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न्यूज क्लिपिंग्स् | 'यह वह छत्तीसगढ़ तो नहीं जिससे मुझे इतना गहरा लगाव रहा है'-- इलिना सेन

'यह वह छत्तीसगढ़ तो नहीं जिससे मुझे इतना गहरा लगाव रहा है'-- इलिना सेन

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published Published on May 11, 2011   modified Modified on May 11, 2011
- इलिना सेन (सामाजिक कार्यकर्ता और डॉ बिनायक सेन की पत्नी )

आज, एक तरफ मैं बहुत खुश हूं और राहत की सांस ले रही हूं कि इस कठिन परीक्षा का यह हिस्सा लगभग समाप्त हो गया है. वहीं दूसरी ओर मैं बहुत बेचैन भी हूं- हमने देखा है कि राज्य का व्यवहार कितना शत्रुतापूर्ण रहा है. लेकिन हमने जिस तरह का जीवन बिताया है, न तो उसके बारे में कोई अफसोस है और न ही कुछ खो देने का एहसास. अब कम घटनापूर्ण और कम भयानक जीवन की आकांक्षा है. खैर, कुल मिलाकर यह मजेदार अनुभव रहा. बढ़िया जीवन रहा है.
बिनायक और मैंने छत्तीसगढ़ को अपना बहुत कुछ दिया है- जब इस राज्य के लिए किसी ने कुछ लिखना शुरू भी नहीं किया था उससे पहले से हम यहां काम कर रहे हैं. शोधार्थी या पत्रकार जो भी यहां आते वे सबसे पहले हमसे ही मिलते थे.

मेरा जन्म 1951 में हुआ था. मेरे पिता सेना में डॉक्टर थे, इसलिए हर तीन साल पर हमारा बसेरा बदल जाता था. हम हर जगह रहे: मैंने फरीदकोट में पंजाबी माध्यम के एक स्कूल से अपनी पढ़ाई की शुरुआत की. उसके बाद बहुत वक्त जबलपुर में गुजरा और आखिर में शिलांग में मेरी स्कूलिंग खत्म हुई. कलकत्ता के लेडी ब्रेबॉन कॉलेज में इतिहास की पढ़ाई करने के बाद अंग्रेजी में जबलपुर से एमए किया. यहीं मेरे माता-पिता बस गए. इतिहास की पढ़ाई बहुत काम की साबित हुई, इसने मेरे हर काम को एक खासनजरिया दिया. साहित्य तो मजे के लिए था. मैंने दो अमेरिकी कवियों फ़्रॉस्ट और डिकिंसन को खूब पढ़ा. फिर मैंने कुछ असल जिंदगी और सचमुच के लोगों के बारे में पढ़ना चाहा, इसलिए मैंने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमफिल और पीएचडी की. मैंने 1984 में जो पीएचडी थीसिस जमा की थी वह भारत में घटते लिंगानुपात पर हुए शुरुआती शोधों में से एक था. यह 1901 से 1981 तक की भारत की जनगणना पर आधारित था.

' पिछले कुछ वर्षों के दौरान मेरे मन में गहरी असुरक्षा का भाव रहा है लेकिन इनके बाद भी मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी'

बिनायक के पिता भी सेना में डॉक्टर थे और हमारा परिवार अकसर एक-दूसरे से मिलता रहता था. हम बचपन में जरूर मिले होंगे लेकिन सही मायने में हमारी मुलाकात युवावस्था में जबलपुर में हुई. एक व्यक्ति के तौर पर बिनायक बहुत आकर्षक तो हैं ही, उनका व्यक्तित्व भी उतना ही प्रभावशाली है. वयस्क होने पर जब मैं उनसे पहली बार मिली तो वे बहुत मृदुभाषी और नम्र लगे थे. मैंने जल्दी ही यह महसूस कर लिया कि वे एक लोकतांत्रिक व्यक्ति हैं, जिनके साथ रहा जा सकता है. वे न तो जिद्दी लगे, न ही पुरुष सत्ता के पक्षधर. उनके साथ कोई भी आगे बढ़ सकता था. मुझे उनके साथ सहज होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. उन दिनों हम एक-दूसरे को चिट्ठियां लिखा करते थे और ट्रंक कॉल बुक करके आपस में बात करते थे. 21 वर्ष की छोटी उम्र में शादी कर लेना अजीब तो लगा, लेकिन हमने महसूस किया था कि हम अपनी जिंदगी साथ मिलकर, साथ रहकर बनाना चाहते थे.

मेरी छोटी बहन की मृत्यु क्रॉन की बीमारी की वजह से 13 वर्ष की अवस्था में ही जबलपुर में हो गई थी. ऐसी घटना एक मध्यवर्गीय परिवार को सदमे में डाल देती है. मेरे कोई और भाई-बहन भी नहीं थे और उसकी मृत्यु ने हमें बुरी तरह झकझोर दिया था. मेरी और बिनायक की दादी के कुल 8-9 बच्चे थे और दोनों ने ही उनमें से एक या दो खोया था, लेकिन हमारे माता-पिता की पीढ़ी के लिए यह वैसा नहीं था. अब सोचने पर मुझे लगता है कि शायद मेरे एक हिस्से ने सोचा होगा कि शादी करके इन सब चीजों से पार पा लिया जाए.

तमिलनाडु के वेल्लोर में बिनायक ने जब रेसिडेंसी का प्रशिक्षण शुरू किया, तब मैंने पहली बार चेन्नई में समंदर देखा था. यह हैरान कर देने वाला नजारा था. मैंने वहां के एक स्कूल में दो साल के लिए अंग्रेजी पढ़ाई जो बहुत मजेदार अनुभव था, हालांकि मैंने इसके लिए कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था. सारे उम्मीदवारों में उन्होंने मुझे बस इसलिए तरजीह दी थी कि उन्हें लगा कि तमिल नहीं जानने की वजह से मैं अधिक गंभीरता से पढ़ाऊंगी. बिनायक और मैं दोनों साथ ही 1978 में दिल्ली के जेएनयू में पीएचडी के लिए गए, लेकिन वे वहां टिक नहीं सके क्योंकि वे जमीनी काम करने के लिए व्यग्र थे. उनके पास एक तो शोध के लिए जरूरी धैर्य नहीं था और दूसरा सीनियर फैकल्टी से भी उनकी खटपट थी. आखिरकार उन्होंने साल भर के भीतर ही यूनिवर्सिटी छोड़ दी जबकि मैं वहां टिकी रही.

' बहुत सारे बुद्धिजीवी हमसे मिलने आते थे. हमें एहसास था कि हम एक दीर्घकालिक और समतावादी समाज बनाने की प्रक्रिया में शामिल हैं. छत्तीसगढ़ी समाज ऊर्जा से भरा हुआ था'

दिल्ली में मैं बहुत सारी चीजों से रूबरू हुई, इनमें से सबसे अहम था महिला आंदोलन का अनुभव. मानुषी और सहेली जैसे समूह थे. आपातकाल तब खत्म ही हुआ था. नोआम चोम्स्की और एबी वाजपेयी के रूप में हमें बेहतरीन वक्ता मिले. इस वक्त का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा. आईसीसीआर (भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद) द्वारा वुमन स्टडीज के लिए स्कॉलरशिप हासिल करने वाली मैं पहली छात्र थी. बाद में इसी के संबंध में मैंने होशंगाबाद में फील्ड वर्क करना शुरू किया था. बिनायक छत्तीसगढ़ के दल्ली-राजहरा जहां खदान की दो परियोजनाएं शुरू होनी थीं, में अस्पताल बनाना चाहते थे. यहां वे 1981 से काम कर रहे थे. मैंने 1984 में उनके साथ फुल-टाइम काम करना शुरू कर दिया. छत्तीसगढ़ी भाषा और वहां की सभ्यता को मैं बिनायक की तुलना में ज्यादा आसानी से समझने लगी थी. भाषाओं में मैं हमेशा से अच्छी रही हूं.

वह जगह और दौर, दोनों बहुत लुभावने थे. मैं हमेशा नये रिश्ते और नयी जगहों को तलाशने में आगे रही हूं. जोखिम उठाना मुझे अच्छा लगता है. तब ऐसा लगता था मानो सारी दुनिया छत्तीसगढ़ की तरफ उमड़ रही हो और सारे  झोलेवाले भाई वहीं बस गए हों. यह एक सामाजिक अनुभव था. बहुत सारे बुद्धिजीवी हमसे मिलने आते थे. हमें एहसास था कि हम एक दीर्घकालिक और समतावादी समाज बनाने की प्रक्रिया में शामिल हैं. छत्तीसगढ़ी समाज ऊर्जा से भरा हुआ था. मध्य प्रदेश, जहां मैं पली बढ़ी, में तब भी घूंघट और लिंगभेद कायम थे. मुझे छत्तीसगढ़ से प्यार हो गया. यहां की औरतें प्रेरणास्रोत थीं. वे बहुत मजबूत और सुलझी हुई थीं. यहां मजदूर यूनियन में 5,000 महिला सदस्य थीं. मैंने दुर्गा बाई जैसी महिलाओं को दोस्त बनाया जो खदानों में काम करती थीं और किसी लिहाज से पुरुषों से कमतर नहीं थीं. वहां लोगों का संगठन भी जबर्दस्त था.

सही वक्त पर सही जगह होने के मामले में मैं बहुत भाग्यशाली रही हूं. ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में सभी वर्गों के लोगों से मेरे अच्छी मित्रता रही है. मैं अपने दोस्तों के पास जाकर उनके पेड़ से पके हुए सेब तोड़ सकती हूं क्योंकि मुझे उसके पकने का सही समय मालूम है. ग्रामीण भारत में रहना चुनौतियों से भरा है जैसे शौचालयों का न होना, लेकिन ये सब मामूली दिक्कतंे हैं. अब जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही है और गठिया की शिकार हो रही हूं, नयी दिक्कतें दिख रही हैं. तब मुझे लिखने के लिए बिजली की जरूरत थी क्योंकि मुझे हमेशा बच्चों के सो जाने के बाद रात में लिखने की आदत थी.

मेरे और बिनायक के बीच एक लड़ाई थी. जब 1984 में मैं दल्ली-राजहरा में रहने आई थी, वे एक मजदूर परिवार के साथ रह रहे थे. मैं इसे रहने के स्थायी तरीके के बतौर स्वीकार नहीं कर सकती थी- मैं इस तरह नहीं रहना चाहती थी. वह परिवार हमें बहुत चाहता था, लेकिन आप किसी और के घर में अनिश्चितकाल के लिए नहीं रह सकते हैं. आखिरकार हमने एक फ्लैट में रहना शुरू किया. बिनायक बहुत जुनूनी हैं लेकिन वे कई बार आगे की चीजें नहीं सोचते. मैं उनसे अधिक सचेत रहती हूं, और आगे की सोचकर चलती हूं.

1988 में हम रायपुर चले गए जहां मैंने लोगों के विकास पर केंद्रित एनजीओ 'रूपांतर' शुरू किया. नगरी-सिहावा क्षेत्र के गोंड और कमर जनजातियों के साथ मिलकर हमने काम शुरू किया, जो बांध परियोजनाओं की वजह से विस्थापित होकर जंगल में रहने को विवश थे. वहां कोई स्कूल, कोई सामाजिक संस्था नहीं थी. बिनायक स्वास्थ्य से जुड़े कार्यों में रहते जबकि मैं बच्चों के लिए पढ़ाई-लिखाई की तैयारियां करती. वह समाज बहुत ही सहयोगी रुख वाला था. कमर जनजाति के बच्चे शिक्षा के बदले कुछ न कुछ बनाकर देने की पेशकश करते थे. आदिवासी समुदाय का चीजों को देखने का नजरिया बिलकुल अलग था लेकिन उनमें उत्साह देश के दूसरे हिस्सों के लोगों से कम नहीं था. और उनमें एकता थी. शोध करने, लिखने और परामर्श देने का मेरा काम जारी रहा. मैंने दो किताबें लिखीं : वुमन पार्टिसिपेशन इन पीपल्स स्ट्रगल और माइग्रेंट वुमन ऑफ छत्तीसगढ़. वर्ष 2004 से ही मैं वर्धा (महाराष्ट्र) के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी माध्यम में वुमन स्टडीज पढ़ाने के लिए जाती रहती थी और 2006 में मैं वहीं रहने भी लगी. बिनायक छत्तीसगढ़ में ही रहे जहां माहौल गरम होता जा रहा था, लोकतांत्रिक जगह लगातार सिकुड़ रही थी. 2005 में सलवा जुडुम अस्तित्व में आ चुका था और यह सब सहज नहीं था. वक्त बदला है. हमारी बेटियों का जीवन हमसे बिलकुल अलग है. प्रणिता चेन्नई में सिनेमेटोग्राफर है जबकि अपराजिता मुंबई में बीए कर रही है. वे अपनी जिंदगी अपने हिसाब से बनाएंगी.

छत्तीसगढ़ मेरे लिए हमेशा प्यारा रहा है. यहां के लोग बहुत ही जीवंत हैं प्रेम और तलाक जैसे मुद्दों पर उनका आधुनिक नजरिया आकर्षित करता है. लेकिन यहां सार्वजनिक चर्चा मायूस करने वाली रही है. इनमें अज्ञानता और अहंकार का मिला-जुला रूप दिखता है जो बहुत घातक है. छत्तीसगढ़ी मीडिया यहां के स्थानीय लोगों की बड़ी सोच को नहीं दिखाता. इसका दृष्टिकोण बिलकुल संकुचित है. पिछले वर्ष 24 दिसंबर की सुबह जब बिनायक को उम्र कैद की सजा सुनाई गई थी तो मुझे इस पर यकीन नहीं हुआ. मुझे लगा कि यह सच नहीं हो सकता. लेकिन फिर मुझे लगा कि जब लोग 10-20 साल बाद इस केस का विश्लेषण करेंगे तो सच सामने आ जाएगा. बाद में जब मेरा नाम भी कोर्ट में घसीटा गया तो मुझे खुद का अस्तित्व भी खतरे में दिख रहा था. मुझे बुरे सपने आते थे, माइग्रेन से मैं परेशान थी. ऐसा दौर भी आया जब मैंने पांच-पांच रातें लगातार बिना सोए गुजार दीं. इस सबके बावजूद मुझे अपने बच्चों के साथ एक तथाकथित सामान्य कामकाजी जीवन जीना था.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान मेरे मन में गहरी असुरक्षा का भाव रहा है, लेकिन इनके बाद भी मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी. मुझे हमारे सही होने का दृढ़ विश्वास था. सच हमारे पक्ष में था. और वकील, मीडिया का एक खास हिस्सा, पुराने दोस्त और हमारा परिवार, ये सब हमारे साथ रहे. लोगांे का समर्थन तो था ही. मैं फ़्रॉस्ट और डिकिंसन को पढ़ती रही और दोस्तों को भी इसमें भागीदार बनाती रही. मैं कभी हार मानने जैसा महसूस नहीं करती थी. मैं अभी भी अमन की तलाश में हूं लेकिन इसमें वक्त लगेगा. 2007 से पहले मेरा ध्यान छत्तीसगढ़ और वहां के महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे विस्थापन आदि पर हुआ करता था. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मैंने संवैधानिक मूल्यों वाले व्यापक फलक केे मुद्दों को भी देखा-समझा है. संविधान कई वादे करता है, लेकिन इसके द्वारा दिए गए ज्यादातर अधिकारों की जड़ें जमीन पर नहीं दिखतीं.

बौद्धिक और स्थानिक दोनों ही दृष्टिकोण से चीजों को देखने का मेरा नज़रिया अब बड़ा हुआ है. मैंने भारत की इस विषमता को भी अच्छे से समझा है कि यह 'एक भारत' नहीं है. चाहे मीडिया हो, अदालतें हों या फिर सरकार हो, सब बंटे हुए हैं. हमारे जीवन में राज्य की भूमिका पर दोबारा बहस होनी चाहिए. हम जितने लोकतांत्रिक तरीके से यह बहस करेंगे, हमारा भविष्य उतना ही अच्छा होगा. उदाहरण के लिए अगर अन्ना हजारे की राजनीति को किनारे भी रखकर देखिए तो लोकपाल बिल को कितना भारी समर्थन मिला.

इन कठिन वर्षों ने मुझे विश्वास भी दिया और अनिश्चितता भी. बहुतों पर से मेरा भरोसा उठा. अब जब भी मैं किसी से मिलती हूं तो उसे परखती हूं और उसी हिसाब से उससे बात करती हूं. मेरे लिए यह भी बहुत तकलीफदेह है कि मुझे यह नहीं पता कि मेरा घर अब कहां है. इस सदमे से अब तक मैं नहीं उबर पाई हूं कि मैं विस्थापित हूं, अब खुद को किसी स्थान विशेष का नहीं बता सकती.

समझना मुश्किल है कि उस छत्तीसगढ़ का क्या हुआ जिससे मैं प्यार करती थी. इस जगह के लिए मेरे मन में बहुत ममता थी. मुझे अब भी यहां के लोगों से प्यार है, लेकिन अब यह राज्य पहले से अलग है. हमारे साथ जो भी हो रहा था उसे अखबार वाले चटखारे ले-लेकर हेडलाइनों में छाप रहे थे. दुर्भावनाओं के ऐसे कई उदाहरण मुझे दिखे. मैंने रायपुर में बिनायक को फांसी पर चढ़ाने की मांग करने वाले पोस्टर देखे. ये वह छत्तीसगढ़ नहीं है, जिसे मैं प्यार करती थी. मैं उम्मीद करती हूं कि मैं उस छत्तीसगढ़ को दुबारा ढूंढ़ सकूं.

आज भी बिनायक के अंदर मौजूद लोकतांत्रिक व्यक्ति के लिए मेरे मन में सम्मान है. पिछले वर्ष 24 दिसंबर को जब मैंने सुना कि उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई है तो मैंने महसूस किया कि अभी बहुत कुछ था जो हम आपस में बांट सकते थे, बहुत कुछ था जो मैं उन्हें कहना चाहती थी पर नहीं कह पाई. हमारे पास एक-दूसरे के साथ मिलकर अभी देखने-जानने के लिए बहुत सारी चीजें हैं और मैं इसकी राह देख रही हूं.

(इलिना सेन चर्चित मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन की पत्नी हैं. यह लेख गौरव जैन से उनकी बातचीत पर आधारित है)

http://www.tehelkahindi.com/rajyavar/%E0%A4%9B%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%97%E0%A4%A2%E0%A4%BC/%26%23039%3B%E0%A4%AF%E0%A4%B9-%E0%A4%B5%E0%A4%B9-%E0%A4%9B%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%


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