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न्यूज क्लिपिंग्स् | मुद्दा: अन्ना का अनशन या संन्यासी का सत्याग्रह

मुद्दा: अन्ना का अनशन या संन्यासी का सत्याग्रह

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published Published on Jun 20, 2011   modified Modified on Jun 20, 2011

दो मुहिम। मकसद एक। जनमानस को उद्वेलित करने वाला पहला आंदोलन गांधीवादी अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ चला। शांति और सादगी से ओतप्रोत इस आंदोलन में भ्रष्टाचार के खिलाफ मौन जनाक्रोश हर जगह दिखा। शासन को भी इस गंभीरता का शीघ्र ही अहसास हो चला। परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जरूरी तरकीबों को ढूंढने का चरणबद्ध सिलसिला शुरू हुआ।

भ्रष्टाचार के खिलाफ ही दूसरे आंदोलन का सूत्रपात योगगुरु बाबा रामदेव ने किया। बाबा का आक्रामक तेवर और तड़क-भड़क वाला यह आंदोलन लोगों की चर्चा का न केवल विषय बना बल्कि शुरुआती दौर में नीति-नियंता भी इसके असर में दिखाई दिए। लेकिन फिर इस सत्याग्रह को लेकर उपजे विवाद दर विवाद से ऐसा लगने लगा जैसे यह अपनी राह से भटक गया है। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे यह आंदोलन बाबा बनाम सरकार होता गया। एक ही नेक मकसद के लिए शुरू की गई दोनों मुहिम का अलग-अलग दिखायी पड़ता भावी अंजाम जहां चौंकाने वाला है, वहीं इन परिस्थितियों में अन्ना हजारे के सादगीपूर्ण आंदोलन या बाबा रामदेव के आक्रामक आंदोलन की प्रासंगिकता एक बड़ा मुद्दा भी।

सालों से 'सब चलता है' के साथ चल रही भारतीय जिंदगी में बीते दो महीनों में कुछ ऐसा हुआ जिसने कहा कि अब ऐसे नहीं चलेगा। जिंदगी में रवायत की तरह शामिल हो चुके भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में आक्रोश तो था लेकिन उसे व्यक्त करने का उन्हें मौका नहीं मिल पा रहा था। अन्ना हजारे और रामदेव के आंदोलनों ने भ्रष्टाचार के मोर्चे पर आम आदमी का नारा बुलंद कर बनी सरकार के खिलाफ इस नाराजगी को निकलने का मंच दे दिया। वहीं इन आंदोलनों में अधिकतर मांगें मानने के बावजूद सरकार जनता के भरोसे के पैमाने पर खाली हाथ ही नजर आ रही है।

पांच अप्रैल को अन्ना हजारे के अनशन की शुरुआत और पांच जून को बाबा रामदेव के सत्याग्रह पर पुलिसिया कार्रवाई की दो तारीखों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी के गुस्से और नाराजगी के इजहार को एक आंदोलन की शक्ल देने में मदद की है। गांधीवादी जीवन व भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की लंबी साख वाले 74 वर्षीय अन्ना तथा योग शिक्षा से घर-घर पैठ रखने वाले बाबा रामदेव की कोशिशों ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया। इन आंदोलनों ने सत्यम से लेकर स्पेक्ट्रम और राशन से लेकर राष्ट्रमंडल खेल आयोजन तक घोटालों की लंबी फेहरिस्त से खीझी जनता को जमा होने का मंच दे दिया। कालाधन वापस लाने और भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिए लोकपाल बनाने से शुरु हुई बात अब व्यवस्था परिवर्तन के नारे में तब्दील हो गई है।

वैसे अन्ना के अनशन और बाबा के सत्याग्रह की जड़ में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का ही मुद्दा है। लेकिन इसके तरीकों में नजर आ रहे भेद ने कुछ महीने पहले तक मंच साझा कर रहे दोनों सुधारकों को कुछ फासले पर जरूर खड़ा कर दिया है। अन्ना के चरणबद्ध एजेंडे में फिलहाल लोकपाल पर जोर है वहीं बाबा की जिद विदेश में मौजूद भारत के कालेधन को लेकर है। बाबा के पीछे निष्ठावान अनुयायियों की भीड़ है तो अन्ना के अनशन को युवाओं और मध्यमवर्गीय तबके के अलावा सेलेब्रिटी और संभ्रांत तबके का भी समर्थन मिला है। दोनों ही आंदोलनों में लोगों की भावनाओं के ज्वार का दबाव बनाने की रणनीति है। फर्क इतना है कि भ्रष्टाचार से मुकाबले के खिलाफ लड़ाई में रामदेव की अपील में भावुकता पर जोर है तो अन्ना के अनशन में भावनाओं को तार्किकता के रैपर में परोसने की खूबी।

हालांकि अन्ना का अनशन हो या बाबा का सत्याग्रह। सरकार इनके मोर्चे पर कमजोर ही नजर आई। दोनों घटनाओं ने सत्ता की कई अंदरूनी कमजोरियों की खुली नुमाइश कर मसले को काफी उलझा दिया। अन्ना के अनशन के प्रति सरकार ने शुरुआत में सख्ती दिखाई वहीं सत्याग्रह का संकल्प लेकर दिल्ली आए बाबा रामदेव की अगवानी को चार वरिष्ठ मंत्रियों की मौजूदगी ने शीर्ष स्तर पर भ्रम का नजारा पेश किया। लेकिन दोनों घटनाओं के पटाक्षेप के वक्त सरकार का रुख उलट चुका था।

बाबा के सत्याग्रह के खिलाफ रामलीला मैदान में आधी रात हुई पुलिसिया कार्रवाई से सिविल सोसाइटी की अधिकतर मांगों पर तेजी से अमल के बावजूद सरकार की साख को बट्टा ही लगा। शासन में बैठे लोग कहते हैं कि सत्ता व्यवस्था बोलने की इजाजत और जगह देती है। ऐसे में वह न तो मूक दर्शक बन गालियां खा सकती है और न ही अराजकता के लिए रास्ता देना संभव है। साफ है कि बाबा रामदेव के आगे मानमनौव्वल करती सरकार कमजोर दिखाई दे रही थी तो कानून-व्यवस्था के नाम पर हुई पुलिस कार्रवाई के बाद उसकी छवि संकल्पवान सत्ता की नहीं बल्कि जुल्मी हुकूमत की बनी।

हालांकि रामदेव के सत्याग्रह में सरकार और उनके बीच गुप्त सहमति की चिट्ठी के सामने आने और बाद के घटनाक्रम में योगगुरु के रुख ने इस मुद्दे को गहरा किया वहीं सत्ता और सियासत के खेल को भी जगह दी। इसी के चलते सरकार ने आंदोलन के पीछे आरएसएस, भाजपा की भूमिका के आरोपों द्वारा सिविल सोसाइटी की ओर से बढ़ रहे नैतिक दबाव से बचने का गलियारा ढूंढ लिया।

व्यवस्था परिवर्तन के नारे वाला यह पहला मौका नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह बोफोर्स सौदे में दलाली और स्विस बैंकों में जमा धन का मामला उठाकर सत्ता परिवर्तन के नायक बने। वहीं जयप्रकाश नारायण के व्यवस्था परिवर्तन के नारे के मुकाबले में लगाये गये आपातकाल ने कांग्रेस को उसके चुनावी इतिहास की सबसे करारी शिकस्त दी, लेकिन तारीख यह भी बताती है कि आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई वहीं वीपी सिंह प्रधानमंत्री कार्यालय में महज नौ महीने ही रुक पाए। विश्लेषक मानते हैं कि व्यवस्था सुधार के मौजूदा आंदोलन की कमान संभालने वालों को इस बात का खास ध्यान रखना होगा कि जनता बनाम सरकार की रस्साकशी में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का ढांचा न लड़खड़ाए। साथ ही व्यवस्था बदलने के जोश में लोग संविधान में दिए नागरिक अधिकारों का अतिक्रमण न करें।

[प्रणय उपाध्याय]

सरकार बाबा रामदेव की नैतिक आभा से नहीं खुद अपनी भ्रष्ट छवि से डरी हुई थी। स्विस बैंकों में देश का कितना काला धन छुपा है, यह कोई नहीं जानता। लेकिन देश का आम आदमी मानता है कि नेताओं ने देश को लूट कर अकूत संपत्ति देश के बाहर जमा की हुई है।

-योगेंद्र यादव

मौजूदा स्थिति की जड़ में राजनीतिक व्यवस्था की कमजोरी बड़ी वजह है। देश का मध्यमवर्ग भ्रष्टाचार से जितना आजिज है उसमें उतना ही भागीदार भी है। लेकिन बीते कुछ साल में राजनीतिक सत्ता की लोगों को अपने साथ लेकर चलने की क्षमता गिरी है और जिसके चलते एक खाली स्थान बना है। लिहाजा इस खाली जगह को भरने की कोशिश करने वालों के पीछे खड़े होकर लोग निजाम पर अंगुली उठा रहे हैं।

-इम्तियाज अहमद

बाबा का वार

गरम मुद्दा, बड़ा समर्थन वर्ग फिर कहां चूक गए बाबा रामदेव! उनकी लड़ाई हालांकि जारी है। लोगों के मन में यह सवाल उठने लगे हैं कि उन्होंने आखिर ऐसी क्या चूक कर दी कि उनके कुछ साथी ठिठक गए तो कुछ दूरी बनाने लगे? फरवरी में रामलीला मैदान से ही जब रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ी तो अन्ना हजारे, जीआर खैरनार, विश्वबंधु गुप्ता, डॉ सुब्रमण्यम स्वामी, स्वामी अग्निवेश समेत कई विख्यात लोग उनके साथ खड़े थे। चार जून आते आते कुछ दूर हो गए तो कुछ के मन में असमंजस घिरने लगा।

योग के जरिए करोड़ों के मन में श्रद्धा पा चुके बाबा के व्यापक समर्थक वर्ग को लेकर शायद ही किसी के मन में आशंका हो। यह उनकी सबसे बड़ी ताकत है। भ्रष्टाचार के खिलाफ उन्होंने जंग छेड़ी तो उनकी यह ताकत दिखी भी। शायद यही कारण है कि शुरुआती दिनों में सरकार घुटनों पर चलती उन्हें मनाने आई। पर रणनीतिक कमजोरी ने ताकत को कम कर दिया।

बाबा के पास अनुकरण तो था पर रणनीति नहीं थी। योग गुरू शायद यह आंकने में भूल कर गए थे कि राजनीतिक महत्वाकांक्षा उनके साथियों को अलग कर देगी। उनकी इसी घोषणा ने बाद में सरकार को भी मौका दे दिया। बाबा कैंप की खामी यह थी कि उनके पास कोई ऐसा लेफ्टिनेंट नहीं था जिसके सहारे बाबा सीधी वार्ता से खुद को दूर रख सकते। वर्ना आचार्य बालकृष्ण की चिट्ठी भी सरकार को आक्रामक होने का मौका नहीं देती।

गंभीर मुद्दे थे पर तैयारी नहीं थी। लिहाजा सरकार की राह आसान थी। माना जा रहा है कि पुलिस कार्रवाई ने उन्हें एक मौका दिया था जिसे उन्होंने गंवा दिया। समय थोड़ा और गुजरा तो उन्होंने फौज बनाने की बात कर साथियों को और दूर कर दिया। बाबा अपने भक्तों के अलावा समाज के दूसरे वर्गों को जोड़ने में असफल हो गए। लिहाजा मुद्दे तो हैं पर उनका नेतृत्व संकुचित हो गया।

(आशुतोष झा)

अन्ना का प्रहार

अन्ना ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का मुद्दा उठाया। यह काफी जटिल और तकनीकी मसला था। देश के सारे बड़े अर्थशास्त्री या कानूनविद् एकजुट हो कर लोगों को भरोसा दिलाते कि इस तरीके से देश से भ्रष्टाचार खत्म हो सकता है तो भी लोग संदेह करते। मगर अन्ना द्वारा सुझाए उपाय पर किसी को रत्ती भर संदेह नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि सरकारी व्यवस्था में लोकपाल नाम की एक एजेंसी होनी चाहिए। इसके लिए अलग से एक कानून बनाना पड़ेगा। और मैं बता रहा हूं कि यह कानून कैसा हो। देखते ही देखते देश के सबसे पढ़े-लिखे तबके के लोग इस मामूली से दिखने वाले शख्स के पीछे-पीछे चल रहे थे। लोगों को पता चला कि इसने पहले भी अपने इलाके में इस बीमारी का कामयाब इलाज किया है और लोगों को मूर्ख नहीं बनाया।

सरकारी व्यवस्था में लोकपाल नाम की एक एजेंसी हो या नहीं इस बारे में आम लोगों को इससे पहले बहुत मालूम नहीं था। कानून के मसौदे में सरकार से बाहर के लोगों की भूमिका के बारे में भी अपने देश में कभी सुना नहीं गया था। लेकिन लोग तुरंत साथ आ गए। लोगों को इस आदमी की ईमानदारी और जिद पर भरोसा था।

अन्ना को हर तबके का समर्थन जरूर मिला, लेकिन बाबा रामदेव जैसे शुरुआती साथी का अलग आंदोलन शुरू करना उन्हें एक कमजोर रणनीतिकार साबित कर गया। इसी तरह वे ईमानदार छवि वाले बहुत से दूसरे सामाजिक कार्यकर्ताओं और कई प्रतिष्ठित विशेषज्ञों को भी अपनी बातें नहीं समझा सके। उनके तरीके और फार्मूले से असहमत आवाजें लगातार आती रही हैं। साझा मसौदा समिति के गठन के रूप में अन्ना को शुरुआती कामयाबी भले मिली हो, लेकिन अभी बड़ी लड़ाई बाकी है। ऐसे में यह आम लोगों को तय करना होगा कि वे इस ऐतिहासिक मौके का फायदा उठा पाते हैं या फिर यह आंदोलन गैर-जरूरी सवालों और टकराव में उलझ कर टूट जाता है।

(मुकेश केजरीवाल)

गुप्त पत्र

सरकार और रामदेव के बीच बात बनते-बनते बिगड़ गई। दोनों पक्ष राजी थे। ऐन वक्त पर सरकार और रामदेव के बीच तीन तारीख को हुए गुप्त समझौते की चिट्ठी को केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने सार्वजनिक कर पूरी कहानी पलट दी।

अपनी फौज

हरिद्वार पहुंचकर बाबा ने कहा कि वे 11 हजार युवक-युवतियों की फौज तैयार करेंगे, जिन्हें शस्त्र-शास्त्र की पूरी ट्रेनिंग दी जाएगी, क्योंकि रामलीला मैदान में होने वाली रावण लीला में अब मार नहीं खाएंगे।

बालकृष्ण प्रसंग

दिल्ली के रामलीला मैदान की घटना के बाद से 'गायब' चल रहे आचार्य बालकृष्ण सात तारीख की शाम अचानक पतंजलि योगपीठ में प्रकट हो गए। बाद में पूछने पर वे इस सवाल का कोई जवाब नहीं दे सके कि वह तीन दिनों तक पतंजलि योगपीठ क्यों नहीं आए। उन्होंने इस बात का भी कोई जवाब नहीं दिया कि वह सात तारीख को पतंजलि कैसे पहुंचे।

अपने भारतीय नागरिक न होने के मुद्दे पर सफाई देते हुए आचार्य बालकृष्ण ने साफ किया कि उनके माता-पिता नेपाली मूल के हैं, लेकिन उनका जन्म हरिद्वार में हुआ, सारी पढ़ाई-लिखाई भी यहीं हुई। वह अपने को जन्म और कर्म से भारतीय मानते हैं। उनका कहना है कि 1950 की भारत-नेपाल संधि के अनुसार भी वह भारतीय हैं। जो लोग इस मुद्दे को तूल दे रहे हैं, वे भारतीय संविधान का अपमान कर रहे हैं।

किसने क्या कहा..

रामदेव ठग हैं। उन्होंने पहले अपने गुरु को ठगा और अब बिना मेडिकल और आयुर्वेद की डिग्री के दवाएं बेचकर लोगों को ठग रहे हैं। अनशन का ड्रामा रचकर देश को ठगने की साजिश रच रहे थे, जिसे सख्ती ने विफल कर दिया। आचार्य बालकृष्ण अपराधी हैं। वह नेपाली हैं और भारत में बसने के लिए योग और आयुर्वेद का सहारा ले रहे हैं। इनके पासपोर्ट की जांच होनी चाहिए।

- दिग्विजय सिंह (कांग्रेस महासचिव)

सशस्त्र सेना बनाने के एलान से बाबा रामदेव का असली रंग और उद्देश्य सबके सामने आ गया है। उन्हें ऐसा करने तो दें, कानून उनकी खबर ले लेगा। बाबा का आंदोलन संघ प्रायोजित कार्यक्रम है।

-पी चिदंबरम (केंद्रीय गृह मंत्री)

अन्ना के बदलते तेवर

-9 अप्रैल, 2011

यह तो बस शुरुआत है। हम आश्वस्त हैं कि लोकपाल बिल का ड्राफ्ट समय पर तैयार कर लिया जाएगा और संसद में पास हो जाएगा।

(अनशन को खत्म करने के बाद लोकपाल बिल को दोबारा ड्राफ्ट करने के लिए संयुक्त पैनल के गठन संबंधी एलान के बाद दिया गया बयान)

-11 अप्रैल, 2011

यदि कपिल सिब्बल को लगता है कि लोकपाल बिल से कुछ नहीं होने वाला तो उनको संयुक्त कमेटी से इस्तीफा दे देना चाहिए।

(लोकपाल के मसले पर मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के बयान पर दी गई प्रतिक्रिया)

-16 अप्रैल, 2011

हमारी मीटिंग बढि़या रही। मीडिया के कारण ही हम यह सफलता प्राप्त करने में सफल रहे।

(संयुक्त पैनल की पहली बैठक के बाद अन्ना हजारे की पहली प्रतिक्रिया)

-5 जून, 2011

हम इस कार्रवाई की भ‌र्त्सना करते हैं। इसके विरोध में हम एक दिन का अनशन करेंगे और छह जून की संयुक्त पैनल की बैठक में हिस्सा नहीं लेंगे

(रामदेव के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई पर बयान)

सीडी प्रकरण

एक सीडी विवाद ने सिविल सोसायटी सदस्यों में से पिता-पुत्र शांति भूषण और प्रशांत भूषण को विवाद के घेरे में ला दिया। इस सीडी में एक केस के सिलसिले में शांति भूषण, अमर सिंह और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की बातचीत का कथित ब्योरा था। इसी तरह नोएडा में भूषण परिवार को फार्म हाउस आवंटन के मसले पर भी लपेटने की कोशिश की गई। हालांकि भूषण परिवार ने आरोपों को खारिज किया।

जनमत

क्या इस आरोप में सच्चाई है कि रामदेव का आंदोलन अपनी राह से भटक गया है?

हां 40'

नहीं 60'

क्या बाबा रामदेव से जुड़ी व्यावसायिक गतिविधियां उनकी छवि को प्रभावित करती हैं?

हां 39'

नहीं 61'

आपकी आवाज

बाबा के स्वदेशी आंदोलन से जिनके भी हित प्रभावित हो रहे हैं, वे बाबा और उनके संगठन की छवि को धूमिल करने में लगे हैं। काले धन के मुद्दे को उठाने के बाद से केंद्र सरकार भी बाबा को नेस्तनाबूद करने पर आमादा नजर आ रही है।

-दिनेश निर्मल (देहरादून)

बाबा रामदेव को सत्याग्रह के समय भागना नहीं चाहिए था। उन्हें गांधीजी की तरह स्वयं को गिरफ्तार कराना चाहिए था। इसलिए आंदोलन असफल हो गया।

-एस के शर्मा (लखनऊ)


http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_7854615.html


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