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न्यूज क्लिपिंग्स् | महिलाओं के मुंह अंधेरे उठकर जाने की मजबूरी कब तलक - मनीषा सिंह

महिलाओं के मुंह अंधेरे उठकर जाने की मजबूरी कब तलक - मनीषा सिंह

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published Published on Feb 23, 2016   modified Modified on Feb 23, 2016
छत्तीसगढ़ में एक संक्षिप्त कार्यक्रम पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 104 साल की एक बुजुर्ग महिला कुंवर बाई का सम्मान करके एक बड़ा संदेश देने की कोशिश की है। कुंवर बाई ने अपनी आठ बकरियां बेचकर अपने घर में शौचालय बनवाया था और गांव को स्वच्छता के बारे में जागरूक किया था। असल में गांव-देहात में महिलाओं के लिए शौचालय एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन जागरूकता के तमाम प्रयासों के बावजूद यह अभी भी एक उपेक्षित मसला बना हुआ है।

खास तौर से महिलाओं के खिलाफ बढ़ते यौन अपराधों और स्वच्छता से संबंधित उनकी समस्याओं को देखते हुए शौचालयों का निर्माण ग्रामीण दिनचर्या का एक अनिवार्य पहलू होना चाहिए, लेकिन इस दिशा में ठोस प्रगति नहीं हो पा रही है। गांव-देहात और छोटे-मोटे कस्बों के घरों में आधुनिक किस्म के शौचालय की गैरमौजूदगी आज भी अत्यधिक खटकने वाला मसला है। गांव-कस्बों के ज्यादातर घरों में शौचालयों के अभाव के कारण महिलाओं को कैसी समस्याएं और जलालत सहनी पड़ती है, यह तो वही जानती हैं।

कुछ वर्ष पहले यूपी के बदायूं जिले के कटरा सआदतगंज की भयानक घटना इसका एक स्पष्ट उदाहरण बनी थी कि अलसुबह मुंह अंधेरे शौच के लिए निर्जन खेतों और नदी-तालाबों के किनारे जाने की मजबूरी महिलाओं के साथ कैसे हादसे में तब्दील हो जाती है। देश में हजारों ऐसे गांव-कस्बे हैं, जहां महिलाओं को शौच के लिए खेत, बाग-बगीचों और तालाब अथवा नदी के निर्जन इलाकों की खोज करनी पड़ती है। भीषण सर्दी या बारिश के दिनों में ही नहीं, कई अन्य दिक्कतों के चलते महिलाओं को लंबी दूरी तय करके जंगल अथवा सुनसान इलाकों का रुख करना पड़ता है, जो काफी खतरनाक है।

यह एक सच्चाई है कि आज भी देश में हजारों गांव हैं, जहां लाखों-करोड़ों महिलाएं और बच्चे, बूढ़े, जवान सभी एक अदद साफ-सुथरे शौचालय को मोहताज हैं। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में 2.6 अरब लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है। भारत में भी आधी आबादी के पास मोबाइल फोन तो हो गया है, लेकिन करीब आधी आबादी अभी भी शौचालयों से वंचित है। ग्रामीण महिलाओं को घर के भीतर शौचालय का अभाव बुरी तरह खटकता है।

यही कारण है कि कुछ अरसा पहले (वर्ष 2013 में) उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के भवानीपुर गांव में एक अनपढ़ महिला मनोरानी ने अपने गांव में शौचालय बनाने के लिए अपनी पूरी जमीन देकर खुद भूमिहीन हो जाना उचित समझा था। मनोरानी बहराइच जिले के जिस इलाके में रहती हैं, वह वनग्राम की जमीन है। वहां कोई स्थायी निर्माण तब तक नहीं कराया जा सकता, जब तक कि ग्रामीण ही इसके लिए अपनी कुछ जमीन न दे दें। प्रशासन की तरफ से यहां शौचालयों की व्यवस्था करने के लिए महाराष्ट्र के नासिक से पोर्टेबल शौचालय मंगाए गए थे, लेकिन उन्हें स्थापित करने के लिए कोई खाली सरकारी जमीन उसके पास नहीं थी। यह दिक्कत मनोरानी ने दूर कर दी थी, क्योंकि उन्होंने इस काम के लिए अपनी जमीन प्रशासन को मुहैया करा दी। बाद में वहां आठ पोर्टेबल शौचालय लगवाए गए, जिससे ग्रामीणों को काफी सहूलियत हो गई। ऐसी ही पहल छत्तीसगढ़ में कुंवर बाई ने शौचालय बनवाने के लिए अपनी आठ बकरियां बेचकर की।

भारतीय महिलाओं के आम जीवन और महिला सशक्तीकरण के नजरिए से भी शौचालय एक बेहद जरूरी मुद्दा है। गांवों और छोटे कस्बों की महिलाएं शौचादि से निवृत्त होने के लिए दिन में ऐसी किसी भी जगह नहीं जा सकती हैं। यह बात भी अनेक अध्ययनों में भी निकलकर आई है कि ग्रामीण महिलाएं दिन में शौच और मूत्र विर्सजन आदि से बचने के लिए बेहद कम मात्रा में पानी पीती हैं, ताकि उन्हें शौचालय जाने की जरूरत ही नहीं पड़े। कम पानी पीने की प्रवृत्ति उन्हें कई संक्रमणों और यूरिनरी समस्याओं की गिरफ्त में ले आती है। यही नहीं, किशोरावस्था में ज्यादातर ग्रामीण और कस्बाई लड़कियां अपनी पढ़ाई इसलिए अधूरी छोड़ देती हैं क्योंकि जिन स्कूलों में वे जाती हैं, वहां अलग से लड़कियों के लिए शौचालय नहीं होते। यही नहीं, कार्यस्थलों- फैक्ट्रियों-दफ्तरों में महिला कर्मचारियों के लिए अलग से टॉयलेट बनाने का जिम्मा नियोक्ताओं पर ही छोड़ा गया है। छोटी-मोटी फैक्ट्रियों के मालिक अमूमन ऐसी कोई व्यवस्था करते ही नहीं हैं। यदि वे लेडीज टॉयलेट बनवाते हैं, तो जरूरी नहीं कि वे महिला कर्मचारियों की जरूरतों के मुताबिक साफ और सुरक्षित हों। नियोक्ता इसलिए ऐसा नहीं करते क्योंकि सरकारों ने उन्हें इस हेतु कड़े नियम-कानूनों में बांधा नहीं है।

घरों और दफ्तरों में स्वच्छ व सुरक्षित शौचालयों का अभाव पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के लिए एक जरूरी मुद्दा हैै। हालांकि सुलभ इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं और कुछ एनजीओ इस दिशा में कुछ काम अवश्य कर रहे हैं, लेकिन देश के विशाल भूगोल, सामाजिक कारणों और मुख्यत: गरीबी के कारण साफ-सुथरे शौचालयों का घरों में ही निर्माण हमारी ज्यादातर आबादी की प्राथमिकता में नहीं आ पाया है। जागरूकता का अभाव भी लोगों को शौचालयों के निर्माण पर खर्च से रोकता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस पर निवेश से उन्हें कुछ नहीं मिलता है। लेकिन जब लोग समझेंगे कि घरों में एक अच्छे शौचालय होने का मतलब कई बीमारियों और उन पर होने वाले खर्च से बचना और महिलाओं को सुरक्षित माहौल देना है, तो मुमकिन है कि वे घरों में टॉयलेट बनवाएं। अच्छा हो कि शौचालय की कमी एक चुनावी मुद्दा भी बने और बजट में इसके लिए एक राशि का प्रावधान भी हो।

 


- See more at: http://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-how-long-women-have-to-go-for-defaecation-in-early-morning-673358#sthash.cSnRoZyT.dpuf


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