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न्यूज क्लिपिंग्स् | यह नया कितना पुराना- कुमार प्रशांत

यह नया कितना पुराना- कुमार प्रशांत

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published Published on Aug 14, 2012   modified Modified on Aug 14, 2012
जनसत्ता 14 अगस्त, 2012: देश को नए मंत्री मिल गए हैं। देश की गहरी समस्याओं के जनक रहे पुराने लोग नई पोशाकों में आ खड़े हुए हैं। देखते हैं तो उनके हाथों में तलवारें भी वही बाबाआदम के जमाने की हैं- कागजी! सारे देश में सूखा पड़ा है और अभी अचानक बिजली चले जाने का नया रोग भी गहरा अंधेरा बनाने लगा है। इसे अगर एक प्रतीक से जोड़ कर देखें तो लगता है कि देश के राजनीतिक नेतृत्व में सोच का सूखा और कल्पनाशीलता का जैसा अंधेरा छाया है, प्रकृति भी और मशीनें भी उसी का अनुकरण कर रही हैं! यह देश के लिए सबसे नया संकट है।

प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति भवन में जा बैठे तो मानो सरकार पर लगा हुआ परदा ही खिसक गया है। अब जो है सबके सामने है और इससे जो सबसे खतरनाक मंजर सामने आया वह है कांग्रेस पार्टी में विकल्पों का नितांत अभाव! इतनी बड़ी पार्टी और उसका इतना बड़ा तंत्र, लेकिन दरिद्रता ऐसी कि आप बस ताश के सारे जोकरों को फेंटते रहें। कोई सरकार ऐसे चलाई नहीं जा सकती, कोई देश ऐसे बनाया नहीं जा सकता। प्रणब मुखर्जी वित्तमंत्री की कुर्सी खाली करके गए तो प्रधानमंत्री ने झट वह खुद संभाल ली। यह अच्छा और साहसपूर्ण निर्णय था। अच्छा इसलिए कि मनमोहन सिंह एक शास्त्रीय अर्थशास्त्री हैं। वही इस अर्थव्यवस्था के जनक भी हैं तो उस कहावत के मुताबिक जिसकी बंदरिया वही नचावे।

साहसपूर्ण इस अर्थ में कि जब अर्थ-जगत इस कदर डावांडोल हो रहा हो तब मुखिया को आगे आकर कहना ही चाहिए कि इसकी जिम्मेवारी मैं लेता हूं। इधर प्रणब मुखर्जी गए और उधर ऐसा माहौल बनाया गया मानो अब तक जो वित्तमंत्री था उसे वित्त का कोई ज्ञान ही नहीं था! अब जाकर देश को वह ज्ञानी वित्तमंत्री मिला है जो सब कुछ ठीक ठिकाने ले आएगा। प्रधानमंत्री ने भी वित्तमंत्री बनते ही वित्त मंत्रालय के सारे आला अधिकारियों को बुला लिया और उन्हें पशुवृत्ति से काम करने में जुट जाने का निर्देश दिया। लगा कि मानवीय वृत्ति से इस सरकार का काम चला नहीं तो अब शायद पशुवृत्ति ही काम देगी।

लेकिन यह पशुवृत्ति क्या होती है और कैसे काम करती है, यह हम सूंघ-समझ भी पाते कि प्रधानमंत्री ने वित्तमंत्री की कुर्सी उन्हीं पी चिदंबरम को थमा दी, जिन्हें इसी कुर्सी से हटा कर गृहमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया था। सभी पूछ रहे हैं कि यह क्या हुआ? अव्वल तो कुछ छोड़ना ही था तो मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़नी चाहिए थी, जिसकी मांग उनकी पार्टी और देश में उठती रही है। नहीं छोड़नी थी तो यह वित्तमंत्री की जिम्मेवारी, क्योंकि इस क्षेत्र में देश-दुनिया की हालत अंधेरे में तीर चलाते शिकारी की है, और मनमोहन सिंह एक अच्छे शिकारी हैं, ऐसी मान्यता अब भी बनी और बची हुई है।

फिर यह भी जानना जरूरी लगता है कि अगर दो-चार दिनों में छोड़ना ही था तब प्रणब मुखर्जी के तुरंत बाद यह जिम्मेवारी चिदंबरम को क्यों नहीं दी गई, ताकि यह संदेश तो जाता कि वित्त-विशेषज्ञ प्रधानमंत्री की पहली पसंद चिदंबरम हैं और इसलिए उन्हें देश मनमोहन सिंह का प्रतिनिधि मान कर देख सकता है। आज दो बातें साबित हुई हैं। एक तो यह कि प्रधानमंत्री चाहते थे कि वित्त मंत्रालय उनके पास ही रहे, लेकिन आंतरिक दवाब इतना ज्यादा आया कि उन्हें हार कर कदम पीछे खींचने पड़े। इससे एक कमजोर नेतृत्व की उनकी बनती छवि और गाढ़ी हुई है। दूसरा यह कि चिदंबरम वैसे वित्तमंत्री हैं, जिन्हें मनमोहन सिंह का विश्वास और समर्थन प्राप्त नहीं है! ऐसी दोनों बातें लोगों के मन में घर करें, यह इस मोड़ पर सबसे बुरा है।

चिदंबरम इस सरकार के सबसे वरिष्ठ लोगों में हैं और कई बड़े मंत्रालयों को संभालने का उन्हें अनुभव है। उनके साथ देश का भी लंबा अनुभव है। यह अनुभव बताता है कि चिदंबरम एक अच्छे नौकरशाह हैं, जिसमें नेतृत्व की कोई क्षमता नहीं है। नेतृत्व का मतलब ही है नई जमीन तोड़ना!

चिदंबरम जिस भी मंत्रालय में रहे हैं, कहीं भी उन्होंने कोई नया रास्ता लिया हो, नई कल्पनाशीलता से समस्याओं को छूने की कोशिश की हो या कि देश और देशवासियों के प्रति गहन संवेदनशीलता का परिचय दिया हो, ऐसा नहीं है। इसके विपरीत ही उनका आचरण रहा है। गृहमंत्री के रूप में किसी भी संकटपूर्ण नाजुक अवसर पर वे सामान्य स्तर के अधिकारी भी साबित नहीं हुए हैं, चाहे वह बाबा रामदेव का प्रसंग हो, अण्णा आंदोलन से निबटने का या कि वामपंथी चुनौती का सामना करने का! मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के मामले में भी गृहमंत्रालय कितना विपन्न साबित हुआ था, इसे कोई भूल सकता है क्या?

चिदंबरम इससे पहले वित्तमंत्री भी रहे थे। वे औद्योगिक घरानों और शेयर बाजार के दलालों के चहेते रहे हैं, देश के नहीं! शेयर बाजार में चलने वाले घोटालों के कुछ छींटे उन पर भी पड़े थे और वहां से उनकी विदाई में कहीं इन छींटों का हाथ भी था। अब फिर से वित्त उनके ही हाथ में देकर कांग्रेस पार्टी ने साबित कर दिया है कि वह प्रतिभा के रेगिस्तान में खड़ी है।

इसे संयोग कहें या देश से खराब किस्म का मजाक कि सुशील कुमार शिंदे जब सारे देश में अंधेरा कर खुद को अव्वल दर्जे का बिजली मंत्री बता रहे थे तभी उन्हें देश का गृहमंत्री बनाया गया। कांग्रेस कभी यह तय नहीं कर सकी कि सुशील कुमार शिंदे को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाना है कि राष्ट्रपति कि कुछ और! शिंदे कांग्रेस पार्टी के हाथ में वह दलित कार्ड रहे हैं, जिसे वह दिखाती ज्यादा है, चलती   बहुत कम है। वे बंद मुट््ठी लाख की वाली श्रेणी में आते हैं। कहें तो सुशील कुमार शिंदे आज के वक्त के शिवराज पाटील हैं, जिन्हें जनपथ वालों की कृपा प्राप्त है, लेकिन जिनका अपना कोई कद नहीं है। उन्होंने इस कदर देश की बिजली काटी नहीं होती तो कोई जानता भी नहीं कि देश का बिजली मंत्री कौन है।

क्या देश का गृहमंत्री होना इतना महत्त्वहीन हो गया है कि उस पर कौन बैठेगा इसकी इतनी ही कसौटी रह गई है कि उसकी जाति क्या है और जनपथ से उसका समीकरण कैसा है? गृहमंत्री बनने के बाद उन्होंने यही दो बातें कहीं कि जिसके आधार पर उन्हें गृहमंत्री की जिम्मेवारी दी गई है! कांग्रेस ने यह भी सोचने की जहमत नहीं उठाई कि शिंदे आदर्श घोटाले में सीधे शरीक हैं, अदालत में उनकी पेशी हो चुकी है और आगे भी इसकी पूरी संभावना है कि वे इसमें लपेटे जाएं! तब कांग्रेस के लिए कितना गौरवशाली होगा कि देश का गृहमंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में अदालतों में भटकता दिखाई देगा।

यह वह दौर है जब देश की आंतरिक संरचना बड़ी चुनौतियों से जूझ रही है। छत्तीसगढ़, ओड़िशा, असम, मणिपुर ही नहीं, देश के मध्य भागों में भी जातीय और आर्थिक असंतोष की चिंगारियां छिटक रही हैं। ये चिंगारियां उतनी खतरनाक नहीं हैं जितनी इनके प्रति इस सरकार का रवैया! आतंकवादी कार्रवाइयां उतनी खतरनाक नहीं होती हैं जितना खतरनाक है पुणे के ताजा विस्फोट के बाद वहां के पुलिस प्रमुख का यह बयान कि यह बहुत हल्की शक्ति वाला बम था। ऐसी मानसिकता अगले आतंकी हमले की जमीन तैयार करती है।
यहां भूमिका आती है देश के गृहमंत्री की जो अपने प्रशासन में यह बोध जगाता है कि असामाजिक तत्त्वों की एक छोटी-सी चूं भी किसी बड़े संकट की सूचना देता है। इसलिए सुरक्षा अधिकारियों का काम बयान देना नहीं, भागते भूत की लंगोटी पकड़ना होता है। इसकी कसौटी पर चिदंबरम का गृहमंत्रालय कितना विफल नजर आता है! शिंदे उस विफलता का अगला अध्याय भर लिख सकते हैं, जो देश का दुर्भाग्य गहरा करेगा।

और अब देश में कोई बिजली मंत्री ही नहीं है! ऊर्जा का संकट भारत को ही नहीं, सारी दुनिया को मथ रहा है। ऐसे में कोई ऊर्जावान व्यक्ति ऊर्जा का विभाग संभालता तो कांग्रेस की छवि साफ होती। इसकी जगह पार्टी ने वीरप्पा मोइली को ऊर्जा का अतिरिक्त प्रभार सौंप दिया ताकि कानून मंत्रालय छिन जाने का उनका गुस्सा तनिक शांत हो सके! देश के सभी प्रमुख ग्रिड अचानक बैठ गए और देश में ऐसा अंधेरा छाया कि जैसा इससे पहले कभी हुआ नहीं था।

सुशील कुमार शिंदे ने इसके जवाब में पहले तो राज्यों पर दोष डाला कि वे अपने हिस्से से ज्यादा बिजली खींचने में लगे थे, लेकिन जब सारे राज्यों ने प्रमाण के साथ उनकी बात को बेबुनियाद साबित कर दिया तो उन्होंने तुरंत बात बदल दी। वे तकनीकी खराबी की बात करने लगे और फिर यह भी कहने लगे कि दुनिया के दूसरे मुल्कों में भी ऐसी घटनाएं हुई हैं और उनकी तुलना में हमने जल्दी ही हालात पर काबू किया है। तकनीकी खराबी क्या थी और कैसे हुई थी जैसी बातें अभी तो सामने नहीं आई हैं, लेकिन शिंदे जरूर इनके दायरे से बाहर हो गए हैं। अब जो भी बात सामने आएगी उसका जवाब वीरप्पा मोइली देंगे और उनका जवाब यही होगा कि जब यह हुआ तब वे ऊर्जामंत्री नहीं थे।

क्या कांग्रेस इतनी विपन्न है कि उसके पास मंत्रालयों को संभालने के लिए योग्य प्रतिभाएं नहीं हैं? अगर ऐसा है तो फिर मंत्रिमंडल में किसी बड़े फेर-बदल की बात बेमानी है! फिर राहुल गांधी के लिए वह बड़ी भूमिका क्या है जिसकी चर्चा छेड़ने में कांग्रेस के कई विफल दिग्गज लगे हुए हैं?

अगर राहुल बड़ी भूमिका लेने को तैयार हैं और उनमें उसकी योग्यता भी है, ऐसा कांग्रेस मानती है तो गृहमंत्रालय संभालने से ज्यादा मौजूं बात आज क्या हो सकती थी? राहुल प्रधानमंत्री कब बनेंगे यह तो कोई नहीं जानता, लेकिन वे प्रधानमंत्री के बाद की सबसे महत्त्वपूर्ण जिम्मेवारी आज ही ले सकते हैं। हां, इसके लिए जरूरी है कि उनकी पार्टी उन्हें योग्य समझती हो! राहुल पर कांग्रेस का कितना विश्वास है यह बात चाटुकारिता से साबित नहीं होती है। यह बात इससे साबित होती है कि कांग्रेस राहुल को गंभीर जिम्मेवारियां देने से झिझकती है या नहीं। अब तक इसका पूरा अभाव रहा है।

कांग्रेस राहुल के साथ बच्चों-सा व्यवहार करती और उन्हें झुनझुना थमा कर खुश होती रही है। राहुल भी इसका मजा लेते रहे हैं कि बगैर कुछ किए-धरे रंग चोखा आ रहा है! कांग्रेस उन पर कितना विश्वास करती है, इसका दूसरा पहलू यह भी है कि राहुल साबित तो करें कि वे ऐसे विश्वास के योग्य हैं! अभी तक उनका कोई भी राजनीतिक कदम इसकी गवाही नहीं देता। फिर भी हम ऐसा मानते हैं कि कांग्रेस का अगर कोई भविष्य है तो उन नए युवाओं में है, जिन्हें राहुल गांधी ने ही चुना और संजोया है। कांग्रेस को अगर कहीं से जीवन मिलेगा तो इन्हीं से मिलेगा। ये युवा जबानी जमा-खर्च की वृत्ति न रखें और संगठन और सरकार में अपनी जगहें लें, तभी तो देश इन्हें देख-परख और इन पर विश्वास कर सकेगा।

यह परिवर्तन निराश ही नहीं करता, कांग्रेस के प्रति टूटता भरोसा और भी तोड़ता है। अगर अगला परिवर्तन होना है तो उससे यह संदेश जाना चाहिए कि कांग्रेस अपना कायाकल्प करने की क्षमता रखती है और साहस भी! यह संदेश अगर आज देश को दिया जा सका तभी उसे 2014 में देश से समर्थन   मांगने का अधिकार मिलेगा। अन्यथा वह मौका भी खोएगी और अधिकार भी।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/26420-2012-08-14-05-45-02


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