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न्यूज क्लिपिंग्स् | भारत और इंडिया का फर्क- सुनील खिलनानी

भारत और इंडिया का फर्क- सुनील खिलनानी

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published Published on Oct 28, 2011   modified Modified on Oct 28, 2011
हमारा यह कहना सही है कि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान और वैश्विक कारोबार में अपनी ऐतिहासिक हिस्सेदारी को फिर से प्राप्त कर रहा है। लेकिन इसके साथ-साथ कुछ अन्य अहम तथ्यों पर गौर करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, गरीबी खत्म करने, जनकल्याण के लिए कुछ मूलभूत सुविधाएं जुटाने और नए खतरों को कम करने की क्षमता अब हमारे भीतर है। यह क्षमता होने के बावजूद हमने इस दिशा में समुचित काम नहीं किया है, जबकि फिलहाल इसकी सख्त जरूरत है। गरीबों के कल्याण के लिए काम करना सिर्फ नैतिकता ही नहीं, बल्कि हमारा दायित्व भी है। भारत एक गरीब देश से प्रभावशाली वैश्विक ताकत के रूप में तबदील हो रहा है और इस विस्मयकारी संक्रमण के दौरान देश को एकजुट रखने की जरूरत है।

भीमराव अंबेडकर ने चेतावनी भरे लहजे में संविधान सभा से कहा था कि अगर सामाजिक नागरिकता की भावना को स्थापित करने की कोशिश नहीं की गई, तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र नष्ट हो जाएगा। उनकी इस बात पर गौर करने की जरूरत है। पंडित नेहरू की तरह उन्होंने भी एक ऐसे सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना की जरूरत महसूस की थी, जो सभी भारतीयों को विश्वास दिला सके कि वे विकास के एक ऐसे मॉडल से जुड़े हैं, जिसका लाभ सभी को मिलेगा।

आज तकरीबन साठ साल बाद भारत केअसमान विकास के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। अग्रणी और पिछड़े राज्यों, तेजी से विकास कर रहे बड़े महानगरों और छोटे शहरों व सुदूर ग्रामीण इलाकों कीविकास दर में व्यापक असमानता की स्पष्ट तसवीर सामने है। इसी का नतीजा है कि बड़े शहरों की तरफ जबरदस्त पलायन बढ़ा है और वहां भी कम लोगों को अवसर प्राप्त हो रहे हैं। इससे सामाजिक गैर-बराबरी को बढ़ावा मिल रहा है। एक ओर तो देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ने के नाम पर विकास की डींगें हांकी जा रही हैं, दूसरी ओर, करोड़ों देशवासियों की रोजमर्रा की जिंदगी गरीबी केगर्त में समाती जा रही है। एक राष्ट्र के रूप में हमें इस स्थिति से निपटने के लिए जिम्मेदारी उठाने की जरूरत है। इन समस्याओं के लिए अब हम पुरानी नीतियों के विफल हो जाने या वैश्विक कारणों को कतई जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते।

आर्थिक विकास केजिस रास्ते पर हम चल रहे हैं, अगर उसके समग्र प्रभाव को देखें, तो यह निश्चित रूप से परेशान करने वाला है। हमारे देश में युवाओं की तादाद लगातार बढ़ रही है। अगले पांच वर्षों के भीतर देश में काम करने वाले छह करोड़ युवा और तैयार होने जा रहे हैं। मौजूदा स्थितियों केलिहाज से देखें, तो इनमें से ज्यादातर अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में ही काम पा सकेंगे। इस तरह बाजार राष्ट्रवाद में भारत के युवाओं का भरोसा अस्थायी ही होगा, यह बरकरार रहने वाला भरोसा नहीं है। बेहद तेजी से युवा हो रहे राष्ट्र के बारे में सकारात्मक विचार बनाने वाले कारण हमारे पास बेहद कम हैं।

भारत की एकता को खतरे में डालने वाले कारकों से निपटने के लिए किस तरह केसामाजिक लोकतंत्र की जरूरत है, इस पर विचार करते समय हमें इस बात को लेकर जागरूक रहना चाहिए कि पश्चिमी देशों में और कुछ अन्य स्थानों पर किस तरह के प्रयास पहले किए जा चुके हैं। इसके साथ-साथ हमें यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि भारत जैसे बड़े, विविधतापूर्ण और एक अनौपचारिक अर्थव्यवस्था वाले देश में पश्चिमी देशों में अपनाए गए मॉडल वस्तुतः सीमित स्तर तक ही प्रभावी हो सकते हैं।

जब हम राष्ट्र के अंदर दो देशों ‘भारत’ और ‘इंडिया’ की बात करते हैं, तो वास्तव में हम एक पुरानी बहस को छेड़ रहे होते हैं। हम जानते हैं कि बंटे हुए समाज को दोबारा जोड़ने के लिए यूरोप में आक्रामक राष्ट्रवाद का सहारा लिया गया। इसके लिए लोगों से बाहरी ताकतों और कई बार आतंरिक ताकतों के खिलाफ भी एकजुट होने की अपील की गई। हमारे कुछ नेता और राजनीतिक पार्टियां भी हमें ऐसा ही तरीका अख्तियार करने के लिए प्रेरित करेंगी, लेकिन इस विनाशकारी रास्ते पर चलने के बजाय हमें राष्ट्र की एक सकारात्मक परिभाषा गढ़ने की जरूरत है। वास्तव में ऐसे उपाय बहुत कम ही देखने को मिल रहे हैं, जिनका उद्देश्य सामाजिक न्याय हो। आरक्षण की राजनीति से अलग हाल के समय में सामाजिक असमानता से दो तरह की प्रतिक्रियाएं उभरी हैं। पहले का तर्क है कि नागरिकों को जो अधिकार देने का वायदा हमारे संविधान में किया गया है, उसके लिए एक ज्यादा व्यापक और प्रभावी प्रणाली विकसित की जाए। इसके लिए संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों को मजबूत करने की बात की जा रही हैं। लेकिन हकीकत यह है कि इसका लाभ नागरिकों को कभी नहीं मिला। अब वह समय आ गया है कि इसे एक कर्तव्य केरूप में तबदील करने के लिए बहस आगे बढ़े।

दूसरे दृष्टिकोण में यह कहा जा रहा है कि भेदभाव के शिकार और अभावग्रस्त लोगों को लक्षित करने की अधिक सटीक नीतियां बनाई जाएं। ऐसा करने के लिए सामाजिक समूहों के बारे में हमारे पास जितनी जानकारियां हैं, उसकी तुलना में ज्यादा विस्तृत सूचनाओं की जरूरत है। इन जातियों में उप-समूहों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इस तरह हम जाति समूहों के भीतर के लोगों की परिस्थितियों के विभिन्न अंतरों की सटीक पहचान कर सकेंगे। बात अगर जाति आधारित जनगणना की करें, तो यह एक ऐसा दृष्टिकोण है, जो वंचितों के लिए उनके हक की पारदर्शी गणना करने का वाकई कारगर यंत्र साबित हो सकता है, जिसे देश के सभी लोगों को मान्य होना चाहिए। लेकिन इसके प्रभाव हमेशा विवेक पर निर्भर प्रतीत होते हैं और इसीलिए यह प्रचंड राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और व्यावहारिक झुकाव का विषय है।

http://www.amarujala.com/Vichaar/columnist/Sunil-Khilnani/The-difference-between-India-and-India-32-94.html


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