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न्यूज क्लिपिंग्स् | महिला उद्यमियों की राह में पुरुषवादी नजरिये की बाधा

महिला उद्यमियों की राह में पुरुषवादी नजरिये की बाधा

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published Published on Dec 6, 2017   modified Modified on Dec 6, 2017
वुमेन फस्र्ट, प्रॉस्पेरिटी फॉर ऑल' विषय पर हैदराबाद में होने वाले आठवें ग्लोबल इंटरप्रिन्योरशिप सम्मेलन से ठीक पहले ‘कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी' की एक रिपोर्ट में महिला उद्यमियों की वैश्विक स्तर पर स्थिति की विस्तार से चर्चा दिखती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि ‘महिलाओं के साथ बिल्कुल अलग ही तरह का बर्ताव होता है। पुरुष निवेशक उनके प्रोजेक्ट में बहुत कम रुचि दिखाते हैं।' इस मामले में वैश्विक स्तर पर कमोबेश समानता दिखती है। रिपोर्ट के मुताबिक, स्टार्ट अप की मदद करने वाले 90 प्रतिशत निवेशक पुरुष हैं, जिसका असर यह है कि महज 13.5 प्रतिशत महिलाओं की कंपनियों को ही निवेश मिल पाता है। अगर भारत में ही महिला उद्यमियों की बात की जाए, तो देश के कुल उद्यमियों में महिलाओं की संख्या मात्र 14 प्रतिशत है और इनमें से भी 7.9 प्रतिशत वैसी महिलाएं हैं, जो अपने संसाधन स्वयं जुटा सकने में समर्थ हैं, यानी वे स्ववित्त पोषित हैं और मात्र 4.4 प्रतिशत महिलाओं को अपना कारोबार शुरू करने के लिए विभिन्न संस्थानों या सरकारी बैंकों से वित्तीय सहायता मिल सकी।


नहीं भूलना चाहिए कि महिला सशक्तीकरण की अवधारणा का सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण आयाम ‘आर्थिक आत्मनिर्भरता' है। पितृ-सत्तात्मक भारतीय समाज आज भी महिलाओं की क्षमताओं को लेकर, उनकी आत्मनिर्भरता के सवाल पर पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। स्त्री की कार्यक्षमता और कार्यदक्षता को लेकर तो वह इस कदर सशंकित है कि नवाचार को लेकर उनके किसी भी प्रयास को वह हतोत्साहित करता दिखता है। देश के आम से लेकर खास व्यक्ति तक लगभग सभी में यह दृष्टिकोण व्याप्त है कि स्त्री का दायरा यूं तो घर की चारदीवारी ही होना चाहिए और अगर इसमें स्वयं को स्वतंत्र व आधुनिक विचारों का पैरोकार सिद्ध करने के लिए वे छूट देने की सोचते हैं, तो उस दायरे का विस्तार पापड़ या अचार जैसे घरेलू कार्यों से आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने तक हो पाता है। यहां तक कि विभिन्न सरकारी नीतियों के बावजूद उन्हें विभिन्न बैंकों और संस्थाओं से ऋण भी सहजता से उपलब्ध नहीं हो पाता।


व्यवसाय के संचालन में महिलाएं भले ही समान रूप से सक्षम हों, लेकिन महिला उद्यमी बनने की उनकी राह में आज भी तमाम सामाजिक और सांस्कृतिक अड़चनें हैं। इनमें सबसे प्रमुख कारण न सिर्फ भारत, बल्कि पूरे विश्व में पुरुष आधिपत्य वाले कॉरपोरेट परिदृश्य का परंपरागत विचारधारा का पोषक होना है। महिलाओं के नेतृत्व, उनकी प्रबंधन क्षमता एवं निवेश की समझ कम होने के तमाम तर्क विभिन्न शोधों व अध्ययनों के माध्यम से बार-बार गलत साबित हो रहे हैं। इस दिशा में हाल ही में किया गया एक सर्वेक्षण खासा उत्साहवद्र्धक नतीजे दिखाता है। देश में 3,100 से ज्यादा महिला और पुरुषों पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि महिलाएं पारदर्शिता, सहानुभूति और समस्या सुलझाने के मामले में पुरुषों से कहीं ज्यादा आगे होती हैं। उनमें सोच की रचनात्मकता भी पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा होती है। ऐसे में, अगर इन तमाम खूबियों के बावजूद महिलाएं ‘स्टार्ट अप' के लिए संघर्ष कर रही हैं, तो तय है कि उनके ऊपर सामाजिक और सांस्कृतिक पाबंदियों के दायरे बहुत विस्तार से फैले हुए हैं। नैसकॉम स्टार्ट अप रिपोर्ट 2016 में बताया गया है कि कुल स्टार्ट अप में से केवल नौ प्रतिशत स्टार्ट अप औरतों के हिस्से में आते हैं। रिपोर्ट से स्पष्ट है कि महिलाओं को केंद्र सरकार की वित्तीय योजनाओं का लाभ सही तरीके से नहीं मिल पा रहा है।


अंतरराष्ट्रीय वित्त आयोग की एक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि लघु, छोटे और मंझोले उद्योगों में महिला उद्यमियों की पूंजीगत जरूरतों को पूरी करने में 6.37 लाख करोड़ की वित्तीय खाई है। महिलाओं के नेतृत्व वाले वित्तीय संस्थानों में भी महिला निवेशकों के प्रति उदार दृष्टिकोण का अभाव है। विभिन्न अध्ययनों में कहा गया है कि अगर देश में महिला उद्यमियों की राह की बाधाओं को दूर करना है, तो बैंक खातों तक उनकी पहुंच को आसान बनाना होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात जागरूकता, प्रोत्साहन देने वाला नजरिया और मूल्य व्यवस्था में जमीनी बदलाव है, जिसके लिए सबको सोचना होगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/nazariya/story-nazariya-column-of-hindustan-hindi-newspaper-27th-of-november-2017-1666444.html


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