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न्यूज क्लिपिंग्स् | भ्रष्टाचार का भयावह मंजर- ज्ञान प्रकाश पिलानिया

भ्रष्टाचार का भयावह मंजर- ज्ञान प्रकाश पिलानिया

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published Published on Sep 17, 2013   modified Modified on Sep 17, 2013
जनसत्ता 17 सितंबर, 2013 : हाल ही में ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की ‘वैश्विक भ्रष्टाचार: बैरोमीटर-2013’ रिपोर्ट में एक बार फिर यह उजागर हुआ है कि भारत में भ्रष्टाचार दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले दुगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है।

विश्व के सत्ताईस फीसद लोगों ने कहा कि उन्होंने पिछले साल भर के दौरान रिश्वत देकर काम कराया है। लेकिन अकेले भारत में यह आंकड़ा चौवन फीसद रहा। यानी हर दो में से एक भारतीय ने यह माना कि उसने रिश्वत दी है। भारत में सबसे ज्यादा भ्रष्ट समूहों, या कहें कि संस्थानों के बीच राजनीतिक दलों का नंबर सबसे ऊपर रहा। इनकी दर पांच के पैमाने पर 4.4 रही। इस आंकड़े में एक का मतलब सबसे कम भ्रष्ट और पांच के मायने सबसे ज्यादा भ्रष्ट। समझा जा सकता है कि ऊपर से सब कुछ अच्छा होने की हकीकत क्या है। इसी तरह, पुलिस महकमे को बहुत ज्यादा भ्रष्ट आंका गया। सर्वेक्षण में भारत के चालीस फीसद लोगों ने स्वीकार किया है कि देश में भ्रष्टाचार बहुत तेजी से बढ़ रहा है। लगभग सैंतालीस फीसद ने इसे एक बेहद गंभीर समस्या मानते हुए कहा कि इसका तत्काल निदान बहुत जरूरी है।
विश्व भर में भ्रष्टाचार-मुक्त भविष्य के लिए ललक बढ़ रही है। भारत में पैंतालीस फीसद लोगों का मानना है कि वे समझते हैं कि आम समाज अगर कोई पहल करे तो शायद कोई बड़ा फर्क पड़ेगा। वहीं चौंतीस फीसद, यानी हर तीन में से एक व्यक्ति ने बताया कि वे भ्रष्टाचार की शिकायत ही नहीं करते। जबकि अड़सठ फीसद ने माना कि सरकार भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कोई ठोस कदम उठाने के प्रति गंभीर नहीं है। भ्रष्टाचार के मसले पर कराए गए एक अन्य सर्वेक्षण में यह निष्कर्ष सामने आया कि देश के अस्सी फीसद साधारण लोग राशन कार्ड, बिजली कनेक्शन आदि बुनियादी सुविधाएं हासिल करने के लिए घूस देते हैं। इस सर्वेक्षण में जो एक खास बात उभरी, उसमें लोगों ने देश में भ्रष्टाचार फैलाने के लिए दोषी पक्ष, समूह या व्यक्ति की पहचान की। इसके मुताबिक भ्रष्टाचार के पीछे पचहत्तर फीसद, यानी तीन चौथाई राजनीतिक, तेरह फीसद नौकरशाही, आठ फीसद बिचौलिए, तीन फीसद व्यापारी और एक प्रतिशत अन्य लोग हैं।
‘अर्थशास्त्र’ में कौटिल्य ने लिखा है कि सरकारी कर्मियों द्वारा कितने धन का गबन किया गया, यह पता लगाना उतना ही मुश्किल है, जितना यह कि मछली ने तालाब में कितना पानी पिया है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सड़सठवें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था कि भ्रष्टाचार एक बड़ी चुनौती बन चुका है। गौरतलब है कि दो साल पहले देश में व्याप्त सर्वग्राही और सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के भयावह परिदृश्य को लक्षित कर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने भी इसी आशय के वक्तव्य दिए थे कि भ्रष्टाचार कैंसर है, जो हमारे देश के राजनीतिक, आर्थिक सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन पर असर डाल रहा है और इसे समाप्त करना जरूरी है; इसके लिए विभिन्न स्तरों पर पारदर्शिता और जवाबदेही स्थापित करनी होगी और उसे कारगर ढंग से लागू करना होगा।
इस तरह की बातें अक्सर कही जाती रही हैं। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि भ्रष्टाचार रोकने के सरकारी उपाय एक सकारात्मक पहल के बजाय दबाव में उठाए गए औपचारिक कदम ज्यादा दिखते हैं। दरअसल, भ्रष्टाचार हमेशा से सत्ता का अघोषित साझीदार रहा है। यह पंडित नेहरू के दौर में भी था, जब उनके दामाद फिरोज गांधी ने मूंदड़ा घोटाले का खुलासा किया था। लेकिन भ्रष्टाचार पहले जहां व्यक्तिगत तौर पर अनैतिक और पाप की तरह देखा जाता था, वहीं अब यह धीरे-धीरे संस्थागत और व्यवस्थागत शक्ल ले चुका है।
साठ के दशक में लालबहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए केंद्रीय मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन उसके बाद के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। आज हालत यह है कि सरकारें तक भ्रष्ट लोगों के बचाव के लिए अनेक तरह की दलील देती रहती हैं। राजनीतिक शर्म-लिहाज का एक तरह से लोप हो गया लगता है।
यों तो किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन का सत्ता-काल भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं रहा है। लेकिन यूपीए के शासन में ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार सबसे ‘सुनहरे’ दौर में चल रहा है। पिछली यूपीए सरकार में तेल के बदले खाद्यान्न घोटाला, हसन अली का अस्सी हजार रुपए करोड़ से अधिक का मामला और वोट के बदले रिश्वत जैसे कांड हुए। दूसरे कार्यकाल में तो मानो घोटालों ने सुनामी की शक्ल ले ली है। चावल निर्यात, 2-जी, कोयला घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, टाट्रा ट्रक से लेकर रेलवे घोटाले जैसी एक लंबी शृंखला है। इनमें 2-जी और कोयला घोटाले तो कैग की रिपोर्ट के चलते सामने आ सके। इसके अलावा, सूचना अधिकार कानून भी घोटालों पर पड़े परदे उठाने के एक ताकतवर हथियार के रूप में देखा जा रहा है। यह बेवजह नहीं है कि घोटालों के आरोपों से घिरी सरकार ने सूचना अधिकार कानून, सीबीआइ और कैग को कमजोर करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं।
वक्त के साथ भ्रष्ट आचरण की शक्लें भी बदलती रही हैं। मकसद जांच से बचने या जद में आने के बावजूद पकड़ में न आने का रहा है। भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए एक सुगठित तंत्र के काम करने के बावजूद आज इसका पता लगाना मुश्किल होता गया है। दरअसल, भ्रष्टाचार के तहत ली और दी जाने वाली राशि इतनी बड़ी होती जा रही है कि कई बार विश्वास करना मुश्किल होता है। अब यह रकम लाखों करोड़ रुपयों तक पहुंच चुकी है और सकल घरेलू उत्पाद के एक प्रतिशत के रूप में मापी जाने लगी है। रिश्वत अब नकदी में नहीं ली जाती। बैंकों के जरिए यह खेल आसान होता है। गोपनीय कॉरपोरेट ढांचा भी इसमें मददगार साबित हो रहा है। दूसरे देशों के कानून और सत्ताधारियों की सौदेबाजी के चलते भ्रष्टाचारियों को पकड़ना लगभग असंभव है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रमंडल खेलों या 2-जी स्पेक्ट्रम, कोयला घोटाला आदि ने यूपीए सरकार और कांग्रेस के नेतृत्व के दामन पर ऐसा दाग लगा दिया है, जिससे पाक-साफ निकल पाना आसान नहीं होगा। कैग यानी नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक और सर्वोच्च न्यायालय की ओर से नियुक्त विभिन्न एजेंसियों की जांच से साफ है कि कम से कम इन दो घोटालों में विभिन्न मंत्रियों द्वारा लिए गए फैसलों के तार प्रधानमंत्री कार्यालय से भी जुड़े थे। कोयला खदान आबंटन और 2-जी स्पेक्ट्रम घोटालों की जांच के बाद प्रधानमंत्री की ‘मिस्टर क्लीन’ की पहले की छवि अब टूट चुकी है। इस आरोप का भी कांग्रेस और उनके जिम्मेदार नेताओं ने कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया कि ओत्तावियो क्वात्रोकी को बोफर्स सौदे में रिश्वत के तौर पर मिली बड़ी राशि के साथ निकल भागने का मार्ग किसने प्रशस्त किया।
इसी साल स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर कैग की एक रिपोर्ट में वीवीआइपी हेलिकॉप्टर में भी घपले के तथ्य सामने आए। रॉबर्ट वडरा के जमीन के सौदे को लेकर भी विवाद चल रहे हैं। उन पर आरोप है कि उन्होंने बहुत कम समय में जमीन की सौदेबाजी से सैकड़ों करोड़ रुपए की संपत्ति बनाई। हालांकि आज भ्रष्टाचार के हम्माम में कौन बचा हुआ है, कहना मुश्किल है। सुरेश कलमाडी, गोपाल कांडा, ए राजा, मधु कोड़ा, बाबू सिंह कुशवाहा जैसे नेता तो इस शृंखला में चंद नाम हैं। चिंताजनक यह है कि अगर हमारा समाज भी इस तरह के नेताओं के नक्शे-कदम पर चलने लगे तो हमारेलोकतंत्र के भविष्य का अंदाजा लगाने के लिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं है।
गौरतलब है कि करीब साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए की वीवीआइपी हेलिकॉप्टर खरीद में दलाली खाए जाने के आरोपों के संदर्भ में कैग की तेरह अगस्त को संसद में पेश की गई रिपोर्ट ने अनियमितताओं के लिए रक्षा मंत्रालय को कठघरे में खड़ा किया है और रक्षा-सामान की खरीद नीति के अनेक प्रावधानों के उल्लंघन के लिए मंत्रालय की जमकर खिंचाई की है। हालांकि इस सौदे की जांच सीबीआइ कर रही है और इटली में भी यह मामला अदालत में है। खुद रक्षामंत्री एके एंटनी मान चुके हैं कि इस सौदे में कुछ न कुछ गड़बड़ हुई। रक्षा मंत्रालय इस सौदे पर रोक लगा रहा है।
रक्षा सौदों में रिश्वतखोरी देश के खिलाफ युद्ध और देशद्रोह के अपराध से कम नहीं है। ऐसे मामले पहले भी सामने आ चुके हैं। मगर इसके लिए आज तक किसी भी नेता या उच्चस्तर के अधिकारी को दोषी नहीं ठहराया जा सका है। भारत में जहां भ्रष्टाचारी अपराध करके भी आसानी से बच निकलते हैं और खुले घूमते हैं, वहीं कुछ समय पहले चीन की एक अदालत ने वहां के पूर्व रेलमंत्री लियू झिजुन को भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग के मामले में मौत की सजा सुनाई थी। मृत्युदंड की वकालत तो नहीं की जा सकती, लेकिन भ्रष्टाचार के मामलों पर सरकारी और सामाजिक सहनशीलता पर जरूर सवाल उठाए जाने चाहिए।
सवाल है कि क्या हम अनैतिक हैं और इस तरह भ्रष्ट हैं? महात्मा गांधी की मान्यता थी कि राजनीति को उच्च मूल्यों और मानदंडों से परिचालित और शुचिता से अनुप्राणित होना चाहिए। लेकिन ‘नेशनल इलेक्शन वॉच’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक पांच सौ तैंतालीस लोकसभा सदस्यों में से एक सौ बासठ यानी तीस फीसद के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से छिहत्तर यानी चौदह फीसद पर गंभीर किस्म के अपराधों से संबंधित मुकदमे शामिल हैं। इसी तरह दो सौ बत्तीस राज्यसभा सदस्यों में से चालीस यानी सत्रह फीसद पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं। देश में एक हजार दो सौ अट्ठावन विधायकों के खिलाफ कई तरह के अपराधों के मुकदमे दर्ज हैं, जिनमें से तीन सौ चौदह पर गंभीर आरोप हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के कई मंत्री भी दागी हैं। 2004 के चुनावों से अब तक कांग्रेस के टिकट पर जो लोग विधायक और सांसद बने, उनमें से बाईस फीसद दागी हैं और इसी दौरान भाजपा के टिकट पर जो लोग विधायक और सांसद बने, उनमें से इकतीस फीसद ने अपने आपराधिक इतिहास का उल्लेख किया। इसके अलावा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल (एकी) और कई मामलों में वामदल भी दागी नेताओं के बचाव में खड़े दिखाई पड़ते हैं।
आज हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती नैतिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता की भारी कमी है। भ्रष्टाचार पर काबू पाने और इसे खत्म करने के लिए सबसे जरूरी है इच्छाशक्ति, जो आज केंद्र से लेकर किसी भी राज्य सरकार के भीतर नहीं दिखाई देती।
 

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/51754-2013-09-17-04-52-39


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