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न्यूज क्लिपिंग्स् | मेडिकल इमरजेंसी के कारण-- दुनू रॉय

मेडिकल इमरजेंसी के कारण-- दुनू रॉय

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published Published on Nov 9, 2017   modified Modified on Nov 9, 2017
देश की राजधानी दिल्ली और साथ ही कुछ अन्य क्षेत्रों में इस वक्त जो भयानक स्मॉग चारों तरफ फैला हुआ है, वह अचानक कहीं से आ नहीं गया है, बल्कि धूएं और धूल के प्रदूषण से पैदा हुआ यह स्मॉग वातावरण में ठहर जाने से अचानक दिखायी देने लगा है, जो सांस लेने में अब परेशानियां पैदा करने लगा है. स्मॉग में स्मोक और फॉग दोनों हैं- स्मॉक यानी धुएं में रसायन होने के कारण यह ज्यादा घातक होता है, जबकि फॉग में पानी के कण होने के कारण यह घातक नहीं होता. इन दोनों के मिलने से घने धुंध की स्थिति बन जाती है, जो इस वक्त है.

हवा में यह प्रदूषण अरसे से है और पूरे वर्ष रहता है, इसमें कोई नयी बात नहीं है. दरअसल, सर्दियों में यह इसलिए फौरन दिखने लगता है, क्योंकि हमारे वातावरण में ऊपर की हवा ठंडी हो जाती है, जो नीचे की दिन भर की प्रदूषित हवा को बाहर यानी ऊपर जाने नहीं देती है, जिससे वह सारा प्रदूषण ठहर सा जाता है और धुंध छा जाती है. ऊपर की ठंडी हवा जमीनी सतह की प्रदूषित-गर्म हवा पर दबाव बना देती है, जबकि गरमियों में ऊपर की हवा भी गरम हो जाती है, जिससे नीचे की प्रदूषित हवा ऊपर निकल जाती है.

इसलिए यह कहना कि यह प्रदूषण अचानक बढ़ी है, उचित नहीं होगा. डर तो इस बात का है कि सर्दियों भर अगर ऊपर की हवा ठंडी बनी रही, तो यह प्रदूषण ऐसे ही ठहरा रह सकता है. यहां विडंबना यह है कि अभी तक सरकार इसके धूल कणों की ही जांच कर रही है, जबकि वाहनों और ईंधनों से निकले और हवा में गैस के रूप में मौजूद खतरनाक रसायनों की कोई जांच ही नहीं हो रही है. इन गैसों का सीधा हमला हमारे फेफड़ों पर होता है और हमें सांस लेने में मुश्किलें आने लगती हैं.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सुझाव पर प्रदूषण को लेकर कोड बनाया था कि प्रदूषण के किस चरण पर क्या करना चाहिए और गंभीर (सेवियर) चरण में क्या करना चाहिए. लेकिन, सरकार ही इस पर अमल नहीं करती.

सरकार शुरू के चरणों में कोई कदम नहीं उठाती और जब मामला सेवियर हो जाता है, तब वह स्कूल बंद करने की घाेषणा कर देती है, या फिर ऑड-इवेन का फरमान जारी कर देती है, बस. सरकारें इतनी सी बात नहीं समझतीं कि स्कूल बंद कर देने से ही बच्चों को स्मॉग से नहीं बचाया जा सकता, क्योंकि वही प्रदूषित हवा तो घर के भीतर भी है. और अहम बात तो यह है कि जब स्कूल की छुट्टी हो जाती है, तो बच्चे और भी बाहर जाकर खेलने-कूदने लगते हैं. इस परिस्थिति में कोई भी उपाय काम नहीं कर सकता, इस बात को हमें समझना होगा और अभी से इससे बचाव की तैयारी करनी होगी, तब कहीं जाकर प्रदूषण कुछ कम होगा.

दो महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन पर सरकारें ध्यान नहीं देती हैं. पहली बात यह है कि लोगों की बेतहाशा ऊर्जा की मांग को कम करना पड़ेगा. लकिन, विडंबना यह है कि हमने मान लिया है कि प्रति व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा की खपत ही विकास का द्योतक है. इसीलिए जीडीपी का एक मानक प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत भी है. यानी ज्यादा विकास का अर्थ है ज्यादा ऊर्जा की खपत. अौर ज्यादा ऊर्जा की खपत का अर्थ ज्यादा ईंधन का जलाया जाना. इस तरह ज्यादा ईंधन जलाये जाने का अर्थ है ज्यादा प्रदूषण. यह काम हम लगातार सालों-साल कर रहे हैं. फिर प्रदूषण के कम होने की संभावना ही कहां है? यह बात सिर्फ दिल्ली या कुछ शहरों कीनहीं है, बल्कि पूरे देश भर में यही स्थिति है. चूंकि, दिल्ली में सारा मीडिया का तामझाम है, इसलिए लोगों का ध्यान इसी पर केंद्रित है.

जबकि, इसी वक्त में बनारस, लखनऊ, पटना, या रांची जायें, तो दिल्ली जैसा ही प्रदूषण मिलेगा. यही नहीं, बनारस का प्रदूषण तो दिल्ली से भी ज्यादा है, जिसका मीडिया में कहीं जिक्र नहीं है. मसला यह है कि बनारस में प्रदूषण नापने का सिर्फ एक मीटर है, जबकि दिल्ली में 16 मीटर लगे हुए हैं.

सरकार को चाहिए कि सभी प्रमुख शहरों में प्रदूषण मापन यंत्रों को लगाये, ताकि उसकी जांच और रोकथाम में आसानी हो. हवा में प्रदूषण के बहुत से महीन कण विद्यमान होते हैं, जो फेफड़े के अंदर घुस जाते हैं. एक बार वे घुस जायें, तो फिर बाहर निकल नहीं पाते हैं. नतीजा, फेफड़े को सांस लेने में दिक्कत पैदा होने लगती है, जिससे खून को ऑक्सीजन नहीं मिल पाता और बीमारियां जकड़ लेती हैं. इन कणों को पार्टिकुलेट मैटर कहा जाता है, िजनकी साइज 2.5 माइक्रोग्राम से कम होता है. इसे पीएम 2.5 कहा जाता है, जो ईंधन के जलने से पैदा होता है.

दूसरी महत्वपूर्ण बात है परिवहन. बसाें की संख्या लगातार घट रही है और निजी गाड़ियों की संख्या लगातार बढ़ रहे हैं. सरकार को न सिर्फ ऑड-इवेन प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए, बल्कि प्रदूषण मापन यंत्र को पूरे भारत में लगाना अनिवार्य रूप से लगाना चाहिए और प्रदूषण के शुरुआती चरण से ही रोकथाम की प्रक्रिया का पालन करना चाहिए.

नहीं तो अगर सेवियर होने के इंतजार में बैठे रहे, तो हर शहर की मौजूदा दिल्ली जैसी हालत हो जायेगी. ये चरण पीएम 2.5 और पीएम 10 के मापन के ऊपर निर्भर करते हैं. प्रदूषण मापन यंत्र पर अगर पीएम कणों की मौजूदगी का स्तर यानी वायु गुणवत्ता सूचकांक (एयर क्वाॅलिटी इंडेक्स) 100 के नीचे है, तो स्थिति संतोषजनक है. 100 से ऊपर पहुंचता है, तो कुछ नाजुक स्थिति है. और अगर 400 के पार पहुंच जाता है, तो यह सेवियर (बेहद गंभीर) की स्थिति हो जाती है. दिल्ली में यह स्तर 451 पर पहुंच चुका है, जो बहुत ही गंभीर स्थिति को दर्शाता है.

यह स्थिति में सांस के रोगियों को भले बाहर न निकलने दिया जाये, भले स्कूल बंद कर दिये जायें, इससे प्रदूषण नियंत्रण या सांसों के बचाव में कोई मदद नहीं मिलनेवाली है. इस ऐतबार से यह मेडिकल इमरजेंसी की हालत है. आगे आनेवाले समय में इससे बचने का एक ही रास्ता है कि हम कम से कम ईंधन जलायें और ऊर्जा की खपत को जितना नियंत्रित कर सकें, करें.

प्रदूषण के पैदा होने के स्रोतों पर प्रहार की नीति बनानी हाेगी, तभी इसे बढ़ने से रोका जा सकता है. लेकिन, समस्या यह है कि हम ईंधन, तेल, गैस, बिजली आदि की बेतहाशा खपत पर लगाम नहीं लगा सकते. बेतहाशा निर्माण पर रोक नहीं लगा सकते, क्योंकि ये सभी चीजें विकास की सूचक हैं. विकास के सूचक ही विनाश का कारण हैं.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1081315.html


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