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न्यूज क्लिपिंग्स् | महिला सशक्तिकरण का यक्ष प्रश्न- डॉ. ऋतु सारस्वत

महिला सशक्तिकरण का यक्ष प्रश्न- डॉ. ऋतु सारस्वत

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published Published on Mar 8, 2011   modified Modified on Mar 8, 2011

नई दिल्ली [डॉ. ऋतु सारस्वत]। भारत अपनी स्वतंत्रता के छह दशक बिता चुका है और इन वर्षो में भारत में बहुत कुछ बदला है। विश्व के सबसे मजबूत गणतंत्र में सभी को अपनी इच्छा से जीने, सोचने और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता मिली है, जिसका हम उपभोग भी कर रहे हैं।

हालाकि एक वर्ग ऐसा भी है जो आज भी इस सुखानुभूति से वंचित है और वह हैं स्त्रिया। स्त्री और पुरुष के बीच भेद आज भी कायम है और यह तथ्य आकड़ों से उद्घाटित होता है जो विभिन्न सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों द्वारा समय-समय पर किए गए सर्वेक्षणों पर आधारित है।

एसोचैम की रिपोर्ट बताती है कि भारतीय महिलाएं घर और दफ्तर दोनों ही जगह भेदभाव का शिकार हैं। काम के बढि़या अवसर तो दूर उन्हें पदोन्नति के समान अवसर तक नहीं मिलते, जिस कारण वह उच्च पदों पर नहीं पहुंच पाती हैं। महज 3.3 प्रतिशत महिलाएं ही शीर्ष पदों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं।

भारत में महिला आर्थिक गतिविधि दर केवल 42.5 प्रतिशत है, जबकि नार्वे में यह 60.3 प्रतिशत और चीन में 72.4 प्रतिशत है। यह आकड़े बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़ी आर्थिक गतिविधियों के हैं। विश्व के कुल उत्पादन में लगभग 160 खरब डॉलर का योगदान अदृश्य सेवा का होता है, इसमें भारतीय महिलाओं का योगदान काफी बड़ा है। इसके बावजूद समाज के आर्थिक वर्गो की गणना करते हुए घरेलू महिलाओं के श्रम का उचित मूल्याकन नहीं हो पाता और उनकी तुलना नगण्य माने जाने वाले पेशों के तहत होती है।

देश के नीति-निर्धारकों की ओर से आर्थिक वर्गाीकरण करते हुए देश की आधी आबादी को इस दृष्टिकोण से देखा जाना न केवल उनके श्रम की गरिमा के प्रति घोर असंवेदनशीलता का परिचायक है, बल्कि यह भेदभाव और लैंगिक पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा है।

विगत दो दशक में महिला सशक्तीकरण की अवधारणा ने जोर पकड़ा है। यह वह प्रक्रिया है जो महिलाओं को सत्ता की कार्यशैली समझने की न केवल समझ देता है अपितु सत्ता के स्त्रोतों पर नियंत्रण कर सकने की क्षमता भी प्रदान करता है। सामाजिक विकास अंतर्निहित रूप से राजनीतिक होता है, इसलिए यदि यह असमानतापूर्ण और गैर सहभागितापूर्ण हो तो इससे समाज का विकास प्रभावित होगा।

इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन के अनुसार विभिन्न देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व वहा की संसद में भारत की अपेक्षा बहुत अधिक है। यूं तो पंचायत और शहरी निकायों के माध्यम से विकास प्रक्रियाओं एवं निर्णयन की प्रक्त्रिया में सहभागिता बढ़ाने के लिए पचास प्रतिशत सीटें आरक्षित की गई है।

हालाकि अध्ययन बताते हैं कि सत्ता का उपभोग वास्तविक रूप में पदासीन महिलाओं की बजाय उनके परिवार के पुरुष सदस्य करते हैं। यदि कभी ऐसा नहीं होता तो उसके घातक परिणाम भी देखने में आए हैं। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में एक महिला सरपंच को पूर्व सरपंच तथा उसके साथियों ने बस स्टैंड पर नग्न करके मात्र इसलिए पीटा कि, क्योंकि कार्यभार संभालने के एवज में उसने पंचायत फंड से सात हजार रुपये नहीं दिए।

देश का संविधान, विभिन्न कानूनी प्रावधान और व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयास स्त्री को उबारने में लगे हैं, लेकिन महिलाओं की परेशानिया कम नहीं हो रही हैं। देश में शायद ही कोई ऐसी जगह हो जहा महिलाएं स्वयं को सुरक्षित महसूस करती हों। बस, ट्रेन, ऑफिस, स्कूल-कॉलेज अथवा भीड़भाड़ वाले स्थानों से लेकर सुनसान रास्तों में फब्तिया कसने, घूरने, छेड़छाड़ आदि की घटनाएं आम हैं। सन 2009 में बलात्कार के 21 हजार मुकदमे दर्ज हुए। इनमें से 15 से 17 वर्ष वाली लड़कियों का प्रतिशत 12 फीसदी रहा तो उनसे छोटी लड़कियों की तादाद 29 प्रतिशत रही।

हाल में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार पिछले वर्ष, हर तीन में से दो महिलाएं यौन हिंसा का शिकार हुई। आकड़े बताते हैं कि लड़किया और स्त्रिया बाहर की तरह अपने घरों में भी असुरक्षित हैं। पति और रिश्तेदारों द्वारा होने वाले अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। महिलाओं पर हो रही घरेलू हिंसा के आकड़े जितने लंबे-चौड़े हैं उतने ही डरावने भी।

उत्पीड़न, प्रताड़नाओं और अवहेलनाओं के कंटीले तारों से बींधता भारतीय स्त्री का जीवन इस धरा पर आने के लिए भी संघर्ष करता है। जन्म से पूर्व ही लिंग के प्रति भेदभाव आरंभ हो जाता है। भारत में बालिका भू्रणहत्या के संदर्भ में नोबेल पुरस्कार विजेता अम‌र्त्य सेन ने इस चिंता से सहमति जताई है कि इस कुप्रथा के चलते देश में ढाई करोड़ बच्चिया जन्म से पूर्व ही गुम हो गई।

यही नहीं, डब्ल्यूईएफ ने बच्चियों के स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा के आकड़ों के हिसाब से भी पुरुष-महिला समानता की सूची में इन्हें निचले पायदान पर पाया है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य और जीवित रहने जैसे मसलों में पुरुष और महिलाओं के बीच लगातार अंतर बना हुआ है।

भारत में महिला संवेदी सूचकाक लगभग 0.5 है जो कि स्पष्ट करता है कि महिलाएं मानव विकास की उपलब्धियों से दोहरे तौर पर वंचित हैं। विकसित देशों में प्रति लाख प्रसव पर 16-17 की मातृत्व मृत्युदर की तुलना में भारत में 540 की मातृत्व मृत्युदर, स्वास्थ्य रक्षा और पोषक आहार सुविधाओं में ढाचागात कमियों की ओर इशारा करती है।

जीवन के मूलभूत अधिकारों से वंचित देश की महिलाएं अनवरत रूप से असमानताओं के दंश झेल रही है। भारतीय महिलाओं में साक्षरता की कमी है सामंती समाज येन-केन प्रकारेण महिलाओं के अधिकारों का हनन परंपराओं के नाम पर करता है। यह विश्व के सबसे बड़े लोकतात्रिक देश को ऐसे कटघरे में ला खड़ा करता है जहा उसके पास मानवता के हनन को रोकने का कोई उत्तर नहीं है। जब स्त्रिया आगे बढ़ती हैं तो परिवार आगे बढ़ता है, गाव आगे बढ़ता है और राष्ट्र अग्रसर होता है। पर क्या हम वाकई इस तथ्य को आत्मसात कर पाए हैं या फिर स्त्री सशक्तीकरण की नियति महिला दिवस पर चर्चाओं और नारेबाजी तक सीमित हो गई है।

वैलेंटाइन डे बन रहा है महिला दिवस

शबाना आजमी। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के आस-पास अखबार, मैगजीन और होर्डिग्स पर तमाम विज्ञापन देखकर मुझे चिंता होती है कि महिला दिवस वैलेंटाइन डे का रूप अख्तियार करता जा रहा है, जिसका इस्तेमाल लोग अपना उत्पाद बेचने के लिए कर रहे हैं।

व्यक्तिगत तौर पर मैं किसी भी दिन एक फूल से लेकर डायमंड तक को प्राथमिकता दूंगी। एक स्नेहपूर्ण स्पर्श, चंद खुशनुमा पल और एक प्रशसापत्र भी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है। यह दिन औरतों द्वारा समाज में समान भागीदारी प्राप्त करने का एक प्रतीक है।

मेरे हिसाब से महिला दिवस मनाना महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह उन मुद्दों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करता है जिन्हें हम अमूमन नजरअंदाज कर देते हैं। तमाम तरक्की और उपलब्धियों के बावजूद अभी कई क्षेत्र हैं जहा महिलाओं को आगे बढ़ना है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में महिलाओं को समान मौके नहीं मिले हैं। पश्चिमी देशों में भी सीनियर मैनेजमेंट लेवल पर बहुत कम महिलाएं हैं। खेल के नियम को भी बदलना होगा ताकि महिलाएं निर्णय प्रक्त्रिया में खुद हिस्सा ले सकें। निर्णय स्वीकार करने की मजबूरी खत्म होनी चाहिए। राष्ट्रपति, लोकसभा स्पीकर, सत्ताधारी पार्टी की प्रमुख व विपक्ष की नेता महिलाएं हैं, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या भी एक सच है।

गरीब ग्रामीण महिलाओं पर किसी का ध्यान नहीं है। हम उन महिलाओं को सलाम करते हैं जिन्होंने पुरुष प्रधान समाज में महिला को ऊपर उठाने के लिए संघर्ष किया। यह आत्म अवलोकन का अवसर भी है। मेरी पहली पहचान है कि मैं महिला हूं और मैं महिला दिवस अपनी महिला बहनों के लिए मनाती हूं। मैं एक ऐसी दुनिया की कल्पना करती हूं जहा स्त्री को अधिकार दिए जाएंगे ताकि वह पुरुषों के साथ आगे बढ़ सकें, न कि वह जिंदगाी भर दुर्बल बनी रहें और शक्तिशाली लोग उस पर राज करें।


http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_7418113.html


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