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न्यूज क्लिपिंग्स् | मुसीबतों पर मुक्के जड़ने वाली लड़की के गांव से- दिव्या आर्य

मुसीबतों पर मुक्के जड़ने वाली लड़की के गांव से- दिव्या आर्य

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published Published on Apr 15, 2014   modified Modified on Apr 15, 2014
एक तो लड़की, वो भी पूर्वोत्तर भारत के गांव की, ग़रीब परिवार में जन्मी, ऊपर से शौक़ मुक्केबाज़ी का. जीवन की सारी परिस्थितियाँ जितनी मुश्किल हो सकती हैं, मेरी कॉम के लिए थीं.

डैनी, भूपेन हज़ारिका, बाइचुंग भूटिया जैसे दो-तीन नामों के बाद जो लिस्ट आगे नहीं बढ़ पाती, उसमें किसी लड़की का शुमार होना कई तरह से ग़ैरमामूली है.

वर्ल्ड चैंपियन बॉक्सर मेरी कॉम सचमुच चुनौतियों से जूझकर जीतने वाली प्रतिभा हैं. क़रीब 20 साल पहले मेरी के परिवार की आर्थिक हालत इतनी ख़राब थी कि वो इम्फ़ाल के अपने स्कूल तक जाने के लिए 60 किलोमीटर का सफ़र साइकिल से तय करती थीं.

जो सफ़र वह साइकिल से करती थीं, मैंने हिचकोले खाती हुई कार से तय किया. इम्फ़ाल शहर पार होते ही सड़क ख़राब होने लगी. उनके गांव के नज़दीक पहुँचने पर रास्ता बद से बदतर होता गया.

32 परिवारों का गांव

मणिपुर की राजधानी इम्फ़ाल से क़रीब 60 किलोमीटर दूर कंगाथाई कबायली कॉम जाति के 32 परिवारों का एक छोटा सा गांव है, जहाँ मेरी पली-बढ़ी हैं.

यहां पहुंचने का रास्ता ख़राब तो है, पर लोगों के घर पक्के हैं. दिन में बिजली तीन से चार घंटे के लिए ही आती है पर सभी घरों में टीवी है और कुछ में टाटा स्काय की डिश भी लगी है.

एक हॉल में कुछ बेंच हैं और एक बोर्ड रखा है जो यहाँ का सरकारी प्राइमरी स्कूल है, पर बच्चे अब इम्फ़ाल जैसे शहरों में पढ़ाई करके दूसरे राज्यों में टीचर बन गए हैं.

पांच किलोमीटर दूर प्राइमरी हेल्थ सेंटर है, जो बंद पड़ा है पर इस गांव की लड़कियां नर्स की ट्रेनिंग लेकर दिल्ली के प्राइवेट अस्पतालों में नौकरी कर रही हैं.

33 साल की सलोमी कॉम गुड़गांव के एक चर्च में काम करती हैं.

वो कहती हैं, “हम अपनी तरफ़ से कोशिश करते हैं अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाने की, पर सड़क, अस्पताल, स्कूल, बिजली तो हम नहीं ला सकते. जब भी गांव लौटकर आती हूं, उसका हाल देखकर बहुत दुख होता है.”
चुनौतियों से मुक्केबाज़ी

पिछले एक दशक में जब मेरी कॉम अपने बेहतरीन खेल की वजह से सुर्खियों में आने लगीं, उसी दौर में सलोमी जैसी मेरी की हमउम्र लड़कियां रोज़गार के बेहतर अवसर पाने के लिए मेहनत कर रही थीं.

सलोमी कहती हैं, “टीवी पर देखते हैं कि मेरी कॉम को कितनी शोहरत मिली है, पर क्या फ़ायदा, गांव का हाल तो बदहाल ही है. स्कूल और अस्पताल दूर है, तो रास्ता ख़राब होने से आने-जाने में ज़्यादा पैसे लगते हैं.”

30 साल की अबी कॉम अरुणाचल प्रदेश के एक स्कूल में टीचर हैं. वे अपने गांव से पड़ोसी राज्य अरुणाचल प्रदेश तक बस में जाती हैं, जिसमें उन्हें पूरा एक दिन और एक रात का समय लगता है.

पीछे छूटा गांव

मेरी कॉम ख़ुद यह गांव छोड़ चुकी हैं. अपने पति और बच्चों के साथ वह अब इम्फ़ाल शहर में रहती हैं. उनके पिता और भाई यहां रहते हैं. लेकिन वो भी कुछ महीनों में इम्फ़ाल चले जाएंगे.

मेरी के भाई फांग्ते खुप्रे कॉम ने मुझे बताया कि वो शहर में नौकरी करना चाहते हैं और वहां रहकर अपने बेटे के लिए बेहतर ज़िंदगी बनाना चाहते हैं.

खुप्रे का घर गांव के बाक़ी घरों से बड़ा और बेहतर है. बड़ी गाड़ी है, वॉशिंग मशीन है और भी कई सुविधाएं हैं. खुप्रे ने बताया कि ये सब मेरी की वजह से हुआ, वरना पहले उनका जीवन बहुत अलग था.

“हमारा बचपन बहुत मुश्किलों में बीता, खाने तक की तंगी रहती थी. गांव के और लोगों के पास जो सुविधाएं थीं, वो हमारे पास नहीं थीं.”

मेरी और उनके गांव के लोगों का संघर्ष कुछ अलग नहीं है. फ़र्क इतना है कि मेरी ने बुलंदियां छू लीं और बाक़ी गांव अपनी छोटी हसरतें पूरी करने के लिए जूझ रहा है.

चोंग लाई कॉम भी गाँव की बाक़ी महिलाओं की तरह पिछले 30 साल से खेती कर रही हैं. उनकी बेटी अब दिल्ली के फ़ोर्टिस अस्पताल में नर्स की नौकरी करती है.
भ्रष्टाचार

वो कहती हैं, “मेरी को इतने सारे पुरस्कार देने वाली सरकार यहां तक पहुंच जाती, तो कुछ सुविधाएं हमें भी मिल जातीं. अब तो हम ही अपनी ज़िंदगी बेहतर करने के लिए जो कर पा रहे हैं, कर रहे हैं.”

गांववालों के पास राशन कार्ड हैं, लेकिन पास में कोई राशन की दुकान नहीं है. वो बताती हैं कि भ्रष्टाचार बहुत ज़्यादा है और मनरेगा जैसी योजनाओं में रोज़गार भी नहीं मिलता.

बेटियों की ही तरह बेटे भी सरकारी या प्राइवेट नौकरी की तलाश में हैं. मेरी के भाई खुप्रे की तरह कई लोग सेना में भर्ती होना चाहते हैं. इस सबके बावजूद विकास की आस ऐसी है जो बार-बार मन में जग जाती है.

अबी बताती हैं कि चुनाव के समय उनके गांव में राजनेता नहीं, उनके एजेंट आते हैं और इस चुनाव में अब तक वो भी वोट मांगने नहीं आए हैं.

मैं चलने लगी तो मुस्कुराकर बोलीं, “इतनी बार अपनी मांगें रख चुके हैं कि थक गए हैं. नेताओं के एजेंट को बताने से कोई फ़ायदा नहीं होता, पर फिर भी उम्मीद के साथ दो किलोमीटर पैदल जाकर वोट डालते हैं. क्या करें, उम्मीद तो छोड़ नहीं सकते न?”


http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/04/140411_last_mile_mary_kom_electionspl2014_pk.shtml


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