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न्यूज क्लिपिंग्स् | मंदी की आहट- परंजय गुहाठाकुर्ता

मंदी की आहट- परंजय गुहाठाकुर्ता

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published Published on Dec 14, 2011   modified Modified on Dec 14, 2011

देश की अर्थव्यवस्था जिस तेजी से नीचे जा रही है, उसके कई निहितार्थ हैं। अभी डॉलर के मुकाबले रुपया रिकॉर्ड गिरावट तक पहुंच गया है। गिरते-गिरते रुपया पहली बार ५३ के स्तर तक पहुंचा है। औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक (आईआईपी) भी गिरकर अक्तूबर में -५.१ प्रतिशत पर आ गया है। औद्योगिक उत्पादन में शामिल सभी क्षेत्रों में कमोबेश गिरावट देखी गई है। इतना ही नहीं, इस वर्ष देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सात फीसदी के आसपास है, जिसके बढ़ने की संभावना कम है। हालांकि सरकार इसके साढ़े सात फीसदी होने का दावा कर रही है। जबकि यही जीडीपी पिछले वर्ष नौ प्रतिशत के आसपास पहुंच गया था। शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक भी १६ हजार के नीचे है, जबकि जनवरी, २००८ में यह २१ हजार था।

इन सारी गिरावटों को समग्र रूप में देखें, तो डरावनी तसवीर उभरती है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में आई गिरावट के कारण हमारे यहां यह स्थिति आई है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था २००८ की मंदी से अब तक उबर नहीं पाई है। साथ ही, पिछले करीब एक वर्ष से यूरो की ताकत भी कमजोर हुई है। रुपये में आ रही लगातार गिरावट का यह मतलब नहीं है कि यह कमजोर हो गया है, बल्कि इसका आशय यह है कि डॉलर की ताकत बढ़ गई है। असल में वैश्विक मंदी का सबसे बुरा प्रभाव यूरो जोन पर पड़ा है, जिस वजह से यूरो दिनोंदिन कमजोर हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोग यूरो में निवेश नहीं कर रहे और उसके बजाय डॉलर को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं। इससे अमेरिका की आर्थिक स्थिति तो बेहतर नहीं हुई, उलटे यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था जरूर बदतर हो गई।

चूंकि यह सारी पृष्ठभूमि वैश्विक स्तर पर तैयार हो रही है, लिहाजा इसे संभालने में हमारी सरकार लाचार दिख रही है। वह मुद्रा भंडार को भी हाथ लगाने से डर रही है, क्योंकि १९९१ के दुःस्वप्न से अब तक वह उबर नहीं पाई है। अभी हमारा विदेशी मुद्रा भंडार भले ही ३०६ अरब अमेरिकी डॉलर का हो, पर १९९१ के जनवरी में यह दो अरब अमेरिकी डॉलर और जून तक आते-आते इतना कम हो गया था कि तब महज तीन हफ्ते का आयात मूल्य ही हमारे पास बचा था। लिहाजा उस संकट से सबक लेते हुए सरकार विदेशी मुद्रा भंडार को खर्च करने से बचती रही है।

कोशिश मुद्रास्फीति को संभालने की भी हो रही है। पर मुद्रास्फीति कम होने का मतलब यह कतई नहीं मानना चाहिए कि खाद्यान्नों के मूल्यों में कमी होगी। असल में इसके पीछे दूसरा गणित काम करता है। जब हम देखते हैं कि मुद्रास्फीति अनुकूल है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह नहीं बढ़ रही। वह तब भी बढ़ रही होती है, पर उसकी रफ्तार कम होती है। लिहाजा इसका प्रभाव महंगाई पर पड़ता है। महंगाई बढ़ने की एक और वजह निर्यात से ज्यादा आयात पर जोर देना है। पेट्रो पदार्थों का ही उदाहरण लें, तो ८० फीसदी से ज्यादा कच्चा तेल हम विदेशों से आयात करते हैं। इन तेलों की खरीदारी डॉलर में होती है, जबकि उसे रुपये में बेचना होता है। इस तरह तेल खरीद में ज्यादा रुपये हम खर्च करते हैं, तो स्वाभाविक है कि इससे अपने यहां की मुद्रास्फीति बढ़ेगी ही।

हालांकि पिछले डेढ़-दो वर्षों में रिजर्व बैंक महंगाई थामने की कोशिश में लगा है। उसने विभिन्न मौकों पर १३ बार अपनी ब्याज दरें बढ़ाईं। हालांकि इसकी आलोचना की गई है, पर इसका सकारात्मक प्रभाव हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव का यह कहना सही है कि अगर रिवर्स और रेपो रेट नहीं बढ़ाई जाती, तो मुद्रास्फीति और बढ़ती। हां, ऐसी मौद्रिक कवायद दोधारी तलवार की तरह जरूर होती है, क्योंकि जब दर बढ़ती है, तो औद्योगिक घराने ऋण लेना बंद कर देते हैं। औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में जो गिरावट अभी देखी जा रही है, उसकी एक बड़ी वजह ब्याज दरों में की गई बढ़ोतरी है। पर जब आप समग्रता में नीति बनाते हैं, तो आम लोगों के हितों का पोषण पहले करना होता है। आगामी फरवरी में बजट पेश होगा। निश्चय ही बढ़ रहे वित्तीय घाटे को पाटने की गंभीर कवायद नहीं हुई, तो वह आगे और बढ़ेगी ही।

कुछ अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) लागू करने का यह सही वक्त था। इससे हमारी अर्थव्यवस्था में डॉलर का प्रवाह तेज होता। पर ऐसे तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि विदेशी अर्थव्यवस्था के भरोसे हम अपनी देसी अर्थव्यवस्था को नहीं सुधार सकते। इसके लिए बेहतर अर्थनीति बनानी जरूरी है। वॉलमार्ट जैसी कंपनी स्थानीय बाजार को कितना लाभ पहुंचा पाएगी? कटु सत्य तो यह है कि वर्तमान आर्थिक संकट से निपटने का कोई ठोस उपाय सरकार के पास नहीं है।

ऐसा नहीं है कि नीतियों का अभाव है, बल्कि इच्छाशक्ति की कमी है। यह समस्या इसलिए गंभीर है, क्योंकि वर्तमान संकट वैश्विक अर्थव्यवस्था की देन है। इसलिए मौजूदा कठिन दौर में ज्यादा जरूरी यह है कि हम विदेशी निवेश को भूल जाएं और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर ज्यादा ध्यान दें। चूंकि हमारी अर्थव्यवस्था विशाल है, ऐसे में इसे सुधारकर भी हम अपनी विकास दर को बेहतर स्थिति में रख सकते हैं। सुधार मनरेगा जैसी योजनाओं में भी होनी चाहिए, ताकि आम लोगों की असल आय बढ़े। भ्रष्टाचार से निपटकर और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर हम इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। सवाल है कि क्या सरकार इस दिशा में तनिक भी गंभीर है।


http://www.amarujala.com/Vichaar/VichaarColDetail.aspx?nid=375&tp=b&Secid=44


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