Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | राजनीतिक बिसात पर आंबेडकर- कुमार प्रशांत

राजनीतिक बिसात पर आंबेडकर- कुमार प्रशांत

Share this article Share this article
published Published on May 6, 2015   modified Modified on May 6, 2015
बिहार का आसन्न चुनाव कितने नये रंग बिखेर रहा है! एक नया परिवार ही जन्म लेने, न लेने के पसोपेश में पड़ा है, तो एक नया आंबेडकर भी पूजा के स्थान पर प्रतिष्ठित किया जा रहा है. 

यह कितना अजीब है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जिन्होंने कभी भाग नहीं लिया; जो आजादी की लड़ाई में कभी जेल नहीं गये; आजादी की लड़ाई की जगह जिन्होंने वॉयसराय के दरबार की सदस्यता को अहम माना; जिन्होंने खुलेआम कहा कि आजादी तब तक इंतजार करे, जब तक कि हमारे लोगों की सत्ता में भागीदारी पक्की नहीं हो जाती है, वही आंबेडकर आजाद भारत में आज सबसे कद्दावर नजर आ रहे हैं. 

आंबेडकर की ताकत का यही रहस्य भी है कि उन्होंने अपना कद इतना बड़ा कैसे किया होगा कि वे भारतीय संविधान सभा की मसविदा समिति के अध्यक्ष भी बने, भारतीय संविधान को लिपिबद्ध करने का गुरुतर भार भी वहन किया और नेहरू की अनिच्छा के बावजूद, महात्मा गांधी के मजबूत निर्देश पर आजाद मुल्क की पहली सरकार में विधि मंत्री भी बने और फिर भी विपक्ष की भूमिका निभाते रहे. 

इसे समङो बगैर आज जिस तरह आंबेडकर की पूजा की जा रही है, वह उनका अपमान तो है ही, अपने मुंह पर कालिख पोतने जैसा भी है. पीड़ाजनक यह है कि आंबेडकर का अपमान करते हुए, उनकी विरासत का खोखला दावा करने में हिंदुत्ववादी और दलितवादी, दोनों ही निर्लज्जता से शामिल हैं.

आंबेडकर-प्रेम की यह ताजा लहर बिहार के चुनाव की वजह से तेज हो उठी है. ऐसा लगता है, आंबेडकर को रोकने के लिए आंबेडकर को खड़ा किया जा रहा है. दरअसल, लोकसभा के चुनाव में मिली जीत से पूरा हिंदुत्ववादी कुनबा खिल उठा था. मोहन भागवत ने कहा कि यह जीत भारतीय समाज में उठ रही लहर का परिणाम है. कौन-सी लहर? क्या समता की, सामाजिक न्याय की, अंत्यजों की प्रतिष्ठा और उनके लिए समान अवसर की कोई लहर उठी?

खोखले राजनीतिक निष्कर्ष कभी नहीं टिकते हैं. मोहन भागवत जिसे ज्वार समझने-समझाने में लगे थे, वह तुरंत ही भाटे में बदलने लगा और राज्यों के चुनाव में वह भव्य तंबू ढीला पड़ गया. संघ, उसकी सरकार और भाजपा ने भी पूरा जोर लगाया, लेकिन महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर में वह रंग नहीं जमा. और फिर रही-सही कसर दिल्ली ने निकाल दी! राजनीतिक अवसरवादिता और छद्म का पलड़ा इस बार ‘आप' की तरफ झुका था.

केजरीवाल इस खेल में मोदी से कहीं बड़े मोदी साबित हुए. लेकिन सत्ता में पहुंचने के बाद वे भी अपनी चमक खो बैठे, जिस तरह संघ खो रहा है. भारतीय समाज की सच्चाई ऐसी है, जो सबका मुलम्मा उतार देती है और फिर आपके पास धोने-निचोड़ने को सत्ता के अलावा कुछ बचता नहीं है.

आंबेडकर-भक्तों की नयी जमात में संघ परिवार ने अभी-अभी दाखिला लिया है. नारे-मुखौटे और तर्क बदलने में इस जमात को महारत हासिल है. 

आंबेडकर को हजम करने की इस ताजा कोशिश में हिंदुत्ववादियों का सरकारी नेतृत्व और संगठन-नेतृत्व, दोनों जुटे हुए हैं, लेकिन कोई यह नहीं बता रहा है कि भारतीय समाज का जो नक्शा आंबेडकर के मन में था, उसके साथ हिंदुत्व के दर्शन की संगति कैसे बैठती है? 

आंबेडकर के नक्शे में सदियों से दमित-शोषित लोग अपना स्वाभिमान, अपनी सत्ता और अपना अवसर पाते थे. जिन्हें वह नक्शा कबूल नहीं है, वे आंबेडकर को पचायेंगे कैसे? आंबेडकर के जीते-जी हिंदुत्ववादियों में से शायद ही किसी ने उनके समर्थन में कुछ कहा हो. वैसे अपने बचाव में संघ यदि यह कहे कि भारतीय राजनीति के फलक पर सत्ता के जितने भी दावेदार हैं, उनमें से कौन है जो अपना नकली आंबेडकर खड़ा कर उसे पूजने का ढोंग नहीं कर रहा है, तो इन सबके लिए मुंह छिपाने की जगह खोजना मुश्किल हो जायेगा.

बिहार हारे तो फिर कहने को कुछ बाकी नहीं रहेगा, यह संघ भी समझ रहा है और बिहार की राजनीति के दूसरे खिलाड़ी भी. बिहार के चुनाव परिणाम का असर पश्चिम बंगाल पर भी पड़ेगा. 

इसलिए ममता बनर्जी रोज अपनी रणनीति बनाती-मिटाती जा रही हैं, क्योंकि सवाल उनके सामने भी वही है कि सत्ता हाथ से गयी तो बचेगा क्या? यानी सत्ता भारतीय राजनीति का वह सच है, जिसके सामने कोई भी दूसरा सत्य टिकता नहीं है- आंबेडकर भी नहीं! इसलिए खंड-खंड पाखंड पर्व मनाती दलित राजनीति आज कहीं भी नहीं बची है. इसके दो उदाहरण मायावती और रामदास आठवले हैं, जिनके पास आज दलित समाज से कहने-करने का कुछ बचा नहीं है, क्योंकि उनकी गाड़ी आज तक सत्ता के ईंधन से ही चलती-दौड़ती रही है; और वह ईंधन अब चुक गया है.

आंबेडकर सत्ता को पहचानते थे. वे महात्मा गांधी के विरोधी ही नहीं थे, बल्कि उनके विपरीत भी थे और इसे ही उन्होंने अपना हथियार भी बनाया. आंबेडकर का तब दलित समाज में बहुत सीमित असर था. वे अपने लोगों का पूर्ण समर्थन जुटा कर कभी चुनाव नहीं जीत सके, लेकिन उनका सामाजिक असर गहरा था. 

उन्होंने दलित समाज में और प्रकारांतर से संपूर्ण भारतीय समाज में जितनी लहरें पैदा कीं, उसका दूसरा कोई उदाहरण नहीं है. अपनों के लिए सत्ता का संधान करते हुए, वे अपने समाज के लिए शक्ति का संधान करना नहीं भूले. 1950 से 52 तक जिस संविधान को रचने में वे जुटे रहे, 1953 में उसी संविधान को उन्होंने सार्वजनिक रूप से अस्वीकार किया, तो वे इसे एक व्यक्ति का नहीं, पूरे दलित समाज का सवाल बनाने में सफल हुए. 

वे एक ऐसे राज्य की कल्पना करते थे, जो धार्मिक अनाचार के मामलों में दलितों के साथ खड़ा होगा. क्या संघ ऐसी अवधारणा के साथ खुद को जोड़ेगा? जबकि उसकी मान्यता है कि धर्म और धार्मिक क्रिया-कलाप आस्था के विषय हैं, इसलिए वे राज्य और न्यायपालिका के अधिकार-क्षेत्र से बाहर हैं.

आंबेडकर ने जब कहा कि वे जन्मे भले हिंदू हैं, लेकिन हिंदू मरेंगे नहीं, तो यह केवल उनकी निजी पीड़ा की अभिव्यक्ति भर नहीं थी, बल्कि एक ऐसे संकल्प की घोषणा थी, जिससे दलित समाज ने खुद को फौरन जोड़ लिया.

जब उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, तो उस ‘धम्म दीक्षा' में सैकड़ों दलित शामिल हुए. धर्मातरण की सार्थकता-निर्थकता पर बहस न करके हमें यह समझना है कि उनका अपने समाज के साथ कैसा जुड़ाव था. आज आंबेडकर का राजनीतिक इस्तेमाल सारी मर्यादाएं तोड़ गया है, और दलित समाज को उच्छिष्ट की तरह छोड़ गया है. 

लेकिन इस चातुरी में वक्ती सफलता भले मिल जाये, अंतत: वैसी ही विफलता मिलेगी, जैसी मायावती और कांग्रेस को मिली. संघ परिवार ने इसका गणित लगा लिया है- आंबेडकर यदि बिहार में नैया पार लगा देते हैं, तो उनका काम खत्म; आगे के लिए कोई दूसरा आंबेडकर खोजेंगे!

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/423510.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close