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न्यूज क्लिपिंग्स् | महिला सरपंचों की कठिन राह-- ऋतु सारस्वत

महिला सरपंचों की कठिन राह-- ऋतु सारस्वत

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published Published on Dec 11, 2017   modified Modified on Dec 11, 2017
हाल में महिला एवं बाल कल्याण मंत्री ने पचायती राज संस्थाओं की निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों और प्रशिक्षकों के लिए सघन प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए कहा ‘प्रशिक्षण के बाद निर्वाचित महिला सरपंच गांव का प्रशासन पेशेवर तरीके से चलाने में सक्षम होंगी। यह खेदजनक है कि अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए कई महिला प्रतिनिधि सामने नहीं आतीं और अपने पतियों को आगे कर देती हैं। इससे वे नाममात्र की सरपंच रह जाती हैं।' उन्होंने सरपंचों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता के संबंध में राज्यों को पत्र लिखने की बात भी कही। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में राजस्थान और हरियाणा में सरपंच के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता का नियम लागू है। यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि महिला सरपंचों के प्रशिक्षण की आवश्यकता क्यों है? इस संबंध में ‘सोसायटी फॉर पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया' का अध्ययन उल्लेखनीय है। अध्ययन के लिए गुजरात, हरियाणा, मध्यप्रदेश, केरल और उत्तर प्रदेश से एकत्रित किए गए आंकड़ों के मुताबिक ग्राम पंचायतों की अधिकतम महिला सदस्यों की आयु बीस से चालीस वर्ष के बीच है, जिनमें से लगभग नब्बे प्रतिशत चुनी गई महिलाओं को पहले से कोई राजनैतिक अनुभव नहीं है। आंकड़ों से परे, सच यह भी है कि पुरुषसत्तात्मक समाज में महिलाओं का दायरा घर की चारदीवारी के भीतर सुनिश्चित किया गया और इसे पुरानी बात कह कर झुठलाया नहीं जा सकता। महिला सरपंचों की कहानियां, हमें यह विश्वास जरूर दिलाती हैं कि राजनीति के प्रथम पायदान पर मिला ‘आरक्षण' महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक सार्थक व ठोस कदम था, पर क्या यह भरोसे से कहा जा सकता है कि देश भर की लगभग एक लाख महिला सरपंच अपने अधिकारों का वास्तविक रूप से प्रयोग कर पा रही हैं?


महिला सरपंच के अधिकारों और उनके वास्तविक प्रयोग पर देश में कोई विशेष अध्ययन नहीं हुए हैं, पर कुछ उदाहरण इस हकीकत को उजागर कर सकते हैं कि कुछ महिला सरपंचों के अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए तो आज भी वास्तविक सत्ता ‘सरपंच पतियों' के हाथ है। 2015 में उत्तर प्रदेश में संपन्न हुए ग्राम प्रधान चुनावों में 44 प्रतिशत पदों पर महिलाओं ने कब्जा किया। उनकी यह सफलता एकबारगी यह विश्वास दिलाने में सफल रही कि समाज बदल रहा है। पर यह भ्रम लंबे समय तक टिका नहीं रह पाया। दिसंबर 2015 के आखिरी सप्ताह में मेरठ (उ.प्र.) में पहली खुली बैठक आयोजित की गई। बैठक में गांवों के विकास के लिए छह समितियों का गठन किया गया, तमाम तरह के रखे प्रस्तावों पर चर्चा की गई। लेकिन इन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि बैठक में महिला प्रधानों के पतियों का कब्जा रहा। बैठक की सारी प्रक्रिया निगरानी करने वाले प्रधानों के बिना ही पूरी हो गई। जसउ, बिवाई, हरी, पांचली, पिडोलकर में महिला प्रधानों को बैठक में बुलाया तक नहीं गया।


कुछ इसी तरह की घटना मध्यप्रदेश के शुलालपुर के हन्नूखेड़ी में हुई, जहां 2015 में निर्वाचित महिला सरपंच की जगह उसके पति ने शपथ ली। यही नहीं, पड़ोसी गांव पगरावदकलां में भी शपथ पुरुषों ने ही ली। हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में स्त्री की सफलता के ‘मानक' एक सफल गृहिणी, समर्पित पत्नी और मां होना है। इससे इतर, उसकी स्वयं की आकांक्षा कोई मायने नहीं रखती। घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर सामान्य कार्य करना भी जब भारतीय महिला के लिए एक चुनौती है तो यह सहज कल्पनीय है कि राजनीति में अपनी जगह बनाना उसके लिए कितना मुश्किल होगा। इसमें तनिक संदेह नहीं कि अगर संविधान ने पंचायत में महिलाओं को ‘आरक्षण' नहीं दिया होता तो उनके लिए इस ओर कदम रखना सहज नहीं था। ताकत को ‘पुरुषत्व' से जोड़ कर देखने वाली मानसिकता किसी भी रूप में स्त्री का वर्चस्व स्वीकार करने को तैयार नहीं होेती। ‘आरक्षण' के कारण पुरुषों को हालांकि प्रत्यक्ष रूप से सत्ता का एक भाग छोड़ने पर विवश होना पड़ा, पर परोक्ष रूप से आज भी वे अपना आधिपत्य बनाए रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इसकी बानगी भोपाल, खुरईक्षेत्र की सरपंच के वक्तव्य में देखी जा सकती है, ‘मेरे पति मुझसे कहते हैं, सरपंच बनने से कुछ नहीं होता। तुम्हारा काम घर संभालना है। रोटी बनाओ। रही बात, पंचायत के काम-काज की, तो उसके लिए मैं हूं ना...।' ‘महिलाओं को राजनीति की समझ नहीं होती है' यह सोच रखने वाले लोगों की जमात, इस सच को निरंतर झुठलाने का प्रयास करती है कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक संवेदनशील, बेहतर प्रबंधक और दूरदर्शी होती हैं।


‘अगर हम घर चला सकती हैं तो पंचायत क्यों नहीं?' यह प्रश्न 1963 से 1968 तक की अवधि में सरपंच रहीं पुणे जिले की कमला बाई काकड़े ने अपने सहयोगी से पूछा था। काकड़े के प्रश्न में त्वरित प्रत्युत्तर यह आ सकता है कि घर चलाना और राजनीति करना नितांत दो अलग बातें हैं। इसमें संदेह नहीं कि राजनीति एक जटिल क्षेत्र है, पर जटिलता सहज हो जाती है जब उससे संबंधित कार्यप्रणाली और कार्य व्यवस्थाओं का उचित प्रशिक्षण प्राप्त हो। अमूमन यह देखने में आता है कि प्रशिक्षण के नाम पर खानापूर्ति की जाती है। बिहार की वीणा देवी की जीवन कथा में यह सच सामने आता है, ‘क्या राज्य सरकार ने कोई ट्रेनिंग का आयोजन नहीं किया, उन महिलाओं के लिए जो ग्राम स्वराज्य की राजनीति में पहली बार चुनी गयी थीं?ह्ण' ‘किया क्यों नहीं, लेकिन दस मिनट की ट्रेनिंग में क्या समझते? उन्हें एक दिन के लिए पटना बुलाया गया था, बस का किराया दिया और रजिस्टर में दस्तखत कराए गए कि वे लोग ट्रेनिंग के लिए आई थीं। लेकिन हकीकत में उन्हें कुछ सिखाया, बताया नहीं गया।'


सच किसी हद तक यह भी है कि सुदूर इलाकों में प्रशिक्षण के नाम पर खानापूर्ति की जाती है। अगर महिलाओं को ईमानदारी से प्रशिक्षण दिया जाए तो वे अपना सर्वश्रेष्ठ देंगी। 2007-08 में प्रकाशित ‘द स्टेट आॅफ पंचायत्स' नामक रिपोर्ट बताती है कि ‘बेहतर प्रशिक्षण, निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के कार्य प्रदर्शन में एक प्रमुख तत्त्व के रूप में उभर कर सामने आया है। जिन महिलाओं ने प्रशिक्षण लिया है उन्होंने अपने क्षेत्र में बेहतर कार्य का प्रदर्शन किया।' इस रिपोर्ट में इस बात की सिफारिश की गई थी कि ‘न केवल निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए इसे अनिवार्य किया जाए। इसका बहुपक्षीय विस्तार हो जिसमें नियम-विनियम, बजट एवं वित्त और विकास योजनाओं का कार्यान्वयन भी हो।' क्षमता-विकास प्रशिक्षण के लिए मुख्य तर्क है। मौजूदा सामाजिक असमानताओं के मद््देनजर यह जरूरी है कि महिलाओं को पिछड़ेपन से लड़ने के लिए सहायता दी जाए। यूनीसेफ की एक रिपोर्ट स्पष्ट उल्लेख करती है कि ‘महिलाओं की प्राथमिकताएं पुरुषों से अलग होती हैं और राजनीति में प्रवेश करने के पीछे महिलाओं का दायरा पुरुषों से अक्सर भिन्न होता है। चालीस प्रतिशत महिलाएं सामाजिक कार्य में दिलचस्पी के कारण राजनीति में आर्इं। वे पुरुषों की तरह दलीय राजनीति के परंपरागत रास्ते से नहीं आई हैं।ह्ण ऐसे में यह और जरूरी हो जाता है कि महिलाओं को स्थानीय प्रशासन के गुर सिखाए जाएं। निर्माण कार्यों की परख के लिए इंजीनियरिंग कौशल की जानकारी दी जाए। यह सब करना तब और सहज हो जाता है, जब सरपंच शिक्षित हो। शिक्षित व्यक्ति, अशिक्षित की अपेक्षाकृत कहीं तीव्र गति से तथ्यों को समझता है। आरक्षण की अनिवार्यता ने महिलाओं की स्थिति में सुधार किया है, और शिक्षा की अनिवार्यता, महिलाओं की स्थिति में गुणात्मक रूप से सुधार करेगी और वे अधिक प्रभावी तथा सक्रिय रूप से काम करेंगी।


https://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/jansatta-article-about-birth-ration-of-girls/513792/


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