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न्यूज क्लिपिंग्स् | माइक्रोफाइनांस और गरीबी- भरत झुनझुनवाला

माइक्रोफाइनांस और गरीबी- भरत झुनझुनवाला

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published Published on Feb 8, 2013   modified Modified on Feb 8, 2013
भारत सरकार का गरीब तबके को छोटे ऋण यानी माइक्रोफाइनेंस देने पर जोर है. इन ऋणों को अधिकतर महिलाओं के स्वयं सहायता समूह के माध्यम से वितरित किया जाता है. सोच है कि ऋण से महिलाएं बकरी, दूध, परचून, फेरी आदि के धंधे कर सकेंगी. उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी और परिवार की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी.

इसी तरह से बांग्लादेश के मोहम्मद युनूस द्वारा स्थापित ग्रामीण बैंक द्वारा करीब 40 लाख महिलाओं को ऋण दिया गया. इस महान उपलिब्ध के लिए उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया है. परंतु बांग्लादेश के गरीबों की आर्थिक स्थिति में विशेष सुधार नहीं दिखा है. ‘द नेशन’ में छपे एक लेख में बांग्लादेशी अर्थशास्त्री फारूख चौधरी बताते हैं कि महंगाई का प्रभाव काटने के बाद बांग्लादेश में खेत मजदूरों का औसत वेतन 1984 में 20 टका से बढ़ कर 2003 में 28 टका हो गया है.

19 वर्षो में इसमें मात्र 40 फीसदी की वृद्धि हुई है. बांग्लादेश की गिनती अब भी गरीबतम देशों में की जाती है. आशा की जाती थी कि गरीब परिवारों को ऋण मिलने से उन्हें स्वरोजगार के नये अवसर मिलेंगे. इससे श्रम की मांग बढ़ेगी और खेत मजदूरों के वेतन में वृद्धि होगी. कुछ वृद्धि हुई भी है, किंतु केंचुए के रेंगने जैसी स्पीड से.

मुझे भारत के कई राज्यों में स्वयं सहायता समूहों का मूल्यांकन करने का अवसर मिला है. अपने देश में भी स्थिति लगभग ऐसी ही है. कर्नाटक के गुलबर्गा जिले के एक अध्ययन में पाया गया कि जन सामान्य की आर्थिक स्थिति उन गांवों में अच्छी थी, जिनमें ऋण नहीं दिये गये थे. अत: माइक्रोफाइनेंस के मुख्य उद्देश्य को लेकर संदेह उत्पन्न होता है.

जैसे गाड़ी बार-बार रिपेयर कराने के बावजूद ठीक न हो तो मैकेनिक की मंशा पर संदेह उत्पन्न होता है. श्री चौधरी के अनुसार माइक्रोफाइनेंस के दो उद्देश्य हैं- गरीब को लगे कि उसका उद्धार हो रहा है और वास्तव में उसकी आय को चूस कर उसे गरीब बनाये रखा जाये. इस टिप्पणी को गहराई से समझने की जरूरत है.

पहले यह समझें कि ऋण से गरीबी का विस्तार कैसे होता है? प्रथम दृष्ट्या यह बात जमती नहीं है, चूंकि देखा जाता है कि ऋण लेकर लोग बहुत अमीर हो गये हैं- जैसे लक्ष्मी मित्तल ने आरसेलेर कंपनी को खरीदने के लिए ऋण लिया और विश्व के सबसे बड़े इस्पात निर्माता बन गये. पर ऋण का प्रभाव दोनों तरह का हो सकता है.

मान लीजिए कि आप एक लाख रुपये का ऋण 12 फीसदी की ब्याज दर पर लेते हैं. आपको एक वर्ष में 12 हजार रुपये का ब्याज अदा करना है. आपने ऋण से मिली रकम से ऑटो रिक्शा खरीद लिया या परचून की दुकान लगा ली. यदि इस धंधे में आपको 12 हजार से ज्यादा का लाभ हुआ, तो ऋण लेना लाभप्रद हुआ. पर यदि धंधे में आपको 12 हजार रुपये से कम का लाभ हुआ, तो ऋण आपकी गरीबी का कारण बन जायेगा. ऐसा अनेक लोगों का अनुभव है कि ऋण से गरीबी का विस्तार भी होता है.

जाहिर है कि माइक्रोफाइनेंस से लाभ होगा या हानि, यह इस बात पर निर्भर करता है कि ब्याज दर की तुलना में लाभ दर न्यून है या अधिक. माइक्रोफाइनेंस की विडंबना यह है कि लाभदर की चर्चा की ही नहीं की जाती है. मान लिया जाता है कि ऋणी को जितना ब्याज अदा करना होगा, उससे अधिक लाभ होगा. परंतु इस मान्यता का कोई आधार नहीं है.

बल्कि देखा जाता है कि गरीब द्वारा उत्पादित माल के मूल्य गिरते ही जा रहे हैं, जैसे दूध, सब्जी, कागज के लिफाफे, मोमबत्ती आदि के. गरीब व्यक्ति जितना ब्याज अदा करता है, उससे कम कमाता है और माइक्रोफाइनेंस के माध्यम से उसकी आय को बैंक चूस लेता है. बांग्लादेश ग्रामीण बैंक के प्रमुख श्री युनूस हों या हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, दोनों ही गरीब द्वारा किये जा रहे उत्पादन की लाभ दर पर कभी भी चर्चा नहीं करते हैं.

माइक्रोफाइनेंस की विशेषता यह है कि ब्याज के माध्यम से चूसी जा रही रकम को अदा करने में ऋणी को कष्ट नहीं महसूस होता है, जैसे जोंक द्वारा खून चूसे जाते समय राही को आभास नहीं होता है. बल्कि ऋणी आभार प्रकट करता है कि उसे ऋण देकर अनुगृहीत किया गया. ठीक उसी प्रकार जैसे अफीमची को अफीम दिये जाने पर वह आभार प्रकट करता है अथवा जैसे खेत मजदूर अपने को बंधुआ बना लेता है, साथ ही ऋण देनेवाले साहूकार का धन्यवाद भी करता है.

अत: जिन सज्जनों के मन में गरीबों का उद्धार करने का संकल्प है, उन्हें ऋण देने के स्थान पर गरीब द्वारा उत्पादित माल का मूल्य बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए. यदि दूध, हैंडलूम कपड़े, पत्तल एवं कागज के लिफाफे के दाम बढ़ गये, तो गरीब की स्थिति में सुधार सीधे और सहज ही हो जायेगा.


http://www.prabhatkhabar.com/node/260931


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