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न्यूज क्लिपिंग्स् | भारत का आइआइटी स्वप्न-- संदीप मानुधने

भारत का आइआइटी स्वप्न-- संदीप मानुधने

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published Published on Jul 28, 2016   modified Modified on Jul 28, 2016
एक विशाल देश भारत, जिसकी एक अद्भुत प्राचीन संस्कृति रही है, और जिसने तमाम चुनौतियों के बावजूद सदैव अच्छी व गहन शिक्षा को समाज का एक विशिष्ट पहलू बनाये रखा है, वह आज एक दोराहे पर खड़ा है. हमें एक नये तकनीकी विश्व में अपनी ठोस जगह बनानी है, हमारे संसाधन सीमित हैं और हमारे पास वक्त भी कम है.

आधुनिक विश्व अर्थव्यवस्था के सबसे प्रबल और शक्तिशाली देशों में शुमार हैं अमेरिका, जापान, रूस, चीन, जर्मनी, ब्रिटेन और कोरिया.

इन देशों में विज्ञान और तकनीकी में निवेश अधिक होता है, मूल अनुसंधान पर बल दिया जाता है और बाजार में उस अनुसंधान की मशीनरी से उपजे तकनीकी उत्पादों से अपनी धाक जमायी जाती है. आज आप और हम जिन तकनीकों का रोजाना इस्तेमाल करते हैं, ये सभी इन्हीं देशों से निकले हैं.

यदि दायरा विस्तृत कर लें, तो रक्षा उत्पादों में इजराइल का नाम भी आ जायेगा. लेकिन, किसी भी कोण से देखें, तो भारत तकनीक और विज्ञान के वैश्विक बाजारों में, कुछ अपवादों को छोड़ कर (जैसे इसरो आदि), दिखायी नहीं देता है. इन देशों ने न केवल दशकों से सतत रूप से विज्ञान और तकनीक में भारी निवेश किया है, बल्कि इन्होंने उद्योगों को संस्थानों से भी अच्छे से जोड़े रखा है.

इस पृष्ठभूमि में, हम देखते हैं कि भारत में तकनीक और इंजीनियरिंग के (विज्ञान के नहीं) सबसे प्रतिष्ठित संस्थान हैं आइआइटी. अर्थात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान. इन संस्थानों ने 1951 में खड़गपुर के पहले कैंपस से अपनी शुरुआत कर, धीरे-धीरे कुल पांच स्थानों पर (बंबई, दिल्ली, कानपुर और मद्रास को लेकर) कार्य करना शुरू किये.

इन संस्थानों का नाम बना और जहां शुरुआत में इन्हें छात्रों को आकर्षित करने में समस्या होती थी, वहीं इन्हें लाखों छात्रों की भीड़ में से बेहद प्रतिभाशाली छात्र मिलने शुरू हो गये. उम्मीद यही रही कि साल 1991 के बाद, जब भारत एक मुक्त अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर हुआ, इन संस्थानों का देश के तकनीकी विकास में निरंतर अधिक योगदान रहेगा.

कुछ समस्याएं भी रहीं. 1980 के दशक में, जब भारत एक बंद बाजार रहा, तब अवसरों की कमी ने आइआइटी के छात्रों को यूरोप और अमेरिका जाने के लिए प्रोत्साहित किया. सैकड़ों गये भी, और 'ब्रेन ड्रेन' अर्थात प्रतिभा पलायन जैसे विवादित विषय सुर्खियों में आये. तब एक आइआइटी निदेशक ने कड़ा प्रहार करते हुए कहा था- 'ब्रेन ड्रेन इज बेटर दैन ब्रेन इन द ड्रेन' अर्थात अपनी प्रतिभा को अवसरों की कमी से बरबाद कर लेने से अच्छा है कि प्रतिभाएं पलायन कर जायें. यह कथन आज लोग भूल गये हैं, चूंकि भारत में ही जाहिर तौर पर सभी मल्टीनेशनल कंपनियों में अवसर मौजूद हैं. अतः यह मान लिया जा रहा है कि हम एक उन्नत व्यवस्था बनते जा रहे हैं.

लेकिन, हमारे इन पांच प्रारंभिक आइआइटी- खड़गपुर, बंबई, दिल्ली, कानपुर और मद्रास- के बाद अनेक सरकारों को लगने लगा कि समतापरक क्षेत्रीय विकास हेतु और नये आइआइटी खोलने होंगे.

शुरुआत 1994 में गुवाहाटी से हुई. 2008 के बाद तो मानो बाढ़-सी आ गयी! अचानक से, तकनीकी उत्कृष्टता के साथ, सामाजिक विकास और क्षेत्रीय संतुलन की जिम्मेवारी भी इन संस्थानों के माध्यम से हल करने का प्रयास होता दिखने लगा. साथ ही, मौजूदा संस्थानों में आरक्षण हेतु सीटें भी अचानक से बढ़ा दी गयीं, जिससे इन संस्थानों पर और दबाव बढ़ गया.

आज, 2016 में, स्थिति यह है कि भारत में अब 23 आइआइटी हैं (छह नये आनेवाले संस्थानों को मिला कर). यह विश्व का अपने प्रकार का पहला उदाहरण है, जिसमें उत्कृष्ट तकनीकी शिक्षा का इतना फैलाव और विस्तार एक ही ब्रांडनेम के तहत, सरकारी आदेशों से हो रहा है. क्या हमने सही किया है? इसका विश्लेषण आवश्यक है और तीन तर्क प्रस्तुत हैं.

पहला : किसी भी नयी आइआइटी को शुरू करने के लिए, केवल सरकारी धन आवंटन को पर्याप्त मान लेना, ठीक नहीं होगा. आइआइटी को वाकई में उत्कृष्ट बनाने के लिए हमें पहले उनके लिए ठोस 'फीडर रूट्स' तैयार करने चाहिए. अर्थात् बहुत सारे उत्कृष्ट तकनीकी शिक्षक और सही औद्योगिक-लिंक. इन दोनों की ही भीषण कमी है. केवल प्रतिभाशाली छात्र एक कड़ी परीक्षा से चयनित कर स्वतः ही आइआइटी श्रेष्ठ बन जायेंगे, यह गलत सोच है. हो सकता है हम दस या बीस वर्षों में कुछ चमत्कारिक कर दें, अन्यथा प्रतिष्ठा की समस्या हो जायेगी.

दूसरा : भारतीय विनिर्माण आज भी दोयम दर्जे का है. यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि चीन के सामने किसी भी अन्य देश के मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र टिक नहीं पाते हैं. जब हम उस क्षेत्र में ही अभी संघर्षरत हैं, और 'मेक इन इंडिया' जैसे दूरदृष्टा अभियानों को सफल होने में अभी शायद वक्त लगेगा, तो इन 23 आइआइटी से निकलनेवाले सभी हजारों प्रतिभाशाली इंजीनियरों (जिनके सपने बड़े होंगे) को भारत में कैसे सही काम मिल सकेगा? क्या इनमें से अनेक फिर बाहर का रुख करेंगे? या फिर अपनी मूल ब्रांच छोड़ कर कंप्यूटर क्षेत्र या मैनेजमेंट या लोक सेवा क्षेत्र में जायेंगे? तो करोड़ों का नया निवेश क्यों?

तीसरी समस्या है : आइआइटी द्वारा विकसित या प्रवर्तित तकनीकों का वैश्विक कॉमर्शियल बाजारों में अग्रणी नहीं होना. तुलना के लिए एमआइटी (अमेरिका) को लें, जहां हर क्षेत्र में नयी तकनीकें विकसित की जाती हैं, जिनका दुनिया पर गहरा प्रभाव पड़ता है. हम बड़े स्तर पर ऐसा अब तक नहीं कर पाये हैं.

अतः आनेवाले वर्षों में हमें इन 23 संस्थानों पर ही रुक कर, इन्हें ही श्रेष्ठ बनाना चाहिए. तकनीकी शिक्षा की समस्या को केवल नये आइआइटी खोल कर हल नहीं किया जा सकेगा. तकनीकी शिक्षकों के लिए आकर्षक कैरियर की रूपरेखा होनी चाहिए, उद्योगों को अधिक से अधिक जोड़ा जाना चाहिए और गहन अनुसंधान पर बल देना चाहिए. तभी यह 23 आइआइटी विश्व में भारत को अग्रणी बनाने में सार्थक भूमिका अदा करेंगे.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/835718.html


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