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न्यूज क्लिपिंग्स् | राजस्थान में लोकसेवकों और जजों पर परिवाद दायर करना होगा मुश्किल, अध्‍यादेश जारी

राजस्थान में लोकसेवकों और जजों पर परिवाद दायर करना होगा मुश्किल, अध्‍यादेश जारी

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published Published on Oct 23, 2017   modified Modified on Oct 23, 2017
जयपुर। राजस्थान सरकार ने अपने लोकसेवकों, जिला जजों और मजिस्ट्रेट आदि को ऐसा अभयदान दे दिया है, जिससे न सिर्फ उनके खिलाफ कोर्ट में परिवाद दायर करना मुश्किल हो गया है, बल्कि किसी ने परिवाद दायर किया है तो सरकारी मंजूरी के बिना उसे प्रकाशित करना तक अपराध बन गया है।


ऐसे मामले प्रकाशित करने पर दो साल तक की सजा हो सकती है। हां, थाने में दर्ज एफआईआर कोर्ट के समक्ष आती है तो उस स्थिति में कोर्ट को सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है।


राजस्थान सरकार ने हाल में एक अध्यादेश जारी किया है। इसमें भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में संशोधन किए हैं, जो राजस्थान में ही लागू होंगे।


इस अध्यादेश के मुताबिक ड्यूटी के दौरान किसी वर्तमान या पूर्व लोकसेवक, जिला जज या मजिस्ट्रेट की कार्रवाई के खिलाफ कोर्ट में परिवाद दायर किया जाता है तो कोर्ट उस पर तब तक जांच के आदेश नहीं दे सकता, जब तक कि सरकार की स्वीकृृति न मिल जाए।


परिवाद पर जांच की स्वीकृृति के लिए 180 दिन की मियाद तय की गई है। इस अवधि में स्वीकृृति प्राप्त नहीं होती है तो यह माना जाएगा कि सरकार ने स्वीकृृति दे दी है।


इसके साथ ही एक संशोधन यह भी किया गया है, जब तक सरकार की ओर से स्वीकृृति प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक जिस लोकसेवक के खिलाफ परिवाद है उसका नाम, पता, पहचान उजागर नहीं की जा सकेगी।


ऐसा किया जाता है तो दो साल तक की सजा हो सकती है। माना जा रहा है कि यह अध्यादेश चुनाव के समय दायर होने वाली फर्जी शिकायतों पर रोक लगाने के उद्देश्य से लाया गया है। इसी तरह का अध्यादेश महाराष्ट्र सरकार भी पारित कर चुकी है, लेकिन उसमें समय सीमा सिर्फ 90 दिन थी और प्रकाशित करने पर रोक या सजा का प्रावधान नहीं था।


अब तक यह होता था


अब तक ऐसे मामलों में यह होता था कि कोई भी व्यक्ति किसी लोकसेवक के खिलाफ कोर्ट में परिवाद दे देता था तो जज उस पर एफआईआर दर्ज कर जांच करने के आदेश दे सकते थे। इसके लिए सरकार की अनुमति की जरूरत नहीं होती थी और ऐसे मामले मीडिया में प्रकाशित भी किए जा सकते थे, इस पर किसी तरह की पाबंदी नहीं थी।


दो प्रावधान आपत्तिजनक


राजस्थान के वरिष्ठ अधिवक्ता अजय कुमार जैन कहते हैं कि इस संशोधन अध्यादेश में दो बातें बहुत आपत्तिजनक हैं।


पहली, सरकार ने कोर्ट के माध्यम से जांच के आदेश पर तो सरकारी स्वीकृृति की शर्त लगा दी, लेकिन थाने में एफआईआर दर्ज होने के बाद मामला कोर्ट में जाता है तो ऐसी स्थिति में कोर्ट को सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी। जबकि कोर्ट में परिवाद आते ही इसलिए थे कि थाने में एफआईआर दर्ज नहीं होती थी।


दूसरी आपत्तिजनक बात यह है कि अब तक जितने भी कानून है, उनमें पीड़ित के नाम उजागर करने पर पाबंदी होती है, लेकिन यह पहला कानून होगा, जिसमें जिस व्यक्ति से शिकायत है।


उसका नाम उजागर करने पर पाबंदी लगाई गई है। स्वीकृृति के लिए 180 दिन का समय भी बहुत ज्यादा है। इस अवधि में तो काफी कुछ मैनेज किया जा सकता है।


मचा बवाल


सरकार का यह अध्यादेश वैसे तो करीब एक माह पुराना है, लेकिन यह सामने अब आया है। सोमवार से राजस्थान विधानसभा का सत्र शुरू होने वाला है और इस सत्र में इसे कानून का रूप दे दिया जाएगा।


अध्यादेश के सामने आने के बाद से इस पर बवाल मच गया है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट का कहना है कि सरकार भ्रष्टाचार को संस्थागत स्वरूप प्रदान कर रही है और अपने लोगों की बचाने की कोशिश में लगी है।


पब्लिक यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) का कहना है कि इस अध्यादेश से भ्रष्टाचारियों को कुछ भी करने की छूट मिल जाएगी। हम इसे सोमवार को हाई कोर्ट मे चुनौती देंगे।


उधर सरकार की ओर से संसदीय कार्यमंत्री राजेंद्र राठौड़ का कहना है कि सरकार इसके जरिए झूठे परिवाद पेश कर अधिकारियों को बदनाम करने की प्रवृृत्ति पर रोक लगाना चाहती है, क्योंकि इसके कारण अधिकारी विकास के काम नहीं कर पाते। सरकार की प्रेस सेंसरशिप की कोई मंशा नहीं है।


http://naidunia.jagran.com/madhya-pradesh/harda-neither-ask--muhurt-from-pandit-nor-did-seven-rounds-like-and-eat-betel-and-got-married-1364088?utm_source=naidunia&utm_medium=home&utm_content=p1


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