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न्यूज क्लिपिंग्स् | भारत की न्यायपालिका के लिए 2019 क्यों एक भुला देने वाला साल है

भारत की न्यायपालिका के लिए 2019 क्यों एक भुला देने वाला साल है

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published Published on Dec 30, 2019   modified Modified on Dec 30, 2019
यदि भारत की कोई संवैधानिक संस्था 2019 की ओर पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहेगी, तो वो है न्यायपालिका.

वैसे तो भारतीय न्यायपालिका का प्रदर्शन हाल के वर्षों में खराब ही रहा है, फिर भी 2019 ने इसके अपयश में कई नए पन्ने जोड़े हैं. न्यायपालिका संवैधानिक नैतिकता और वैधता के प्रति नरेंद्र मोदी सरकार के उपेक्षा भाव का खामियाजा झेल रहे लोगों के पक्ष में खड़े होने में विफल रही है.


और इन विफलताओं में सबसे आगे रहा है सुप्रीम कोर्ट, जो जनवरी 2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ चार वरिष्ठतम जजों की अभूतपूर्व बगावत के अध्याय को पीछे छोड़ने की मशक्कत करता रहा है.

लेकिन अगर न्यायपालिका जनता की नजरों में अपनी खराब हुई छवि को ठीक करने की कोई उम्मीद कर रही थी, तो स्पष्टत: 2019 में ऐसा नहीं हो पाया.

अधिकांश मामलों में न्यायपालिका मोदी सरकार का पक्ष लेते दिखी या कम-से-कम सरकार और उसकी एजेंसियों को ढील देने के लिए संदिग्ध दलीलों का इस्तेमाल करती नज़र आई, जबकि ज़्यादातर एजेंसियां न्याय के मान्य सिद्धांतों की हदों को तोड़ते हुए काम कर रही थीं. और ये रवैया भारत की उच्चतर न्यायपालिका के शीर्ष जजों के लिए सामान्य ढर्रा बन गया है, ना कि अपवाद मात्र.

प्रस्तुत हैं 2019 के कुछ वाकये जब भारतीय न्यायपालिका ने या तो गलत कदम उठाया या वो अधिकारों की रक्षा के अपने संविधान प्रदत्त दायित्वों को निभाने में नाकाम रही.

अनुच्छेद 370 के बाद जम्मू कश्मीर में पाबंदियां
करीब पांच महीने होने को आए हैं जबसे जम्मू कश्मीर के लोग इंटरनेट से वंचित है. वहां इंटरनेट 5 अगस्त को बंद किया गया था जब मोदी सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 को अप्रभावी बनाते हुए पूर्व राज्य का विशेष दर्जा छीन लिया था. हर दृष्टि से कश्मीर आज सरकार के लॉकडाउन में जकड़ा है और वहां मीडिया को भारी पाबंदियों के बीच काम करना पड़ रहा है.

तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूक़ अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती समेत दर्जनों वरिष्ठ नेता अस्थाई जेलों में– एक तो कठोर सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत– समय काटने को मजबूर हैं, क्योंकि सरकार में बैठे कतिपय लोग मानते हैं कि उन्हें मुक्त करने से भारत के सुरक्षा हितों को नुकसान पहुंच सकता है.

इन बातों और कई अन्य घटनाक्रमों पर भारतीय न्यायपालिका की प्रतिक्रिया, या उसका अभाव, बेहद चिंताजनक है.

जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त किए जाने की संवैधानिक वैधता का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की खंडपीठ के सामने लंबित पड़ा है.

जम्मू कश्मीर में लॉकडाउन के दो महीने बीतने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता संबंधी याचिकाओं का अंबार लग जाने के बाद 1 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट सिर्फ मामले की सुनवाई का दिन ही का तय कर पाया जो डेढ़ महीने दूर था – और आखिरकार 70 दिनों बाद 10 दिसंबर को याचिकाओं पर सुनवाई शुरू हो पाई.

 न्यायपालिका की उदासीनता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कश्मीर के एक 65 वर्षीय राजनीतिक बंदी की इलाहाबाद जेल में मौत हो जाने पर भी उसने कोई कदम उठाने की जरूरत नहीं समझी. सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत हिरासत में रखे गए गुलाम मोहम्मद भट उन 300 राजनीतिक कैदियों में से एक थे जिन्हें 5 अगस्त के बाद कश्मीर से बाहर हिरासत में रखा गया था. आगामी 9 जनवरी को उनकी हिरासत की अवधि पूरी होने वाली थी, लेकिन जेल में ही उन्होंने दम तोड़ दिया.

क्या इस घटना के बाद इन ‘राजनैतिक बंदियों’ को रखने वाले राज्यों की अदालतें अनेक मामलों में हस्तक्षेप करेंगी? इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना मुश्किल है.

नागरिकता संशोधन अधिनियम
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर हो चुकी हैं. एक पूर्व जज समेत कई कानूनविदों ने भारत के तीन पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को धर्म के आधार पर नागरिकता देने वाले नए कानून को ‘असंवैधानिक’ बताया है. पर सुप्रीम कोर्ट को अभी तक इस मामले में कोई तात्कालिकता नज़र नहीं आई है, और उसने मामले की अगली सुनवाई की तिथि 20 जनवरी निर्धारित कर दिया है.

अदालतों ने सीएए के बाद सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के खिलाफ दायर याचिकाओं को लेकर भी उसी उदासीनता का प्रदर्शन किया है जोकि कश्मीर को लेकर दिखाई गई थी.

एक-एक कर विभिन्न राज्य धारा 144 लागू करते गए, इंटरनेट बंद करते गए, पुलिस को प्रदर्शनकारियो को हिरासत में लेने और गिरफ्तार करने का आदेश देते गए, पर अदालतों की जड़ता नहीं टूटी. भाजपा शासित उत्तर प्रदेश और कर्नाटक राज्यों की पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की, और देश भर में अब तक कम-से-कम 25 लोगों की जान जा चुकी है. मृतकों में उत्तरप्रदेश के वाराणसी का एक आठ वर्षीय बच्चा भी शामिल है.

पुलिस की बर्बरता के अनेकों वीडियो सामने आ चुके हैं जिनमें पुलिसकर्मियों को मुस्लिम-बहुल इलाकों में घरों में घुसते, लूटपाट और तोड़फोड़ करते, पुरुषों की पिटाई करते, महिलाओं और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करते, सड़कों पर मनमाने ढंग से लोगों को हिरासत में लेते, अस्पतालों में धावा बोलते या विश्वविद्यालय परिसरों के बाहर गोलीबारी करते हुए देखा जा सकता है. दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर होने के बावजूद न्यायपालिका द्वारा सरकार या पुलिस से कोई सवाल नहीं पूछा गया है.

मौजूदा दौर में कोई कल्पना भी कर सकता है कि इतनी ज़्यादतियों, या पूरे राज्य में धारा 144 लागू करने और इंटरनेट बंद करने के बाद भी पुलिस और अधिकारियों से कोई सवाल नहीं किया जाएगा? क्या ये सब व्यापक स्तर पर मौलिक अधिकारों का निलंबन नहीं है?

‘शर्म करो’ कहने पर जगी अदालत
हाल की कई घटनाओं ने संवैधानिक और कानूनी वैधता का गंभीर सवाल खड़ा किया है, पर न्यायपालिका की सक्रियता तभी सामने आ सकी जब दिल्ली हाईकोर्ट में वकीलों ने ‘शर्म करो’ के नारे लगाए. वे जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों के खिलाफ पुलिस की ‘दंडात्मक कार्रवाई’ के खिलाफ अंतरिम राहत की अपील कर रहे थे.

जाहिर है कि हाईकोर्ट पर नारेबाजी का बड़ा असर हुआ और उसने अगले ही दिन नारेबाजी की मामले की जांच के लिए एक समिति के गठन का फैसला कर लिया, पर मजे की बात ये है कि प्रदर्शनकारी छात्रों को राहत देने के लिए कोर्ट ने ज्यादा कुछ नहीं किया.

अयोध्या
मध्यस्थता और अदालत से बाहर मामला निपटाए जाने के विकल्प पर निर्भरता के बाद दशकों पुराना राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद अंतत: सुप्रीम कोर्ट की जिम्मदारी बन गया. पर सर्वसम्मत होने के बावजूद कोर्ट के अयोध्या फैसले ने उन सवालों के अलावा कई और सवाल खड़े कर दिए जिनका कि उसने जवाब देने का प्रयास किया था.

भूमि विवाद का निपटारा तो हो गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ‘संतुलन बिठाने’ का प्रयास किया और इस प्रक्रिया में ऐसे सवाल उठे जिनका कि शायद कभी जवाब नहीं मिल पाए. कोर्ट इस बात पर सहमत था कि विवादित स्थल का हिंदुओं और मुसलमानों दोनों ने ही उपयोग किया था, फिर भी उसने विवादित भूमि हिंदुओं को दे दिया.

हैदराबाद ‘मुठभेड़’
अतीत में भी पुलिस मुठभेड़ों के कई मामले में संदेह के घेरे में आ चुके हैं. लेकिन शायद ही कभी कोई मामला इस कदर सरासर न्यायेतर हत्या का लगा हो जैसा कि हैदराबाद के तेलंगाना क्षेत्र में बलात्कार और हत्या के चार आरोपियों की गोली मारकर हत्या किए जाने के मामले में दिखा.
 
इन हत्याओं के मद्देनज़र ‘त्वरित न्याय’ पर शुरू हुई राष्ट्रीय बहस के बीच सप्ताह भर तक चुप्पी साधे रहने के बाद आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की तंद्रा टूटी और उसने इस संबंध में जांच के लिए एक स्वतंत्र आयोग का गठन किया. सांसदों से लेकर आमजनों तक, सभी ने इन हत्याओं का समर्थन किया था, पर भारतीय न्यायपालिका ने स्वत:संज्ञान लेते हुए इसे सही ठहराए जाने की निंदा करने और ऐसी घटनाओं पर अदालत की स्थिति को दोहराने की जरूरत नहीं महसूस की, हालांकि इस बारे में उसने स्पष्ट दिशा-निर्देश तय कर रखे हैं.

भविष्य से उम्मीद
हालांकि, 2019 में ऐसे भी कुछ मौके भी आए जब न्यायपालिका हमें चकित करने में कामयाब रही. गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने असम में इंटरनेट सेवाओं को बहाल करने का आदेश दिया, जबकि किसी अन्य राज्य या अदालत ने ऐसा नहीं किया था. जब समाज में नैतिक निगरानी बढ़ती जा रही हो, तो ऐसे में मद्रास उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी अविवाहित जोड़े का होटल के कमरे में एक साथ रहना कहीं से भी अपराध नहीं है. और, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने धारा 144 के तहत तीन दिनों के प्रतिबंध आदेश के लिए राज्य पुलिस और सरकार को कड़ी फटकार लगाई, और इसे ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन’ करार दिया, और कोर्ट ने ये भी कहा कि ‘अनुच्छेद 14 के तहत एक मनमाना और अनुचित आदेश पारित नहीं किया जा सकता है’.
 
पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

मनीष छिब्बर, द प्रिंट, https://hindi.theprint.in/opinion/why-2019-is-a-forgettable-year-for-indias-judiciary-supreme-court/106459/


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