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न्यूज क्लिपिंग्स् | भूमंडलीकरण का शब्दजाल- सुनील

भूमंडलीकरण का शब्दजाल- सुनील

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published Published on Mar 30, 2012   modified Modified on Mar 30, 2012
साहित्य में कबीर की उलटबांसियां प्रसिद्ध हैं। गहरे से गहरे दार्शनिक रहस्यों को बताने के लिए कबीर जीवन के कुछ ऐसे विरोधाभासों का सहारा लेते हैं, जिनमें ऊपर से कुछ और दिखाई देता है, किंतु अंदर कुछ और होता है। वैश्वीकरण के साथ ही दुनिया में एक नई शब्दावली आई है, जो कुछ-कुछ उलटबांसियां जैसी ही हैं। जैसे वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण, जगतीकरण या जागतिकीकरण को ही लें, जो ग्लोबलाइजेशन के विविध अनुवाद हैं। लगता है कि पूरी दुनिया एक हो रही है। इसलिए इसे 'वैश्विक गांव' की संज्ञा भी दी जा रही है। सच है कि वैश्वीकरण के साथ दुनिया में आना-जाना और लेन-देन बढ़ गया है, किंतु गौर करें, तो पता चलेगा कि इस परिदृश्य में पूंजी व कंपनियों का आवागमन तो ज्यादा से ज्यादा खुला होता गया है, पर श्रम और इनसान के आवागमन पर पाबंदियां ज्यों की त्यों हैं।

भारत में 1991 से शुरू हुई वैश्वीकरण की नीतियों को 'आर्थिक सुधार' की संज्ञा भी दी गई है। यह विश्व बैंक की भाषा है। बिजली, पानी, कृषि, खनन, श्रम कराधान, शिक्षा, स्वास्थ्य- हर क्षेत्र में इन दिनों सुधारों का बोलबाला है। अब 'दूसरी पीढ़ी के सुधारों' की बात भी चल रही है।हाल ही में खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने की जो घोषणा हुई, वह इसी का हिस्सा थी। पर यह भी निर्विवाद है कि इन सब सुधारों की एक ही दिशा है। वे निजी देशी-विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाते हैं और देश की साधारण जनता के खिलाफ जाते हैं।

कभी सुधार शब्द का प्रगतिशील और जनहितैषी अर्थ हुआ करता था, जैसे 'भूमि सुधार'। अब इस शब्द का अपहरण हो गया है और ठीक उलटे अर्थ में उसका इस्तेमाल हो रहा है। इन सुधारों के तहत जमीन भी किसानों से छीनकर कंपनियों को दी जा रही है। वैश्वीकरण में 'निजी क्षेत्र' का मतलब कॉरपोरेट क्षेत्र या कंपनियां ही होता है। यही हाल 'पीपीपी' (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) का है, जहां पब्लिक का मतलब जनता नहीं, सरकार से है और प्राइवेट का मतलब निजी फर्म या कंपनी से है।

वैश्वीकरण के इस युग की विशेषताओं को उदारीकरण या विनियमन और विनियंत्रण के नाम से भी बताया जाता है। किंतु ये नीतियां देसी-विदेशी कंपनियों, पूंजीपतियों व सट्टेबाजों के लिए उदार रही हैं, साधारण जनता के लिए तो ये काफी कंजूस, क्रूर, बर्बर और जानलेवा साबित हुई हैं। गरीबी रेखा की मनमानी परिभाषा करके देश की जरूरतमंद जनता को सस्ते राशन, सस्ते आवास, शिक्षा और इलाज से वंचित करना इसका एक उदाहरण है। बड़ी संख्या में किसानों और बुनकरों की आत्महत्या दूसरा उदाहरण है। इसलिए 'उदारीकरण' का सही नाम 'बर्बरीकरण' होना चाहिए।

वर्ष 1994 के अंत में डंकल मसौदे पर हस्ताक्षर एवं विश्व व्यापार संगठन की स्थापना दुनिया के इतिहास में बड़ी घटना थी। इसने भी कई नए शब्दों व मुहावरों को प्रचलित किया, जिनमें अर्थ के अनर्थ हो जाते हैं। जैसे एक शब्द है, खोलना। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों और बाजारों को खोलने की बात कही जाती है, पर सवाल यह है कि जिसे खोलने को कहा जा रहा है, वह बंद कहां है? और जब कहीं के दरवाजे विदेशी कंपनियों के लिए खुलते हैं, तो देश की जनता के लिए कुछ दरवाजे बंद हो जाते हैं।

ऐसा ही एक भ्रामक शब्द है, राष्ट्रीय बरताव, जिसे राष्ट्र या राष्ट्रहित से कोई लेना-देना नहीं है। इस सिद्धांत का मतलब है कि एक देश अपने यहां विदेशी कंपनियों को वे पूरी सुविधाएं दे, जो एक देसी कंपनी को प्राप्त है। इस सिद्धांत का सहारा लेकर दुनिया के गरीब देशों की सरकारों को अपने छोटे-छोटे देसी उत्पादकों को किसी भी तरह का संरक्षण देने पर पाबंदी लगा दी जाती है। इसी से मिलती-जुलती अवधारणा 'लेवल-प्लेयिंग फील्ड' की है। इसके तहत यह मांग की जाती है कि खेल का मैदान सबके लिए बराबर रहे, यानी देसी उत्पादकों या छोटे उत्पादकों को किसी तरह के अनुदान, रियायतें या संरक्षण नहीं दिए जाएं।

किंतु जिसे खेल का समतल मैदान कहा जाता है, वह कभी समतल नहीं होगा। आकार और ताकत का सहारा लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने प्रतिस्पर्द्धियों को मैदान से बाहर कर देती हैं और मैदान हड़प लेती हैं। इसी तरह 'मुक्त बाजार' या 'मुक्त व्यापार' भी एक मिथक है। चार सौ वर्षों के पूंजीवादी देश भी अपने उद्योगों को संरक्षण देते रहे हैं। आज भी अमेरिका-यूरोप-जापान अपनी खेती को जो विशाल अनुदान देते रहे हैं, वह 'मुक्त व्यापार' के इस सिद्धांत पर खुला तमाचा है। ऐसा ही नाम व काम का विरोधाभास 'हरित क्रांति' में नजर आता है, जिसका रंग अब किसानों की आत्महत्याओं के साथ खूनी लाल में बदलता जा रहा है। विडंबना है कि इससे कोई सबक लिए बगैर सरकार 'दूसरी हरित क्रांति' की बात कर रही है। 'औद्योगिकीकरण' के लिए भी सरकार बहुत बेचैन है।

भारत की 'राष्ट्रीय आय' की वृद्धि दर पिछले कुछ वर्षों से अच्छी रही है। किंतु इसमें खेती या उद्योगों का कोई विशेष योगदान नहीं रहा है, बल्कि इसमें प्रमुख भूमिका 'सेवाओं' या 'सेवा क्षेत्र' की है, जो तेजी से बढ़ रही है। किंतु यह सेवा शब्द भी बड़ा भ्रामक है। पहले जो सेवाएं हुआ करती थीं, जैसे शिक्षक, वैद्य, नाई आदि के कामों में सेवा का कुछ अंश रहता था, पर आधुनिक सेवाओं की तो बात ही दूसरी है। जैसे बैंक, बीमा, म्युचुअल फंड, शेयर बाजार, दूरसंचार, निजी अस्पताल, रियल एस्टेट, पर्यटन आदि। सच यह है कि खेत, खदानों, कारखानों के मेहनतकश लोगों के श्रम से जो वास्तविक उत्पादन और आय का सृजन होता है, उसके मूल्य के बड़े हिस्से को हड़पने का काम इन कथित 'सेवाओं' के जरिये होता है।

बहरहाल, सूचना क्रांति, मीडिया, एनजीओ, बीओटी, माइक्रो फाइनेंस जैसे अन्य कई शब्द पिछले कुछ समय से सामने आए हैं, जो असलियतों को छिपाने, लोगों को भरमाने का काम करते हैं। दुनिया को समझने और समझकर बदलने के लिए जरूरी है कि उनके पीछे की असली प्रक्रियाओं, विचारधाराओं और मंशा को समझा जाए।

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