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न्यूज क्लिपिंग्स् | बढ़ते संसाधन घटता ज्ञान - शंकर शरण

बढ़ते संसाधन घटता ज्ञान - शंकर शरण

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published Published on Nov 11, 2014   modified Modified on Nov 11, 2014
जनसत्ता 11 नवंबर, 2014: एक समय था जब देश के जिला केंद्र ही नहीं, अनेक कस्बों में भी भाषा, गणित और विज्ञान के ऐसे शिक्षक होते थे जिनकी स्थानीय ख्याति हुआ करती थी। यह दो पीढ़ी पहले तक की बात है। तब विद्यालयों के पास संसाधन कम थे और शिक्षकों का वेतन भी बहुत कम था। स्कूल के कमरे, मामूली कुर्सी, बेंच, पुस्तक, छात्र और शिक्षक, यही तत्त्व शिक्षा-परिदृश्य बनाते थे। तब उचित ही मांग उठती थी कि शिक्षकों का वेतन बढ़े, स्कूलों में सुविधाएं बढ़ें, आदि।

आज उन्हीं कस्बों, नगरों में शिक्षा-परिदृश्य लगभग उलट गया है। जिन स्कूलों को निचली गिनती में माना जाता था, आज उन्हें भी सालाना लाखों रुपए अन्य खर्च के लिए मिलते हैं। शिक्षकों का वेतन भी पर्याप्त बढ़ गया। इतना कि कई जगह धंधेबाज शिक्षक अपनी जगह पर स्कूल में पढ़ाने के लिए किसी और की ‘व्यवस्था' कर देते हैं, और स्वयं किसी अधिक लाभकारी उद्योग में लगे रहते हैं। स्कूलों में कई तरह के गजट, बोर्ड, कंप्यूटर आदि के अलावा साल भर किसी न किसी तरह का निर्माण, मरम्मत, रोगन और ऐसे कार्यक्रम होते रहते हैं, जिनमें काफी पैसा खर्च होता है। फिर भी हर सरकारी स्कूल के बैंक-खाते में कुछ न कुछ इजाफा होता ही जाता है।

इस नियमित धन-वृद्धि का एक परिणाम यह भी हुआ है कि कई स्कूलों में अजीब और भद्दे निर्माण भी नियमित होते नजर आते हैं। ध्यान से देखने पर यह भी पता चल जाएगा कि वह कमरा या संरचना बनवाना कोई जरूरी या उपयोगी नहीं था। उसे बस बनवाने के लिए बनवा डाला गया। निर्माण की गुणवत्ता और उस पर हुए खर्च की परख से पहली दृष्टि में ही भ्रष्टाचार की गंध मिलेगी। यह कहानी सरकारी विद्यालयों की ही नहीं, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की भी है।

जहां-तहां किसी कॉलेज, संस्थान, विश्वविद्यालय आदि में आप किसी बनी-बनाई सीढ़ी, सड़क, मैदान आदि को पुन: बनते, अच्छी-खासी चहारदीवारी को तोड़ कर पुन: या उसके अंदर एक और घेरा, रेलिंग आदि बनते देख सकते हैं। इसी तरह, किसी हॉल या खुले हिस्से में पुराने और बेकार करार दिए गए फर्नीचरों का अंबार दिखेगा। ध्यान से देखें तो उनमें अनेक फर्नीचर न तो पुराने, न ही बेकार मिलेंगे। किसी में एक मामूली स्क्रू से खुल जाने से कोई हिस्सा ढीला हो गया, किसी का कवर थोड़ा उघड़ गया है। इसी तरह, पुरानी अलमारियां, कूलर, एअरकंडीशनर, प्रिंटर आदि को अकारण कब्रगाह में पहुंचा दिया जाता है।

आखिर क्यों? उत्तर कई लोग स्वत: जानते हैं। नई खरीद होनी है, होती है, इसलिए किसी न किसी बहाने पुराने को असमय बाहर कर दिया जाता है। मूल कारण यह है कि खरीद, मरम्मत, निर्माण आदि मदों पर सालाना अनुदान तब भी आता रहता है, जब उसकी वास्तविक जरूरत नहीं होती। ऐसा भी क्यों होता है? वह इसलिए कि बजट पास होते समय हरेक मंत्रालय को यह मानो अपनी प्रतिष्ठा का मामला प्रतीत होता है कि उसका बजट कुछ न कुछ बढ़ना चाहिए। केंद्र और राज्य सरकार के बजट की मात्रा के अनुरूप यह बढ़ी रकम सैकड़ों या बीसियों करोड़ की होती है। फिर यह रकम अपने विभिन्न विभागों, संस्थानों आदि को आबंटित की जाती है।

इसमें वास्तविक जरूरतों का हिसाब शायद ही किसी के पास है। इस प्रकार, बहुतेरी संस्थाओं में, जिनमें केंद्र सरकार की संस्थाएं अधिक स्पष्टता से दिखाई देती हैं, अकारण निर्माण, मरम्मत, नवीकरण, खरीद आदि होती रहती है। स्वाभाविक है, इसमें बिचौलियों, एजेंटों की नियमित रुचि भी हो जाती है कि यह सब हमेशा चलता रहे। वे विद्यालय या संस्थान के प्रमुख या दूसरे अधिकारियों को यह या वह नई चीज लेने, पुरानी बदलने के प्रस्ताव देते रहते हैं। फिर जो होता रहता है वह अब हमारे शिक्षा संस्थानों का एक महत्त्वपूर्ण और नियमित अंग हो गया है।

दशकों से इसी बीच जिस चीज का धीरे-धीरे लोप होता गया, वह है अच्छे शिक्षक और विद्वान। पहले जहां हर पुराने प्रतिष्ठित कॉलेज में दो-चार नामी प्रोफेसर, प्राध्यापक होते ही थे, वहां आज पूरे के पूरे विश्वविद्यालय में एक भी बड़ा नाम खोज पाना दुश्वार हो गया है। यह तब, जबकि कॉलेजों, विश्वविद्यालयों की संख्या में भरपूर वृद्धि हुई। किसी विषय में उस विश्वविद्यालय, बल्कि पूरे प्रांत में सबसे ज्ञानी प्रोफेसर कौन है, इस प्रश्न का उत्तर प्राय: एक संभ्रमित मौन से मिलता है। स्कूलों के प्रसंग में भी यह यथावत सच है। कुछ अच्छे शिक्षक कोचिंग केंद्रों में जरूर नजर आते हैं, जहां विभिन्न परीक्षाओं, किसी तकनीकी कोर्स में प्रवेश की परीक्षा की खातिर तैयारी करने के लिए छात्रों की भीड़ उमड़ी रहती है। लेकिन सामान्य सरकारी स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में अब ख्याति-प्राप्त शिक्षकों, ज्ञानियों का नाम ढूंढ़ पाना कठिन हो गया है।

इस प्रकार, दो पीढ़ी में शिक्षा का पेंडुलम दूसरे सिरे पर पहुंच गया है। हालांकि कई इलाकों में आज भी स्कूलों का अभाव है, लेकिन पुराने जमे इलाकों में पहले धन भले कम था, मगर अच्छे, ज्ञानी शिक्षक उनकी कुल संख्या में अनुपात की दृष्टि से अधिक थे। आज वहां धन बेतहाशा हो गया है, मगर सच्चे शिक्षकों और विद्वानों का अकाल-सा पड़ गया है। कहने का अर्थ यह नहीं कि शिक्षकों का वेतन कम रहता तो अच्छा था, या कि शिक्षा-मद में कटौती कर दी जाए, बल्कि यह कि अब धन की कमी के बदले ज्ञानियों, शिक्षकों की कमी अधिक बड़ी समस्या बन चुकी है। इसका संज्ञान लिया जाना चाहिए।
यानी ‘शिक्षा में बजट कम है' की पुरानी रट दोहराने से पहले जरा सोच लेना चाहिए कि हम क्या, किसलिए कह रहे हैं। देश में पैसा बहुत बढ़ा है, और बढ़ता जा रहा है। निजी स्कूल, उनमें भी महंगे स्कूल कस्बों-गांवों तक पहुंच गए हैं। निजी विश्वविद्यालय, इंस्टीच्यूट आदि भी कई-कई गुना बढ़े हैं। इन सबकी संख्या दो पीढ़ी में जितनी बढ़ी और उनमें जितने कुल छात्र पढ़ते हैं, इसकी तुलना पिछली स्थिति से करके हिसाब करें, तब पता चलेगा कि देश में सरकारी और निजी क्षेत्र को मिला कर शिक्षा पर खर्च गुणात्मक रूप से बढ़ चुका है। इस बीच जो चीज उपेक्षित हुई, वह है शिक्षक और शिक्षा की गुणवत्ता।

हमारी सर्वाधिक और सर्वोपरि चिंता का विषय अच्छे शिक्षकों, विद्वानों की कमी होना चाहिए। नौकरी के नाम पर भर्ती हजारों, लाखों प्राध्यापक, शिक्षक वास्तव में कितने उपयुक्त हैं, इस पर कभी विचार नहीं किया जाता। बजट, साधन, पुस्तकों, आधुनिक उपकरणों आदि की चिंता एक रूढ़ि में बदल गई है। इसमें असली तत्त्व- शिक्षक और विद्वान- पूरी तरह किनारे हो गया है। मानो कागजी प्रमाणपत्र देख और रस्मी इंटरव्यू से नियुक्त किए गए सभी लोग वास्तविक शिक्षक और प्रोफेसर हैं! ऐसा बिल्कुल नहीं है।

किसी क्षेत्र में स्थित कॉलेजों, विश्वविद्यालयों का सर्वेक्षण कर यह सरलता से दिख सकता है। विशेषकर दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य आदि विषयों में हमारे प्रोफेसरों द्वारा किसी नए शोध, मौलिक पुस्तकों का वर्षों क्या, दशकों से नाम नहीं सुना गया। कुछ बड़े प्रोफेसरों के नाम आते भी हैं, तो दूसरे कारणों से। प्राय: उनकी राजनीतिक, एक्टिविस्ट या मीडिया गतिविधियों से। यही कारण है कि विश्व-पटल तो छोड़ें, देश-स्तर पर भी इन विषयों में दो-चार बड़े विद्वानों के नाम लेना कठिन हो गया है।

हालांकि इसमें यह बात भी है कि देश के विभिन्न कोनों में सच्चे विद्वान और शिक्षक भी होंगे, हैं, मगर उन्हें कोई नहीं जानता। यह भी वस्तुत: उसी उपेक्षा का एक पहलू है कि हम सच्चे विद्वानों, शिक्षकों को उनका उचित स्थान नहीं दे रहे हैं।

उनका वास्तविक उपयोग नहीं हो रहा है, जबकि लॉबिंग करने या विविध सक्रियता (एक्टिविज्म) वाले बड़ी-बड़ी अकादमिक कुर्सियों पर विराजमान हो जाते हैं। यही लोग, फिर उस गुणवत्ता को और गिराते हैं। अपनी तरह ही चेलों और एक्टिविस्टों, राजनीतिक प्रचारकों को वैसे ही निचले पदों पर नियुक्त करते चलते हैं।

इस तरह देश में शिक्षा, उच्च शिक्षा, शोध, प्रकाशन, संस्थान आदि पर खर्च तो बेतरह बढ़ गया है, पर वास्तविक शिक्षकों, विद्वानों, अन्वेषियों, ज्ञानियों का कुछ पता नहीं चलता, कि हमारे देश में वे कितने हैं, कहां हैं, क्या कर रहे हैं, उन्हें क्या उत्तरदायित्व मिला है, या कि नहीं मिला है? कुल प्रोफेसरों, शिक्षकों की औपचारिक संख्या में विशाल वृद्धि से इस समस्या को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। समाज और सरकार को खुली दृष्टि से इस छिपी, पर विकट समस्या का सामना करना चाहिए।

विश्वविद्यालयों का तो मुख्य अर्थ ही होता है विद्वानों का स्थान। वे ही उसके सबसे आकर्षक तत्त्व होते रहे हैं, होते हैं; न कि अच्छे-अच्छे भवन, हॉस्टल, खेल के मैदान और छात्रवृत्तियों की आकर्षक राशि। पिछले दशकों में इस पहलू पर इतना जोर दिया गया और दूसरे की इतनी उपेक्षा की गई, कि विश्वविद्यालय का अर्थ ही विकृत हो गया है। वे या तो पोलिटेक्निक, राजनीतिक अड््डेबाजी या बेरोजगार युवाओं के लिए नौकरी-तैयारी की धर्मशालाओं में, या इन सबके मिले-जुले विरूप में बदल गए हैं। इस बीच, उनकी देखरेख करने वाले मानो सुसुप्तावस्था में और नए-नए विश्वविद्यालय खोले जा रहे हैं। पैसे उड़ेले जा रहे हैं। भवन-निर्माण मुख्य शैक्षिक कार्य हो गया है। पेंडुलम दूसरी दिशा में जाकर अटक गया है। मुख्य कार्य पैसा खर्च करना हो गया है।

इसलिए अनेक प्रांतों में बोली लगा कर उपकुलपति पद खरीदे-बेचे जाने लगे, वारे-न्यारे में हिस्सेदारी की प्रतियोगिता। बार-बार पदासीन को हटा कर दूसरों की नियुक्ति। मुकदमेबाजी। गाली-गलौज, झगड़े। यह सब क्यों होता है, उस क्षेत्र के लोग और नेता आदि जानते हैं। यह सब ‘शिक्षा में बजट की कमी' नहीं, किसी अन्य गर्हित समस्या का लक्षण है। अगर यह सभी राज्यों में न भी हुआ हो, तब भी इससे स्थिति और दिशा का संकेत तो मिलता ही है। शैक्षिक पदों पर इतर आधारों पर नियुक्तियां एक गंभीर स्थिति है, जिसकी भयावहता पहचानी जानी चाहिए।

अत: यह भंगिमा ठीक नहीं कि हमारी शिक्षा में मूलत: सारी संरचनाएं ठीक हैं। इस सत्य को पुनर्प्रतिष्ठित होना चाहिए कि शिक्षा के केंद्र में शिक्षक है। योग्य, निष्ठावान शिक्षक। दूसरी चीजों का स्थान इसके बाद ही है। इसमें आई घोर विकृति को पहचानना और उसे सुधारने के उपाय सोचना हमारा सबसे फौरी राष्ट्रीय कर्तव्य है।


http://www.jansatta.com/politics/editorial-growing-knowledge-resource-curves/


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