र की संस्कृति और राजनीति को जनता ने जितनी तेजी और शालीनता से अपना कर उस पर आचरण किया है उतना नेताओं ने नहीं। जनता कभी अश्लील नहीं हुई, नेताओं ने अक्सर अपना शील लांघा है। जनता चुनाव के जरिए अपनी राय अभिव्यक्त कर देती है, मगर नेता अपनी अभिव्यक्ति की उत्तेजना से सदैव जनता को ग्रसित और उत्तेजित करते रहते हैं। सच पूछा जाए तो लोकतंत्र की सबसे बड़ी बौद्धिक शक्ति जनता है न कि नेता, अभिनेता, तथाकथित वाम-दक्षिण के साहित्यकार या कलाकार आदि। यहां तक कि जनता अपनी निरीहता, निर्द्वद्वंता और निडरता से नेता और बौद्धिकों में विचार पैदा करती है, लेकिन जब पढ़े-लिखे बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व के सिपहसालार विचार-भ्रष्ट होते हैं तो जनता भी दलों, शासकों-प्रशासकों या व्यवस्था और असामाजिक उपद्रवियों के भय में जीने लगती है और लोकतंत्र का अहिंसक लोक-शौर्य, लोक-भय में बदल जाता है।


भाषा किसी भी समाज या देश की सभ्यता की पहचान होती है। राजनीति में भाषा बल भी है और छल भी। भाषा-बल का दुरुपयोग भाषा का शील-भंग करता है। राजनीति जब नीति से पृथक होती है, तो सबसे पहले भाषा को ही विकृत करती है। मर्यादाओं का उल्लंघन घृणा उत्पन्न करता है। संविधान केवल सत्ता और जनता के बीच संतुलन का माध्यम नहीं, बल्कि वह स्वतंत्र राष्ट्र की सभ्यता और नैतिकता का राष्ट्रग्रंथ भी है। इस राष्ट्रग्रंथ को दलगत राजनीति ने अपनी बोली से घृणा-गं्रथ में बदलने की कोशिश की है।


भारतीय राजनीति में जातिगत संकीर्णता राष्ट्रीय एकता के मानस को खंडित करती है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत जातियों का एक महा-विभाजित देश है। भले जातियां बनी रहें, मगर मतदाता किसी भी जाति का हो, अगर संविधान या चुनाव आयोग जातिगत आधार पर मतदान नहीं करवाता तो फिर जातिगत राजनीति से वोटों का बंटवारा क्यों? जब चुनाव घोषणापत्रों से लड़े जाते हैं, तो बीच में जातियों के घृणापत्र क्यों पैदा हो जाते हंै? हाल के दिनों में देखने को मिला कि राजनीति पक्ष-प्रतिपक्ष की न होकर, प्रतियोगी न होकर, गाली-गलौज की हो गई। यह भी क्या बात हुई कि लोकतंत्र लोकआस्था का प्रतीक न होकर जातिगत ध्रुवीकरण और समीकरण से लड़ा और जीता-हारा जाए।


इस देश का बुद्धिजीवी बोलता ज्यादा और सोचता कम है। वह भी इतना बंटा हुआ है कि सत्ता की आलोचना ही अपनी ताकत मानता है। अपनी असली ताकत केवल सत्ता पर खर्च करने के बजाय अगर वह जनता को बौद्धिक रूप से ताकतवर बनाने में लगा दे और खुद अपने साहित्यिक और विचारधारागत शील का आचरण करे तो लोकतंत्र का एक चेतनाशील समाज बनेगा। सत्ता लोकतंत्र नहीं होती, जनता लोकतंत्र होती है। सत्ता तो लोकतंत्र के संरक्षण और उसके लोकचरित्र को ऊंचा उठाने के लिए होती है। पर वे केवल शक्ति के व्यवस्था-तंत्र की प्रतीक बन कर रह जाती हैं। लोकतंत्र बोलियों या गोलियों की व्यवस्था नहीं है। वह दायित्वों से भागने के लिए शक्ति के दुरुपयोग की भी व्यवस्था नहीं है। वह तो जनता की सक्रिय और सहयोगी भागीदारी की व्यवस्था है। उत्तेजनाओं के मंच से बोलना और देशभक्ति के कृत्रिम नाटक की पताका लहराना केवल उत्तेजना और हिंसा तो पैदा कर सकता है, शांति, शील और मर्यादा नहीं।

 

मंच कोई भी हो, राजनीतिक सभाओं या मीडिया का, भाषा का संयम जरूरी है। मुट्ठियां तान कर एंकरों द्वारा उत्तेजना पैदा करती बहसें, बलात्कार, हत्याएं, अपराध, घोटाले और जाति-धर्मगत हिंसाएं ही हमारी मीडिया-सभ्यता की सुर्खियां हैं, तो फिर लोकतंत्र की संस्कृति, सभ्यता, न्याय, संवैधानिक समानता आदि के प्रति मीडिया और बौद्धिक विमर्श की रक्षा कौन करेगा? मीडिया लोकतंत्र की लोक-पाठशाला या लोक-विश्वविद्यालय होता है। इसलिए मीडिया केवल जोश की भाषा में बोलने का उदाहरण न बने, बल्कि संतुलन और जन-शिक्षा का भी माध्यम बने। हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता है कि तमाम राजनीतिक और प्रशासनिक अराजकताओं के बावजूद जनता, सेना और नेताओं ने उसके प्रति अपनी निष्ठा खोई नहीं है। सत्ता अनुशासन का शक्तितंत्र तीन तत्त्वों से रचती है- प्रशासन, पुलिस और सेना। ये तीनों तंत्र अभी जनता के प्रति राजतंत्र की व्यवस्था की तरह उतने निरंकुश तो नहीं हुए, मगर प्रशासन और पुलिस में अभी संवेदना और लोक-व्यवहार के शील की कमी है। ऐसा कोई सरकारी कर्मचारी, पुलिस का सिपाही, सर्वोच्च अधिकारी नहीं है, जो किसी ग्रामीण के आने पर उसे सम्मान से बिठा कर उसकी बात सुनता हो, उससे मुलजिम की तरह व्यवहार करते हुए ‘तू-तकाड़' की भाषा का उपयोग न करता हो। कितनी बड़ी विडंबना है कि इस देश का किसान, गरीब और ग्रामीण मजदूर प्रशासन और पुलिस की सर्वाधिक अपमानजनक भाषा का शिकार होता है। इसलिए आवश्यक है कि राजनेता पहले अपने बोलने की भाषा संसद से सड़क तक बदलें ताकि वे शील का मॉडल बन कर प्रशासन, पुलिस या सरकारी-गैरसरकारी तंत्र को भी लोकतंत्र के शिष्टाचार की बोली सिखा सकें।

 

कई विचारकों का मत है कि अगर किसी देश की सभ्यता का स्तर देखना हो तो वहां के स्कूल और अस्पताल देखिए। अगर सार्वजनिक व्यवस्था एक गरीब लोकतंत्र में पूंजीपतियों, उद्योगपतियों और माफियाओं के हवाले हो गई, तो फिर लोकतंत्र जनता की आकांक्षाओं का लोकतंत्र कैसे कहलाएगा। बोलने से जनता तत्काल तो प्रभावित होती है मगर दीर्घकाल के लिए यह जनता को गूंगा बनाने का तरीका है। इसलिए क्या हम ऐसी संस्कृति का विकास नहीं कर सकते, जिसमें जनता बोले और सत्ता सुने?भारत भाषाओं और बोलियों का देश है। लगभग आठ सौ भाषाओं में यहां बोलचाल है। ऐसे भाषा-संपन्न देश में राजनीति, धर्म, न्याय, प्रशासन, पुलिस और उद्योगों की भाषा अपने-अपने आचरण से इस प्रकार अभिव्यक्त होनी चाहिए कि जिससे जनता संस्कार ग्रहण करे। किसी भी देश का संविधान या चुनाव-संहिता अपशब्दों का जखीरा नहीं होता। वह नागरिक-जीवन की सभ्यता, अधिकार और कर्तव्य का शास्त्र होता है। जन हमेशा अपने लिए सुविधा चाहता है, हम उसे दुविधा में डाल देते हैं। जनता सभा-सुख चाहती है, हम दुख पैदा कर देते हैं। हम चीन से होड़ करें या अमेरिका-यूरोप से, सच पूछ जाए तो हमें अपनी जनता की आकांक्षाओं से ही होड़ करनी चाहिए।

 

हमने आजादी के बाद कम उपलब्धियां हासिल नहीं की हैं, मगर अब भी हमारी राजनीति और नेतृत्व करने वालों को जनता का भयमुक्त विश्वास जीतना बाकी है। हम अपने को किसी जाति या धर्म का कहने के पहले भारत का नागरिक मानें, भारत की इज्जत करें, भारत को हर प्रकार से ऊंचा उठाने के प्रयासों में शिरकत करें। हम आपस में क्यों लड़ें? लड़ना ही है तो गरीबी से लड़ें, बेरोजगारी के खिलाफ लड़ें। नफरतों के खिलाफ खड़े हों। बोली देश की आवाज होती है। यह हमारी आजादी की सबसे बड़ी विरासत है। इस बड़बोलेपन से या विकृत करके हम अपने देश की संस्कृति और सभ्यता को अपमानित न करें।


https://www.jansatta.com/sunday-column/jansatta-article-for-freedom-of-speech/547683/


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