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न्यूज क्लिपिंग्स् | मांस के कारोबार पर सवाल क्यों नहीं? - आलोक मेहता

मांस के कारोबार पर सवाल क्यों नहीं? - आलोक मेहता

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published Published on Oct 8, 2015   modified Modified on Oct 8, 2015
हमारे एक पारिवारिक मित्र मूलत: गुजराती ब्राह्मण हैं। वे शुद्ध शाकाहारी हैं। जनेऊ पहनकर निष्ठा के साथ पूजा-पाठ करते हैं। भारत सरकार के निर्यात प्रोत्साहन संस्थान में वे वर्षों से एक महत्वपूर्ण पद पर काम करते रहे हैं। लेकिन मित्र-परिवार के साथ बैठकों में उनकी तरक्की, वेतन-भत्तों की बढ़ोतरी, निरंतर दुनियाभर के देशों की यात्राओं की मीठी बातों के साथ एक मुद्दे पर उन्हें चिढ़ाया जाता है - 'अरे, आपकी तरक्की का सबसे बड़ा राज तो पिछले 10-15 वर्षों के दौरान मांस के निर्यात में भारत को दुनिया में नंबर वन बनाना रहा है। कहीं इससे आपका धर्म तो भ्रष्ट नहीं हो गया?" वे खिसियाहट के साथ हंसकर उत्तर देते हैं - 'अपना कर्तव्य निभाना भी तो धर्म ही है। अब मांस का निर्यात करने में बड़े-बड़े देशों को पछाड़ने का श्रेय भी तो हमें मिलना चाहिए।"

यह केवल एक सरकारी अधिकारी का उत्तर नहीं है। केंद्र सरकार के शीर्ष नेतागण, तेजतर्रार वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण तथा उनके अधिकारीजन भारत से अधिकाधिक मांस निर्यात के लिए संबंधित विभागों-प्रदेशों को निर्देश दे रहे हैं। हालांकि केंद्र सरकार के कृषि राज्यमंत्री संजीव बलियान ने 'बीफ" पर मच रहे बवाल के बीच सोमवार, 4 अक्तूबर को ही निर्देश दिया था कि वे एग्रीकल्चरल एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी (एपीडा) नामक एक सरकारी उपक्रम के अधिकारियों के साथ तत्काल बैठक करना चाहते हैं, ताकि मांस के निर्यात की स्थिति की समीक्षा की जा सके। मंगलवार को उन्होंने कहा कि अवैध गोमांस निर्यात पर रोक लगाने के लिए बंदरगाहों पर लैबोरेटरियों की स्थापना कर जांच बढ़ाई जाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि जांच परीक्षण में मुख्य फोकस मुंबई पर रहेगा, जो कि भारत का सर्वप्रमुख बंदरगाह है।

एपीडा नामक इस सरकारी संस्थान के नाम में 'कृषि उत्पाद" शब्द जुड़ा है, लेकिन रहस्य-रोमांच की बात यह है कि 1999 में आई भाजपा नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार से लेकर कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दस साल के मनमोहन राज और आज की मोदी सरकार तक की लंबी अवधि में इस संस्थान की सबसे बड़ी भूमिका तथा सफलता भारत को मांस के निर्यात में दुनिया में नंबर वन बनाना रही है। गौरतलब है कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्राजील और संपूर्ण यूरोपीय समुदाय जैसे संपन्न् मांस भक्षक और उत्पादक देशों से अधिक मांस का निर्यात भारत ने वर्ष 2014-15 में किया है। लगभग 20 लाख मीट्रिक टन मांस (रेड मीट) का निर्यात करके भारत ने लगभग 4,781 मिलियन डॉलर कमाए हैं!

भारत में प्रयुक्त किया जाने वाला अधिकांश मांस भैंसे, बकरे जैसे पशुओं का ही होता है। गोमांस की अनुमति केरल तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों में है। वैसे मंत्री संजीव बालियान ने सोमवार को यह भी स्वीकारा था कि भारत से होने वाले मांस के अवैध व्यापार से भी अनुमानित रूप से करीब 15 हजार करोड़ रुपए की कमाई की जा रही है। सऊदी अरब या चीन भी अवैध ढंग से अन्य देशों के रास्ते भारतीय मांस खरीद रहे हैं।

अब, यहां विचारणीय बात यह है कि मांस के धंधे और उससे होने वाली अकूत कमाई से तो हमारे नेताओं को कोई हर्ज नहीं होता, लेकिन अशिक्षित और गरीब लोगों के जाने-अनजाने या मजबूरी में उपलब्ध मांस के खाने की अफवाह मात्र पर राजनीति तथा खून-खराबा होने लगता है। समस्या यह भी है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मांस का उत्पादन और व्यापार अंग्रेजी के शब्द 'बीफ" नाम से होता है। दुनिया के लिए भैंस, गाय या बकरे के मांस को 'बीफ" ही कहा जाता है। तकनीकी भाषा में भैंस-बकरे आदि के मांस को 'केरा बीफ" कह सकते हैं। भारत से निर्यात होने वाले बीफ से अमेरिका, यूरोप आदि देशों में सॉसेज, बर्गर, प्रोसेस्ड फूड इत्यादि बनते हैं। थाईलैंड, वियतनाम, सिंगापुर, इंडोनेशिया, मलेशिया जैसे देशों में भारत का मांस अधिक पसंद किया जाता है। हाल में मोदी सरकार द्वारा चीन के साथ व्यापारिक संबंध बढ़ाए जाने के अभियान के तहत उनके अधिकारीगण चीन को मांस का निर्यात अधिक करने के लिए वार्ताएं-यात्राएं इत्यादि कर रहे हैं। मांस उत्पादन के लिए आधुनिक मशीनें लगाने में भी सरकार मदद करती है।

एक और दिलचस्प बात यह है कि मांस के व्यापार में हिंदुओं की संख्या मुस्लिम व अन्य समुदायों के व्यापारियों से कम नहीं है। असल में भारत से कृषि उत्पाद के निर्यात में चावल, दाल, फल, सब्जी के लिए प्रतियोगिता अधिक कठिन है। वहीं भारत में खपत की गुंजाइश भी है। मांस के व्यापार से अवैध कमाई और काले धन के गंभीर मामलों की जांच प्रवर्तन निदेशालय भी कर रहा है लेकिन आशंका है कि यही काला धन विभिन्न् पार्टियों के नेताओं तक भी जा रहा है।

जब मांस के व्यापार में धार्मिक भावनाएं आड़े नहीं आतीं, तो मांस के नाम पर धर्म की राजनीतिक भावनाएं भड़काने और समुदायों को लड़ाने का क्या औचित्य है? देश के राजनेता एपीडा जैसे संस्थानों के ही शीर्ष अधिकारियों एवं अन्य मंत्रालयों के विशेषज्ञों की उन फाइलों पर क्यों नहीं ध्यान देते कि भारत में दुनिया के कई देशों से अशुद्ध, मिलावटी और इंसानों के स्वास्थ्य के लिए बेहद नुकसानदेह खाद्य पदार्थों का आयात हो रहा है। उनकी जांच-पड़ताल का कोई समुचित तंत्र बड़े पैमाने पर विकसित नहीं किया जा सका है।

देश की सरकार के मुख्यालय साउथ ब्लॉक, रेसकोर्स रोड और संसद से मात्र 5 किलोमीटर दूरी के संपन्न् बाजारों में मीट प्रोडक्ट के डिब्बों में गाय-भैंस के मांस के अंतर पर कहां ध्यान दिया जा रहा है? जहाजों से उतरने वाले लाखों टन डिब्बों में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक अथवा लाभदायक की पड़ताल कहां हो पा रही है? खाद्य पदार्थों संबंधी अंतरराष्ट्रीय संस्था 'कोडेक्स" की रिपोर्ट पर सरकार ने क्या ध्यान देने का कष्ट उठाया है? लोकतांत्रिक राजनीति तभी सफल होगी, जब अमीर या गरीब को जिंदा रखने लायक सही और स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ उपलब्ध हो सकेंगे।

(लेखक एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष हैं

 


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