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न्यूज क्लिपिंग्स् | भारतीय उपभोक्ता क्रांति का उत्सव-- अभय कुमार दूबे

भारतीय उपभोक्ता क्रांति का उत्सव-- अभय कुमार दूबे

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published Published on Nov 15, 2015   modified Modified on Nov 15, 2015
इस बार भारत में भूमंडलीकरण की पच्चीसवीं दिवाली मनी। परंपरा निष्ठ मेरी यह बात सुनकर थोड़े दु:खी हो जाएंगे। वे पूछ सकते हैं कि 1991 में शुरू हुए भारतीय अर्थव्यवस्था के
25 साल जरूर पूरे हो रहे हैं, लेकिन भारतीय परंपरा से पूरी तरह असंबद्ध राजनीतिक-आर्थिक प्रक्रिया को दिवाली से जोड़ने की क्या तुक है? इसके जवाब में कुछ जोखिम उठाकर मैं यह कहना चाहूंगा कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय परंपरा के जिन रूपों और अभिव्यक्तियों को धीरे-धीरे पूरी तरह से आत्मसात कर लिया है, उनमें दिवाली का नाम सबसे ऊपर है। मैं कम से कम पिछले दस साल से यह अवलोकन कर रहा हूं कि भूमंडलीकरण के एजेंट पूरे साल दिवाली मनाने की तैयारी करते रहते हैं। इसकी बाकायदा योजनाएं बनती हैं ताकि सफलतापूर्वक दिवाली मनाकर भूमंडलीकरण के स्वास्थ्य की न केवल गारंटी दी जाए, बल्कि अगली दिवाली तक सक्रिय रहने की योजना बनाई जा सके।

वैश्वीकरण का दूसरा नाम उपभोक्ता क्रांति है। अपने तमाम कर्मकांडीय स्वरूप और धर्मपरायणता के परे जाते हुए दिवाली पिछले दो दशकों से भारतीय उपभोक्ता-क्रांति उत्सव बनती जा रही है। दिवाली के बाजार से रिश्ते हमेशा से असंदिग्ध रहे हैं। दरअसल, दिवाली बाजार के साथ अपने इन्हीं रिश्तों के कारण एक हिंदू त्योहार की सीमाओं निकलते हुए एक सच्चे सार्वदेशिक और सर्व-धार्मिक त्योहार के रूप में व्यावहारिक मान्यता प्राप्त करती रही है। इसकी वजह सीधी है। बाजार केवल हिंदुओं का नहीं हो सकता। उसमें अन्य धर्मों की व्यापारिक जातियां भी सदैव से आवश्यक रूप से भागीदारी करती रही है। हम सभी ने अपने बचपन से ही मुसलमान व्यापारियों को भी अपनी दुकानों और प्रतिष्ठानों पर ऐसी दिवाली मनाते हुए देखा है, जिसमें भले ही लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां न पूजी जाती हों, किंतु उसके केंद्र में ‘शुभ-लाभ' की कामना अवश्य होती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि मानवीय इतिहास में बाजार की शक्तियों की सर्वोच्च अभिव्यक्ति के रूप में भूमंडलीकरण की ताकतों को दिवाली का पर्व पहली नज़र में ही सर्वाधिक अनुकूल लगना चाहिए था। और हुआ भी ऐसा ही।

दरअसल, दिवाली एक ऐसे मौसम के बीच में आती है, जिसमें परंपरा ने लोगों को खरीद-फरोख्त करने का निर्देश दे रखा है। यह मौसम पितृ पक्ष खत्म होते ही शुरू हो जाता है और नवरात्रि के साथ ही इस समाज के अधिकांश सदस्य अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार उपभोक्ता के अस्थायी संस्करण में बदल जाते हैं। मकान और कार खरीदने जैसे बड़े सौदों से लेकर छोटी-मोटी चीजें खरीदने तक का जतन इसी मौसम में किया जाता है। दिवाली पर भारतीय मानस का यह उपभोक्ता-प्रकरण अपने शिखर पर रहता है। दिवाली खत्म हो जाने पर भी इसके विस्तारित रूप क्रिसमस और नववर्ष तक जारी रहते हैं। दरअसल, भारतीय उपमहाद्वीप की मिली-जुली धार्मिक संस्कृति में पितृ-पक्ष से प्रारंभ हुई इस अवधि में मुसलमानों के भी त्योहार आते हैं और ईसाइयों के भी। यह भी हमारी उपमहाद्वीप का अद्‌भुत संयोग है। दिवाली त्याहारों की इस शुभ-शृंखला के बीच एक बाजारोन्मुख नगीने की तरह टंकी हुई है।

बाजार के नए खिलाड़ियों को अपनी क्षमताओं का पता दिवाली के सीज़न में ही चलता है। पिछले साल ई-रिटेलर्स को अपनी हैसियत का सुखद और सकारात्मक अहसास दिवाली के दिन ही हुआ। अमेजन अौर फ्लिपकार्ट जैसी ऑनलाइन मार्केटिंग कंपनियों ने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि भारत के उपभोक्ता उनका स्वागत इतने जोर-शोर से करेंगे। दरअसल, दिवाली के दिनों में हुई मांग से वे भौंचक्के रह गए, क्योंकि उन्होंने उस स्तर पर जाकर उसकी पूर्ति की तैयारी नहीं की थी। पिछली दिवाली को केवल दस घंटों के भीतर फ्लिपकार्ट ने करीब छह सौ करोड़ की बिक्री की थी। हालत यह थी कि त्योहारों के इस सीजन में ई-कॉमर्स वालों को प्रतिदिन अस्सी हजार ऑर्डर्स मिल रहे थे। पिछली बार की असावधानी से सबक सीखते हुए इस बार उन्होंने अपनी सप्लाई चेन को इतना मजबूत कर लिया है कि अगर तीन से चार लाख ऑर्डर भी प्रतिदिन आएं तो वे उसकी आपूर्ति कर सकेंगे। भारतीय खुदरा बाजार के ये नए खिलाड़ी इस बार खासतौर से विभिन्न चरणों पर ‘कैश-बैक' का प्रलोभन दे रहे हैं, ताकि कुल रिटेल मार्केट में दिवाली के जरिये उनकी हिस्सेदारी और बढ़ सके। यह भूमंडलीकरण और दिवाली के अंतरंग रिश्तों का ही कमाल है कि इस त्योहार की बाजारगत सद्भावनाओं का तख़मीना भारत के साथ-साथ विदेशों में भी लगाया जाता है।

इस दौरान भारतीय बाजार पर लगी रहने वाली सबसे नई आंखों में चीन की आंखें किसी भी तरह से नज़रअंदाज नहीं की जा सकतीं। पिछले साल उत्तर भारत और मध्य भारत के बाजारों से आई रपटें स्पष्ट रूप से बता रही थीं कि चीन में बनी चीजों से दिवाली के बाजार भरे हुए थे। इस साल भी चीन इस प्रतियोगिता में बाजी मारने की कोशिश कर रहा है। त्योहारों के इस देश का वैसे भी उसने गहन अध्ययन कर रखा है और यही वजह है कि हर त्योहार के पहले बाजार चीनी उत्पादों से भर जाते हैं। नया प्रोडक्ट तो दिवाली के दिन लांच किया ही जाता है, पुराना और पिट चुका प्रोडक्ट (जैसे मैगी) भी दिवाली के दिन ही लांच करने की योजना बनाई जाती है।

कुल-मिलाकर दिवाली और भूमंडलीकरण की यह बढ़ती हुई अभिन्नता न केवल समृद्धि के एक परंपरागत मुहावरे के तौर पर बल्कि ठोस सामाजिक धरातल पर लक्ष्मी को हमारे समाज की मुख्य आराध्य-देवी बनाए दे रही हैं। लक्ष्मी को मिल रहा यह विशेष महत्व ऐसे सामाजिक असंतुलन का परिचायक है, जिसमें सरस्वती धीरे-धीरे हाशिये की तरफ जाने के लिए मजबूर होने वाली है। हम जानते हैं कि समाज में सरस्वती की औपचारिक पूजा की परंपरा कमजोर है। मैंने अपने पूरे जीवन में सरस्वती का एक ही मंदिर देखा है (हालांकि और भी कुछ मंदिर हो सकते हैं)। किंतु सरस्वती की अनौपचारिक अाराधना के दायरों के रूप में विश्वविद्यालयों, शोध-संस्थानों और अन्य शिक्षा-संस्थानों को शिक्षा के नि:स्वार्थ प्रचार का उद्‌गम मानने की बजाय बाजार और कॉर्पोरेट स्वार्थों का ताबेदार बनाने की प्रक्रिया हमारे यहां बहुत तेजी से चल रही है। समझ में नहीं आता कि वह दिन कैसा होगा जब लक्ष्मीजी पूरी तरह से ज्ञान की देवी सरस्वती को प्रतिस्थापित कर देंगी और वह दिवाली कैसी होगी, जब हमारे बौद्धिक मानस में ‘शुभ-लाभ' की कामना के अलावा कुछ और नहीं रह जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


http://www.bhaskar.com/news/ABH-abhay-kumar-dubey-column-in-dainik-bhaskar-5166463-NOR.html


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