Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | भुखमरी का अर्थशास्त्र- देविन्दर शर्मा

भुखमरी का अर्थशास्त्र- देविन्दर शर्मा

Share this article Share this article
published Published on Oct 15, 2010   modified Modified on Oct 15, 2010

कुछ चौंकाने वाली छवियां मेरे मन में अब भी अंकित हैं। कोई 25 साल पहले मैं एक प्रमुख दैनिक में छपी खबर पढ़ रहा था, जिसमें लिखा था कि भारत में हर दिन करीब पांच हजार बच्चे मर जाते हैं। पिछले सप्ताह एक अखबार में छपी खबर ने फिर मेरा ध्यान खींचा। इसमें लिखा था कि भारत में 18.3 लाख बच्चे अपना पांचवां जन्मदिवस मनाने से पहले ही मर जाते हैं। मैंने तत्काल पेन और कागज उठाया और बच्चों की मृत्यु दर निकालने में जुट गया। मैं यह जानना चाहता ता कि पिछले 25 सालों में बाल मृत्यु दर में कमी आई है या नहीं। मेरी हताशा बढ़ गई। गणना से पता चलता है कि रोजाना 5013 बच्चे कुपोषण और भुखमरी का शिकार हो जाते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-3 के अनुसार भारत में पचास फीसदी बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें से रोजाना पांच हजार बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं। मेरे विचार में इस खबर पर हर भारतीय की सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। दुनिया भर में 14,600 बच्चे हर रोज मर जाते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि विश्व में कुल मरने वाले बच्चों के एक-तिहाई भारत में हैं। यह विडंबना तब है जब अन्न गोदामों में सड़ रहा है।

हां, भारत निश्चित तौर पर एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, किंतु इस साम्राज्य का निर्माण भूखे पेट के ऊपर हुआ है। मेरा भारत महान! पिछले पखवाड़े में न्यूयॉर्क में गरीबी सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व एकत्र हुआ था। एक बार फिर भारत ने विश्व के करीब 50 प्रतिशत भूखों के साथ चार्ट में बाजी मार ली। विश्व के कुल 92.5 करोड़ भूखों में से 45.6 करोड़ भारत में रह रहे हैं। इससे हर भारतीय को शर्मसार होना चाहिए और खासतौर पर लोकतंत्र के नाम पर शपथ लेने वालों को। जनता के प्रतिनिधि भूख के बढ़ते प्रकोप से बेपरवाह कैसे हो सकते हैं? क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि लोकतंत्र में भूख विद्यमान क्यों रहती है? संयुक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के 20-22 सितंबर को हुए सम्मेलन में जारी आंकड़ों से साफ हो जाता है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी को दूर करने में वैश्विक नेतृत्व बुरी तरह विफल रहा है। अम‌र्त्य सेन ने एक बार कहा था कि लोकतंत्र में अकाल नहीं पड़ता, किंतु मुझे इसमें बढ़ाना चाहिए कि भुखमरी लोकतंत्र में हमेशा मौजूद रहती है।

बढ़ती भुखमरी और कुपोषण इस बात के भी द्योतक ंहैं कि अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व भुखमरी के खिलाफ संघर्ष में ईमानदार नहीं है। भुखमरी सबसे बड़ा घोटाला है। यह मानवता के खिलाफ अपराध है, जिसमें अपराधी को सजा नहीं मिलती। 1996 में विश्व खाद्यान्न सम्मेलन में राजनीतिक नेतृत्व ने संकल्प लिया था कि 2015 तक भूखों की संख्या आधी से कम हो जाएगी। तब भूखों की संख्या करीब 84 करोड़ थी। मात्र यह संकल्प ही प्रदर्शित करता है कि मानवता के खिलाफ सबसे जघन्य अपराध को लेकर राजनेता कितने बेपरवाह हैं। खाद्य एवं कृषि संगठन के आकलन के अनुसार रोजाना 24 हजार लोग भुखमरी और कुपोषण के दायरे में आ रहे हैं।

विश्व खाद्यान्न सम्मेलन में मैंने कहा था कि 2015 तक 17.2 करोड़ लोग भूख से मर चुके होंगे। जब पिछले दिनों विश्व के नेता एमडीजी सम्मेलन में शामिल हुए तब तक करीब 12.8 करोड़ लोग भूख से मर चुके थे। 1996 से भूखों की संख्या घटने के बजाय लगातार बढ़ रही है। 2010 तक विश्व को कम से कम 30 करोड़ लोगों को भूखों की सूची से हटा देना चाहिए था। हालांकि 92.5 करोड़ भूखे लोगों की संख्या में अब तक 8.5 करोड़ की वृद्धि हो चुकी है। भूखों की संख्या कम दिखाकर भूख का विकराल रूप छुपाया जा रहा है। उदाहरण के लिए बताया जाता है कि भारत में 23.8 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं। यह संख्या निश्चित तौर पर गलत है। नए सरकारी आकलनों के अनुसार 37.2 फीसदी जनता गरीबी में रह रही है, जिसका मतलब है कि भारत में भुखमरी के शिकार लोगों की अधिकारिक संख्या 45.6 करोड़ है। यह आकलन भी कम है। भारत में शहरी क्षेत्र में मात्र 17 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति दिन गरीबी रेखा निर्धारित की गई है। यह समझ से परे है कि इस वर्गीकरण के तहत एक व्यक्ति दो जून की रोटी कैसे खा सकता है। तमाम प्रमुख लोकतंत्रों में भुखमरी बढ़ रही है। अमेरिका में इसने 14 साल का रेकॉर्ड तोड़ दिया है। दस प्रतिशत अमेरिकी भुखमरी के शिकार हैं। यूरोप में चार करोड़ लोग भूखे हैं। दिलचस्प यह है कि भूख सूची में शामिल अधिकांश देशों में लोकतंत्र कायम है।

क्या भूख मिटाना सचमुच इतना कठिन है? इसका जवाब है नहीं। चूंकि भूख से लड़ने की कोई इच्छाशक्ति नहीं है, इसलिए भूख का व्यापार तेज रफ्तार से फल-फूल रहा है। विश्व आर्थिक वृद्धि के प्रतिमान के मूल सिद्धांत के लक्ष्यों को गरीबी, भुखमरी और असमानता उन्मूलन के रूप में स्वीकार कर रहा है, किंतु वास्तव में यह भुखमरी और असमानता को बढ़ावा दे रहा है। अर्थशास्त्रियों ने पीढि़यों के दिमाग में इस तरह की बातें भर दी हैं कि हर कोई विश्वास करने लगा है कि गरीबी और भुखमरी मिटाने का रास्ता जीडीपी से होकर गुजरता है। जितनी अधिक जीडीपी होगी, गरीब को गरीबी के दायरे से बाहर निकलने के अवसर भी उतने ही अधिक होंगे। इस आर्थिक सोच से अधिक गलत धारणा कुछ हो ही नहीं सकती।

2008 के आर्थिक संकट के बाद अंतराष्ट्रीय नेतृत्व ने अमीरों और उद्योगपतियों को संकट से निकालने के लिए 10 खरब डॉलर से अधिक झोंक दिए हैं। दूसरी तरफ, दुनिया के चेहरे से गरीबी और भुखमरी का नामोंनिशान मिटाने के लिए महज एक खरब रुपये की ही आवश्यकता पड़ेगी। किंतु इस काम के लिए संसाधनों का टोटा पड़ जाता है। अमीरों की जेब भरने के लिए तो विश्व में पैसे की कमी नहीं है। लाभ का निजीकरण और लागत का सामाजिकरण का सिद्धांत गढ़ लिया गया है। क्या यह राजनीतिक और आर्थिक बेईमानी की श्रेणी में नहीं आता? भूखे पेट जबरदस्त व्यावसायिक अवसर पैदा करते हैं। धनी अर्थव्यवस्थाएं खाद्य और कृषि के क्षेत्र में मुक्त व्यापार के जरिये मोटा मुनाफा कमाती हैं। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के खुलेपन से धनी अर्थव्यवस्थाओं को अवांछित प्रौद्योगिकी और सामान खपाने का मौका मिल जाता है। गरीबों की जेब से आखिरी पैसा तक निकालने के लिए माइक्रो फाइनेंस जैसी व्यवस्थाएं विकसित हो रही हैं।

भारत में गरीब और भुखमरी के शिकार लोग नए बाजार का निर्माण कर रहे हैं। निजी कंपनियां ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से दौड़ रही हैं। बहुत से गांवों में पीने के पानी की व्यवस्था नहीं हो पाई है लेकिन कोल्ड डि्रंक्स वहां भी बिकते नजर आ जाएंगे। इसमें भी हैरत की बात नहीं है कि आज देश में शौचालयों से अधिक संख्या मोबाइल फोन की हो गई है। भूख का व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है।

[देविंदर शर्मा: लेखक खाद्य एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]


http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_6812825.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close