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न्यूज क्लिपिंग्स् | भगवान भरोसे विज्ञानी बाबू - ।।रजनीश उपाध्याय।।

भगवान भरोसे विज्ञानी बाबू - ।।रजनीश उपाध्याय।।

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published Published on Apr 2, 2013   modified Modified on Apr 2, 2013
दुनिया के दो महान व्यक्तित्व. दोनों तेज दिमाग के. अति प्रतिभावान. ग्रेट साइंटिस्ट. लगभग समकालीन भी. एक ने भारत के छोटे से गांव में जन्म लिया. नाम - वशिष्ठ नारायण सिंह. अभावों के बीच अपनी मेधा के बल पर राह बनायी और यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया तक पहुंचे.

दूसरे ने भी अपनी मेधा का लोहा मनवाया और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में शोध किया. नाम - स्टीफन विलियम हॉकिंग. दोनों गणित में पारंगत. वशिष्ठ नारायण सिंह अमेरिका में नासा की नौकरी छोड़ कर वापस भारत आये. आइआइटी (कानपुर), टीआइएफआर (मुंबई) और आइएसआइ (कोलकाता) में लेक्चरर रहे. सिजोफ्रेनिया से पीड़ित हुए और इन दिनों अपने पैतृक गांव बसंतपुर (भोजपुर) में विज्ञान व तकनीक की दुनिया से अलग-थलग हैं.

हॉकिंग मोटर न्यूरॉन डिजीज से पीड़ित हैं. शरीर का 90 फीसदी हिस्सा विकलांग है. व्हील चेयर पर चलते हैं. बोल नहीं सकते, पर कंप्यूटर स्क्रीन पर उनके विचार उभरते हैं. वह अब भी शोध में लगे हैं. यह दो अलग-अलग व्यवस्था और सामाजिक चेतना से जुड़ा मसला है. स्टीफन की तुलना डॉ वशिष्ठ से करना पहली नजर में किसी को अतिशयोक्ति लग सकता है. लेकिन, इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है.

हॉकिंग पर ब्रिटिश सरकार लाखों रुपये खर्च करती है. भारत के स्टीफन (वशिष्ठ नारायण सिंह) अपनी मेधा के बल पर ऊंचाई तक पहुंचे. यदि उन्हें मेडिकल सुविधाएं मिली होतीं, तो क्या पता वे भी आइंस्टीन की ऊंचाई को छुये होते. लेकिन, एक प्रतिभा को उसके हाल पर परिवार के भरोसे छोड़ दिया गया. वशिष्ठ बाबू का जीवन संघर्ष बताता है कि ढोंगी बाबाओं के पीछे भागने वाले हमारे देश-समाज में प्रतिभाएं क्यों नहीं उभरतीं और यह भी कि प्रतिभाओं को हम सहेज कर नहीं रखते. डॉ वशिष्ठ अमेरिका, इंगलैंड या जापान में पैदा होते, तो क्या वे इसी हाल में रहते या फिर वे भी हॉकिंग की तरह देश-समाज की परिसंपत्ति होते.

दो अप्रैल, 1946 को जन्मे वशिष्ठ नारायण सिंह आज 67 साल के हो गये. तीक्ष्ण बुद्धि के बल पर वह अमेरिका पहुंचे. गणित में शोध किया. नासा की नौकरी छोड़ कर वापस भारत आये. अलग-अलग संस्थानों में नौकरी की. सिजोफ्रेनिया से पीड़ित डॉ वशिष्ठ इन दिनों आरा से 12 किमी दूर अपने गांव (बसंतपुर) में रहते हैं. इस दौर में भी वह सादे कागज या ब्लैक बोर्ड पर गणित के सूत्र लिखते रहते हैं, गोया कोई गुत्थी सुलझा रहे हों. वह इसके प्रतीक हैं कि अपने देश में प्रतिभाओं को सहेज कर रखने और उसे संसाधन के बतौर देखने की चेतना नहीं है. उनके जन्म दिन के मौके पर प्रभात खबर ने यह खास रिपोर्ट तैयार की है.

उनके गांव बसंतपुर जाकर उनकी मौजूदा जिंदगी की हकीकत जुटायी गयी. बगैर किसी बाहरी मदद के उनका परिवार उनके साथ किस तरह खड़ा है, यह भी नजदीक से देखा गया. उनके गांव का स्कूल किस हाल में है, इसकी जमीनी हकीकत को भी समझने की कोशिश की गयी. यह सब करने का मकसद है, वशिष्ठ बाबू के बहाने समाज की तल्ख सच्चई को सामने लाना. आप इसे जरूर पढ़ें, ताकि हमारे समाज में भी प्रतिभाओं को सहेजने की थोड़ी चेतना विकसित हो. वशिष्ठ बाबू के जन्मदिन पर रजनीश उपाध्याय ने उनके गांव जाकर यह रिपोर्ट तैयार की.

हमारे डॉ वशिष्ठ और उनके प्रो हॉकिंग

दलान से सटे कमरे में बैठे अपरिचित चेहरों की ओर एक नजर देखने के बाद वशिष्ठ बाबू ने अपने भतीजे मिथिलेश से पूछा, ‘अखबार आइल ह बबुआ?\' अखबार उनके सामने रख दिया गया. वशिष्ठ बाबू ने अपनी जेब से कलम निकाली और अखबार के पन्नों पर खाली बची थोड़ी-थोड़ी जगह पर लिखने लगे. अखबार के हर पóो पर बारी-बारी से गणित के सूत्र उभर रहे हैं.

कुछ चिह्न्, साइन, थिटा, पाइ..और कुछ अंक. रोमन लिपि में अंगरेजी के कुछ अस्पष्ट शब्द भी. गोया गणित का कोई गूढ़ सूत्र उलझ गया हो, जिसे गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह सुलझा रहे हों. साथ गये एक सहकर्मी पत्रकार ने पूछा-का लिखतानी? सिर नीचे झुकाये अपने काम में मगन वशिष्ठ बाबू ने जवाब दिया-‘पेपर पब्लिश कर तानी.\' इस जवाब ने कमरे में सन्नाटे की परत फैला दी. इस सन्नाटे के बीच अतीत की धुंधली तसवीर भी उभरी.

करीब साढ़े तीन दशक पहले भी वशिष्ठ नारायण सिंह की गणित की एक महान खोज पब्लिश (प्रकाशित) हुई थी. साइकल विक्टर पर. पैसिफिक जर्नल ऑफ मैथेमेटिक्स में प्रकाशित इस शोध ने उन्हें विश्व के महान गणितज्ञों की श्रेणी में ला खड़ा किया था. तब दुनिया को भोजपुर के बसंतपुर गांव से निकली प्रतिभा का पता चला था. गांव के माध्यमिक विद्यालय से यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया और फिर नासा, आइआइटी (कानपुर), टीआइएफआर (मुंबई) और इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीटय़ूट (कोलकाता) तक की यात्र यों ही नहीं हुई. छोटे-से घर में रह कर लालटेन की रोशनी में पढ़ाई. पिछड़े गांव में कोई साधन नहीं. किताब खरीदने के लिए मीलों पैदल या साइकिल से जाना. यह सब उनसे ज्यादा उनके परिवार ने सहा. उनके फिर से ठीक हो जाने की उम्मीद लिये परिवार आज भी उनके साथ खड़ा है.

इस प्रतिभा का इलहाम नेतरहाट स्कूल में हुआ. 1961 में मैट्रिक की परीक्षा में वह पूरे राज्य में टॉप आये. 1962 में सायंस कॉलेज (पटना) में एडमिशन हुआ. तब पी नागेंद्र यहां के प्राचार्य हुआ करते थे. वह वशिष्ठ नारायण सिंह की मेधा से दंग थे. उसी दौरान सायंस कॉलेज में वर्ल्ड मैथ कॉन्फ्रेंस हुई. इसमें भाग लेने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के गणितज्ञ डॉ जॉन एल केली आये थे. प्राचार्य पी नागेंद्र ने वशिष्ठ नारायण सिंह का उनसे परिचय कराया. बताया कि इस प्रतिभा को एक मुकाम चाहिए. डॉ केली ने उन्हें गणित के कुछ गूढ़ सवाल हल करने को दिये. उन्होंने कई विधियों से मिनटों में उन्हें हल कर दिया. डॉ केली उन्हें तुरंत अपने साथ ले जाना चाहते थे, लेकिन समस्या यह थी कि वशिष्ठ नारायण सिंह अभी पोस्ट ग्रेजुएट नहीं थे. पटना विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार विशेष परीक्षा हुई. 20 साल की उम्र में पीजी करनेवाले वह पहले भारतीय बने. 1963 में वह अमेरिका चले गये. उन्हें डॉ केली का सान्निध्य प्राप्त हुआ.

लेकिन, क्या वशिष्ठ बाबू अब भी डॉ केली को याद करते हैं. बात आगे बढ़ाने की गरज से मैंने यों ही उनसे सवाल उछाला-‘केली के याद आवेला?\' सूत्र सुलझाने में तल्लीन वशिष्ठ बाबू थोड़ा चौंके. चेहरा ऊपर उठाया और मुस्कुराते हुए बोले, ‘हं. केली तो हमरा साथे रहलन. बात होला उनका से.\' केली के साथ रिश्तों की प्रगाढ़ता ही है कि इस दौर में भी वह वशिष्ठ नारायण सिंह को याद हैं, जबकि केली इस दुनिया में नहीं हैं और वशिष्ठ बाबू ने सांसारिक जीवन से खुद को अलग-थलग कर अपने लिए एक छोटी-सी दुनिया गढ़ ली है.

डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह

जन्म : दो अप्रैल, 1946. भोजपुर जिले के बसंतपुर गांव में
पिता : लाल बहादुर सिंह,
(सिपाही)
पढ़ाई : प्रारंभिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल में. फिर नेतरहाट में गये. मैट्रिक परीक्षा में स्टेट टॉपर. साइंस कॉलेज से उच्च शिक्षा. पीजी के लिए विशेष परीक्षा का आयोजन
कैरियर : 1969 में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया से पीएचडी. नासा में साइंटिस्ट बने. फिर आइआइटी, कानपुर और टीआइएफआर में अध्यापन. आइएसआइ ज्वाइन किया.
बीमारी : 1977 में सिजोफ्रेनिया का पहला अटैक. मानसिक बीमारी शुरू हुई. रांची, बेंगलुरू में इलाज. चार साल तक गायब रहे. सारण के डोरीगंज में सड़क पर भटकते मिले. दिल्ली में भी इलाज.
वर्तमान स्थिति : भोजपुर जिले के बसंतपुर में परिवार के साथ रहते हैं. सिजोफ्रेनिया से पीड़ित.

 

स्टीफन हॉकिंग

जन्म : आठ जनवरी, 1942. ऑक्सफोर्ड (इंगलैंड) में.
पिता : फ्रैंक हॉकिंग (डॉक्टर)
पढ़ाई : सेंट एलबेंस स्कूल में. फिर ऑक्सफोर्ड के यूनिवर्सिटी कॉलेज में उच्च शिक्षा. पढ़ाई में अव्वल, कॉस्मोलॉजी विषय को चुना.
कैरियर : 20 वर्ष की उम्र में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में कॉस्मोलॉजी में पीएचडी, कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी. भौतिक विज्ञानी. कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में एप्लाइड मैथ के प्रोफेसर रहे.
प्रसिद्ध पुस्तकें : ए ब्रीफ हिस्टरी ऑफ टाइम, द ग्रैंड डिजाइन

वर्तमान स्थिति : इंगलैंड में रहते हैं. व्हील चेयर सहारा है. मोटर न्यूरॉन से पीड़ित. शरीर का 90 फीसदी से ज्यादा हिस्सा विकलांग. गाल की मांसपेशियां उनके बोले गये शब्द को यंत्र के सहारे कंप्यूटर स्क्रीन तक पहुंचाती हैं.


http://www.prabhatkhabar.com/node/279968?page=show


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