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न्यूज क्लिपिंग्स् | राजनीतिक दबाव व पुलिस की बेबसी के चलते यूपी में है जंगल राज- नीलांशु शुक्ल

राजनीतिक दबाव व पुलिस की बेबसी के चलते यूपी में है जंगल राज- नीलांशु शुक्ल

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published Published on Jul 5, 2016   modified Modified on Jul 5, 2016
मैं बीते चार सालों से दिल्ली में नौकरी कर रहा हूं। मूल रूप से यूपी के औद्योगिक केंद्र कानपुर का रहने वाला हूं। अधिकतर लोग जिन्हें बताता हूं कि मैं यूपी का रहने वाला हूं वो एक ही बात कहते हैं कि वहां क़ानून-व्यवस्था बेहद ख़राब है। कभी-कभी तो यूपी के प्रति लोगों की इस मानसिकता पर बेहद गुस्सा आता है, लेकिन प्रदेश में दिनोंदिन बिगड़ रही क़ानून व्यवस्था को देखकर यही लगता है कि लोग ग़लत नहीं बोलते हैं।

यूपी की जनसंख्या लगभग बीस करोड़ है और यूपी पुलिस की वेबसाइट के मुताबिक प्रदेश में इतनी बड़ी जनसंख्या की सुरक्षा के लिए महज़ 2.5 लाख पुलिसकर्मी हैं। मतलब प्रदेश में दस लाख लोगों के मुकाबले महज़ 125 पुलिसकर्मी हैं। प्रदेश के लगभग 45 फीसदी पुलिस पोस्टों में ताला लगा रहता है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पुलिस फ़ोर्स की भारी कमी के चलते कानून व्यवस्था का बुरा हाल है, लेकिन अपराध बढ़ने की सबसे बड़ी वज़ह है पुलिस फ़ोर्स पर राजनीति का भारी पड़ना।

2012 में सपा सरकार के आते ही उत्तर प्रदेश दंगों की आग में जल उठा। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार के पहले ही साल में मुजफ्फरनगर, शामली, फैज़ाबाद, बरेली व आजमगढ़ में सांप्रदायिक दंगे हुए, जिसमें दर्जनों लोगों को जान गंवानी पड़ी। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में बीते चार सालों में 50 से ज़्यादा सांप्रदायिक घटनाएं हुई हैं। एनसीअरबी के मुताबिक़ हर 45 घंटे में प्रदेश के किसी हिस्से में एक पुलिस वाले के साथ मारपीट की जाती है।

देश के कुल क्राइम का 12 से 15 प्रतिशत हर साल केवल यूपी में होता है। गुंडे बदमाश ही नहीं, बल्कि प्रदेश सरकार में मंत्री विधायक भी पुलिस वालों को प्रताड़ित करने में पीछे नही रहे। 2013 में कुंडा के डीएसपी ज़िया उल हक़ की हत्या का मामला तो याद ही होगा। डीएसपी ज़िया अपने क्षेत्र में हुई झड़प को शांत कराने गए थे, लेकिन प्रदेश सरकार में मंत्री व बाहुबली राजा भैया के गुर्गों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया था। इससे पहले भी राजा भैया पर एक दरोगा के ऊपर ट्रक चढ़वाकर मार डालने का आरोप था। ज़िया उल हक़ की हत्या के मामले में राजा भैया पर सीबीआई जांच बैठी, लेकिन सरकारी पैठ के कारण उन्हें सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया।

सरकार के दूसरे मंत्री राम मूर्ति वर्मा ने कुछ दिनों पहले एक थानाध्यक्ष को फ़ोन पर डराया धमकाया था। कानपुर के विधायक इरफान सोलंकी के छोटे भाई ने बीते वर्ष एक दरोगा के साथ मारपीट की थी। उस दरोगा का कसूर सिर्फ इतना था की उसने वाहन चेकिंग के दौरान विधायक के भाई से गाड़ी के कागज़ात मांग लिए थे। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद यूपी पुलिस की पूरी देश व दुनिया में किरकिरी हो रही थी, तब पुलिस प्रदेश के सबसे ताकतवर मंत्री आज़म ख़ान की खोई हुई भैंसों की तलाश में लगी हुई थी।

पुलिस पर नेताओं का खौफ़ इस कदर हावी है कि 2013 में एटा में एक कार्यक्रम के दौरान ज़िले के एसएसपी व आईपीएस अफ़सर अजय मोहन शर्मा ने भरी महफ़िल में पार्टी महासचिव व मुलायम के भाई रामगोपाल यादव के पैर तक छू लिए थे। कई ऐसी घटनाएं भी सामने आयीं, जब सपाइयों ने थानों में घुसकर अपराधियों को छुड़ाया है पर राजनीतिक दबाव के कारण पुलिस हाथ मल कर बैठी रही। सपा सरकार में आज आप एसयूवी गाड़ी में पार्टी का झंडा लगाकर खुले आम सड़कों पर यातायात नियमों का उल्लंघन कर सकते हैं, लेकिन पुलिस की मज़ाल नहीं की वह आपको रोक सके।

अखिलेश सरकार बनने के बाद यूपी में कई युवा व तेज़ तर्रार आईपीएस अफसरों को जोन व ज़िलों का प्रभार दिया गया, जोकि ईमानदार थे और जहां रहे वहां अपराधियों के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन धीरे-धीरे ये सभी अफसर राजनीति का शिकार हो गए। लुखनऊ के डीआईजी रहे नवनीत सिकेरा ने रमेश कालिया समेत कई कुख्यात अपराधियों का एनकाउंटर किया। नवनीत जहां रहे उस ज़िले का क्राइम ग्राफ तेज़ी से गिरा, लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते वह बीते कई महीनों से महिला सेल में कार्यरत हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एनकाउंटरों की झड़ी लगाने वाले अमिताभ यश यातायात विभाग में डाल दिए गए, जबकि लखनऊ व उसके आसपास के इलाकों में अपराधियों के पसीने छुड़ाने वाले अखिल कुमार ने राजनीति हस्तक्षेप से हार मानकर यूपी काडर ही छोड़ दिया। बाहुबली श्री प्रकाश शुक्ला व वाराणसी धमाकों में नामज़द लश्कर आंतंकी सलर जंग को ढेर करने वाले अधिकारी राजेश पांडेय आज एटीएस में धूल फांक रहे हैं।

कानपुर में आईजी रहे आशुतोष पाण्डेय राष्ट्रपति पदक विजेता हैं। उन्होंने अपने पुलिस करियर में 30 से ज़्यादा एनकाउंटर किए हैं और कई किडनैपिंग की घटनाओं को सुलझाया है। राजनीतिक दबाव के कारण उनका भी तबादला रेलवे पुलिस में कर दिया गया। आईजी आशुतोष के तबादले के खिलाफ़ कानपुरवासियों ने कई दिनों तक आंदोलन भी किया, लेकिन सरकारी महकमे में इसका कोई भी असर नहीं हुआ। ताज़ा वाक्या गोरखपुर का है जहां सरकार ने सपा के ज़िला अध्यक्ष की शिकायत पर पुलिस अधिकारी अनन्त देव को निलंबित कर दिया, जिन्होंने यूपी के सबसे कुख्यात डकैत ददुआ को मुठभेड़ में मार गिराया था।

वहीं गैंगस्टर मुख़्तार अंसारी के आगरा जेल से लखनऊ स्थानांतरण का विरोध करने वाले एक एडीजी का भी शासन ने हाल ही में तबादला कर दिया। मशहूर आरुषी हत्याकांड की जांच करने वाले आईपीएस अरुण कुमार यूपी के एडीजी लॉ एंड आर्डर थे, जिनकी गिनती बेहद ईमानदार अफसरों में की जाती है। उन्होंने भी राजनीतिक दबाव से हार मानकर यूपी काडर ही छोड़ दिया। ईमानदारी से काम करने वाले एक के बाद एक पुलिस अफसर राजनीति का शिकार बनते रहे, ऐसे में पुलिस का मनोबल कैसे बढ़ सकता है।

यूपी के सीएम अखिलेश यादव की बदौलत भले ही प्रदेश पुलिस हाई टेक हुई हो, लेकिन पुलिस पर राजनीतिक दबाव कानून व्यवस्था को और बिगाड़ता जा रहा है। मथुरा के जवाहर बाग में हुआ हादसा सबसे भयावह है। सरकार की सरपरस्ती के चलते सैकड़ों एकड़ में फैले जवाहर बाग में सैकड़ों लोग दो साल तक कब्ज़ा कर रहते रहे। हथियार इकठ्ठा कर मानो किसी जंग की तैयारी करते रहे। जब कोर्ट के आदेश पर पुलिस पार्क से कब्ज़ा हटवाने पहुंची तो उपद्रवियों ने ज़िले के एसपी व स्थानीय पुलिस स्टेशन के थानाध्यक्ष संतोष यादव की बेरहमी से हत्या कर दी। इस मामले में भी असंवेदनशील सरकार ने पूरे घटना क्रम के लिए जिला प्रशासन व पुलिस को ही ज़िम्मेदार ठहराया।

यूपी ही शायद देश का एकमात्र राज्य है जहां राजनीतिक वजहों से चार सालों में आठ डीजीपी बदल चुके हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के नेतृत्व में यूपी में भले ही बीते दो सालों में विकास बहुत तेज़ी से बढ़ा है, लेकिन कानून व्यवस्था को सुधारने में वह पूरी तरह फेल हुए हैं। अगर 2017 के चुनाव में सपा को करारी हार झेलनी पड़े तो इसकी सबसे मुख्य वजह राजनीतिक दबाव के चलते बढ़ रहा जंगल राज ही होगा।

नीलांशु शुक्ला NDTV 24x7 में ओबी कन्ट्रोलर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।


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