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न्यूज क्लिपिंग्स् | भ्रष्टाचार के रास्ते- कुमार प्रशांत

भ्रष्टाचार के रास्ते- कुमार प्रशांत

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published Published on Dec 13, 2011   modified Modified on Dec 13, 2011
जनसत्ता 13 दिसंबर, 2011:  जयप्रकाश नारायण ने 1974 में, जब वे कई सारे सवालों के साथ-साथ भ्रष्टाचार का भी सवाल उठा कर सारे देश में आंदोलन खड़ा करने में लगे थे, एक गहरा और मार्मिक लेख लिखा था। इसका शीर्षक था:‘क्या नैतिक ताने-बाने के बिना भी कोई देश बना रह सकता है?’ इसमें उन्होंने मुख्य रूप से दो बातें कही थीं। एक,भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की तरफ चलता है। सत्ता-संपत्ति-अधिकार की बड़ी कुर्सियों पर बैठे लोग क्या कर रहे हैं इसे देश देखता है और उसकी ही नकल करता है। इसलिए आप क्या और कैसे करते हैं इस बारे में आप सावधान रहें और आप क्या-कैसे करते हैं इस बारे में देश सावधान रहे! उनका मतलब यह था कि अपनी नैतिकता की पहरेदारी हर आदमी आप ही कर सकता है। और दूसरा यह कि इसकी सतत, सार्वजनिक निगरानी भी होती रहनी चाहिए। मतलब था कि प्रशासकीय मर्यादाएं साफ होनी चाहिए और उनका पालन होना चाहिए। कानूनी व्यवस्थाएं भी बननी चाहिए और उन्हें सक्रिय होना चाहिए। लोगों के स्तर पर सतत सावधानी और सक्रियता होनी चाहिए।
जेपी ने अपनी स्थापना का दूसरा हिस्सा इस तरह हमारे सामने रखा कि भ्रष्टाचार का सवाल अमुक मर्यादा के भीतर रहता है तो जरूर एक नैतिक सवाल है, और उसे मर्यादा के भीतर रखने के लिए संतों-सत्पुरुषों की भूमिका हमेशा जरूरी होती है। लेकिन जब भ्रष्टाचार सारी हदें तोड़ कर गरीब की रोटी में से हिस्सा निकालने लगता है, देश के विकास को ठोकर मार कर, अपनी जेब भरने लगता है, तब वह कोवल नैतिक समस्या नहीं रहता, उसका स्वरूप समाजद्रोही हो जाता है। फिर उसका मुकाबला व्यापक जनांदोलन से ही किया जा सकता है।
आज भ्रष्टाचार का जो रूप है वह समाजद्रोह की श्रेणी में पहुंच गया है। आलम ऐसा है कि जहां जो अधिकार की जिस कुर्सी पर बैठा है वह वहीं से देश को खोखला बनाने में जुटा है। मुंबई में हुआ आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला इसका आदर्श उदाहरण है। इस मामले की तहकीकात की सीएजी की रिपोर्ट नौ अगस्त 2011 को संसद में पेश की गई, जो अभी सार्वजनिक हुई है। रिपोर्ट कहती है कि यह घोटाला इस बात का उदाहरण है कि अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए सारे सामर्थ्यवान-शक्तिवान कैसे एकजुट हो जाते हैं। मुंबई के इस खास इलाके में अपना घर बना लेने के लिए इन लोगों ने दस्तावेजों से छेड़छाड़ की, तथ्यों को दबाने और पलटने में एक-दूसरे का साथ दिया, फौजियों और उनकी विधवाओं को सहारा देने की राष्ट्रीय भावना से शर्मनाक खिलवाड़ किया।
मुंबई का सबसे महंगा और धन्नासेठों का इलाका है कोलाबा, जो हिंद महासागर को छूता है। समुद्री सीमा होने के कारण यहां नौसेना के बडेÞ-बडेÞ प्रतिष्ठान हैं और इसे अत्यंत संवेदनशील इलाकों में शुमार किया गया है। यहीं जमीन का वह टुकड़ा भी है जिस पर आज आदर्श नाम की इकतीस मंजिला इमारत खड़ी है। यह जमीन नौसेना के अख्तियार में वर्षों से थी और कहते हैं ऐसा तय हुआ था कि करगिल युद्ध में जिन जवानों की जान गई या जो अपंग हो गए उनके और उनके परिजनों के रहने के लिए यहां घर बनाया जाएगा। फौज अपने लोगों के बारे में फिक्रमंद हो और उनकी भलाई के लिए अपनी जमीन-जायदाद का कानून-सम्मत इस्तेमाल करे, इसमें किसे आपत्ति हो सकती है! कई फाइलें, जो अब गायब हो चुकी हैं, ऐसा प्रमाण भी देती हैं कि फौज सही दिशा में जा रही थी।
दूसरी तरफ कानूनी दांव-पेच जानने वाले कह रहे हैं कि यह जमीन भले नौसेना के अख्तियार में रही हो लेकिन इस पर उसका मालिकाना हक नहीं था, क्योंकि ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है। वे यह नहीं बताते कि जिस जमीन पर फौज का मालिकाना नहीं था, वह जमीन उसके कब्जे में कैसे थी? और फिर यह भी कि जमीन-मकान आदि के मामले में यह बात बडेÞ महत्त्व की होती है कि वर्तमान में उस पर कब्जा किसका है! फिर मामला मुंबई का था, जहां सूई की नोक पर जितनी जमीन आती है वह भी सोने के भाव तोली जाती है!
इसलिए इस जमीन को अपनी मुट्ठी में करने के लिए सबसे जरूरी यह था कि फौज इस पर अपना अधिकार या कब्जा न दिखाए! यहीं से आदर्श की कहानी शुरू होती है और हम देखते हैं कि किस तरह सरकार, अधिकारी, फौजी-तंत्र और भूमाफिया सब एक हो जाते हैं और इस लूट में से अपना-अपना हिस्सा निकाल लेते हैं। आदर्श की पूरी कहानी बताती है कि जिसे हम सरकार कहते हैं, जिसे हम प्रशासन के नियम-कायदे कहते हैं, बगैर किसी भय और पक्षपात के राष्ट्र-हित में फैसला लेने के जिस अनुशासन को हम फौज का सर्वोपरि गुण मानते हैं, अदालत, जो टूट भले जाए लेकिन न्याय की कसौटी से अलग किसी दूसरी कसौटी को मानती ही नहीं है, आदि सब कितने खोखले शब्द भर रह जाते हैं जब भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार में बदल जाता है।
सबसे पहले फौज के ही एक अधिकारी का बेटा आदर्श सोसाइटी का प्रस्ताव लेकर सरकार के पास पहुंचता है। अब वह डेवलपर की भूमिका में है जिसके पीछे भू-माफिया के लोग खडेÞ हैं। यहीं से यह रास्ता निकाला जाता है कि जमीन भले फौज के अख्तियार में हो, उस पर उसका मालिकाना हक नहीं है! ऐसा साबित करना किसी के लिए आसान नहीं था। इसलिए फौजी अधिकारियों को साथ लिया गया और उनसे अनापत्ति प्रमाणपत्र हासिल किया गया। इसके एवज में उन सभी फौजी अधिकारियों को उस सोसाइटी में मकान दे दिए गए।
सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि मुंबई के नगर आयुक्त जयराज फाटक ने बगैर किसी नियम का अनुपालन किए इमारत की ऊंचाई बढ़ाने की अनुमति दे दी। अब पता   चल रहा है कि उनके बेटे को भी आदर्श में एक घर मिला है। मुंबई के सिटी कलेक्टर प्रदीप व्यास ने आदर्श से जुडेÞ कई गलत, गैर-कानूनी दस्तावेजों को स्वीकृति दे दी और एक झटके में आदर्श के इकहत्तर सदस्यों को वैध करार दिया जिनमें उनकी पत्नी भी शामिल हैं। तब के प्रधान सचिव रामानंद तिवारी ने आदर्श के पास की सड़क की चौड़ाई कम करने और सरकारी बस सेवा के डिपो की जमीन का अतिरिक्त इस्तेमाल करने की अनुमति दी और अब पता चलता है कि उनके बेटे के पास भी आदर्श में एक फ्लैट है।
फिर आते हैं तब के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के सचिव सुभाष लाला। लाला साहब न होते तो आदर्श ऐसी आदर्श स्थिति में न होता। उन्होंने कागजी घोड़े दौड़ा कर (या उन्हें खूंटे से बांध कर!) आदर्श के रास्ते से वे सारी बाधाएं दूर कीं जो किसी भी अवैध निर्माण को रोकने के लिए बनाई गई हैं। लाला साहब की मां और बेटी को भी आदर्श में एक-एक घर मिला हुआ है। शहरी विकास के सचिव पीवी देशमुख ने यह प्रमाणपत्र दिया कि आदर्श को पर्यावरण-आपत्तियों से छुटकारा मिला हुआ है, जबकि सच्चाई इसके विपरीत थी। देशमुख आदर्श सोसाइटी के एक सदस्य हैं।
आदर्श का मामला जैसे ही उभरा, सब अपनी गर्दन बचाने में लग गए और सबने पाया कि यहां मामला एक-दूसरे की गर्दन बचाने से ही संभलेगा। इसलिए मुख्यमंत्री चव्हाण की बलि चढ़ाने के बाद उन सारे कागजातों की बलि चढ़ाई जाने लगी जिनकी उपस्थिति खतरनाक हो सकती थी। शहरी विकास विभाग के पास आदर्श से जुड़ी कोई फाइल है ही नहीं।
इसी का आधार लिया जाए तो कहा जा सकता है कि मुंबई की धरती पर आदर्श नाम की कोई ऐसी इमारत बन रही है, बनी है, इसका कोई पता शहरी विकास विभाग को था ही नहीं! पर्यावरण और वन विभाग से भी आदर्श से जुडेÞ सारे कागजात गायब हैं, जैसे जंगल में लगी आग में चुन-चुन कर वे ही सारे कागजात जले कि जिनका आदर्श से कोई संबंध था! फौज मुख्यालय में भी इससे संबंधित कोई कागजात नहीं है कि यह जमीन कब, कैसे और किस आधार पर फौज के पास आई थी।
कई फौजी अधिकारी कह चुके हैं कि इस जमीन से फौज का कोई लेना-देना है ही नहीं। लेकिन कोई इस बात का जवाब नहीं देता कि जिस जमीन से आपका कोई लेना-देना था ही नहीं, उसके बारे में अनापत्ति प्रमाणपत्र फौज ने क्यों जारी किया? इतना ही नहीं, जब सीबीआई ने मामले की जांच शुरू की तो उसने भी इन जैसे बड़े अधिकारियों को छोड़ कर, छोटे क्लर्कों आदि को गिरफ्तार करना शुरू किया। परदे के पीछे कहानी आज भी चलती है कि आदर्श को पकड़ने की आदर्श योजना बनी होती तो मुंबई में भी एक तिहाड़ जेल बन जाती!
फौज अगर अपने विभाग के कागजात की रक्षा नहीं कर सकती तो उससे किसकी रक्षा की अपेक्षा रखी जाए? ऐतिहासिक सर्वे के नक्शों की बेहतर रक्षा की जाती है क्योंकि वे ही हमारे नगरों की कुंडली बनाते हैं। 1847 से 1882 तक के नक्शे विभाग के पास सुरक्षित हैं।
मगर जब आप उसमें आदर्श को खोजने बैठेंगे तो पाएंगे कि बीच-बीच में से वे सारे नक्शे गायब हैं जिनसे आदर्श के सफर की कहानी मिल सकती थी। क्या यह सब संयोग मात्र है? कहते हैं कि 2006 में आदर्श से जुड़ी तीस फाइलें विभाग के गोदाम से निकाल कर, पर्यावरण विभाग के पास पहुंचाई गर्इं। किसने पहुंचार्इं और किसके आदेश से? जवाब नदारद है। कहीं यह भी दर्ज नहीं है कि ऐसा हुआ, जबकि किसी भी कागजात को हटाने या खत्म करने को भी दर्ज करना पड़ता है।
सीएजी की रिपोर्ट कहती है कि सुशील कुमार शिंदे और विलासराव देशमुख के मुख्यमंत्रित्व काल में इस मामले में सबसे ज्यादा गड़बड़ी हुई। और हम देखते हैं कि दोनों ही केंद्र सरकार में खासा रसूख रखते हैं और इनकी निगाहें कहीं ऊपर की कुर्सियों पर लगी हैं। यह एक घोटाला है- एकमात्र नहीं! मुंबई प्रशासन का सारा तंत्र ऐसी ही बंदरबांट में सांस लेता है। यह उस राज्य की सरकार है जिसे देश में सबसे पटु सरकारओं में गिना जाता है और कहा जाता है कि इसकी पुलिस सबसे सक्षम पुलिस है। लेकिन सीएजी की सुनें तो इनमें से अधिकांश किसी भी तरह न तो कार्यपटु हैं और न जांबाज। अब आप हिसाब लगाएं कि हमारे यहां भ्रष्टाचार जिस जगह पहुंचा है, क्या वह नैतिकता के प्रवचनों से काबू में आएगा?
क्या जयप्रकाश नारायण की बात सौ फीसद सही नहीं लगती कि यह भ्रष्टाचार देश की आत्मा को कुतर-कुतर कर नहीं, कच्चा चबा-चबा कर खा रहा है। एक आत्माहीन देश न अपना भविष्य बना सकता है और न वर्तमान। इसलिए न कानून न कानून के तथाकथित पालक इसे काबू में ला सकते हैं। जागृत, संगठित और सक्रिय नागरिकों की गांव-नगर के स्तर पर बनी समितियां ही सारे अधिकार समेट कर काम करेंगी तो इसे काबू कर पाएंगी। इसे काबू में करने का मतलब है राजनीति, अर्थनीति और सामाजिक संरचना का नया स्वरूप बनाना और उसे संकल्पपूर्वक लागू करना।
 

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/6382-2011-12-13-04-51-56


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