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न्यूज क्लिपिंग्स् | राष्ट्रद्रोह, राजद्रोह और जनविद्रोह -- कनक तिवारी

राष्ट्रद्रोह, राजद्रोह और जनविद्रोह -- कनक तिवारी

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published Published on Jan 4, 2011   modified Modified on Jan 4, 2011
विनायक सेन के मामले में चुप रहना उचित नहीं होगा. मैं ज़मानत आवेदन के सिलसिले में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में उनका वकील रह चुका हूं. इसलिए मुझे अच्छी तरह मालूम है कि उस स्थिति में विनायक सेन के विरुद्ध पुलिस की केस डायरी में ऐसा कुछ नहीं था कि प्रथम दृष्टि में मामला भी बनता. यह अलग बात है कि हाईकोर्ट ने उनकी ज़मानत मंजूर नहीं की जो बाद में लगभग उन्हीं तथ्यों पर बल्कि पुलिस द्वारा और कुछ साक्ष्य एकत्रित कर लिए जाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में मंजूर हो गई.


दरअसल हो यह रहा है कि राज्यों में आईएएस के नौकरशाह, पुलिस अधिकारी और कुछ सामंती तत्व साहित्य, संस्कृति और विचार के प्रभारी बन बैठे हैं. इंदिरा गांधी के ज़माने तक उनके हाथों में राजकाज की नकेल होती थी, जिन्हें हिन्दी में तर्जुमा करने पर ‘राजनीतिक प्राणी‘ कहा जाता है. विनायक सेन के मामले में मंत्रिपरिषद के सोच का कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है.

मुख्यमंत्री तथा एक दो मंत्रियों को छोड़कर छत्तीसगढ़ में व्याप्त नक्सल समस्या की जानकारी मंत्रिपरिषद और विपक्षी विधायकों तक को ठीक से नहीं है. उन्हें खबरों, घटनाओं, विवरणों और सांख्यिकी वगैरह के बारे में सूचित किया जाता है. विचार विमर्श, अध्ययन, आंतरिक मतभेद, असहमति वगैरह लोकतंत्र के पाए हैं. ये सभी मंत्रिपरिषदों में गायब हैं. ऐसे में पुलिसिया दिमाग को तरजीह मिलती जाती है. उसकी खाकी भाषा में सफेद और काले तक का फर्क नहीं होता है. राजनेताओं के सफेद वस्त्र दैनिक आधार पर मैले हो गए हैं. खाकी वर्दी महीने में एक दो बार धुलती होगी. जो काले कोट पहनकर न्यायतंत्र चला रहे हैं वहां उनका धुलना साल छह महीने में होता होगा. यदि कोई आदिवासी या दलित मंत्री नौकरशाही के पर कतरना भी चाहता है तो उसे घेर-घारकर पस्त हिम्मत कर दिया जाता है.

अंगरेज़ों के ज़माने से लोकअभियोजक को खेल के अंपायर की तरह समझा गया है. प्रिवी कांउसिल की कई नज़ीरों में कहा गया है कि लोक अभियोजक अभियुक्त और थानेदार के बीच निर्णायक होता है. उसे थानेदार का बगलगीर होकर कचहरी की अधगंदी कैंटीन में समोसे खाते हुए पुलिसिया चालान को अभिप्रमाणित नहीं करना चाहिए.

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि विनायक सेन वगैरह के मामले में लोक अभियोजक ने ऐसा अन्वेषण नहीं किया होगा जिससे वह पुलिसिया चालान में खामियां ढूंढ़कर उसे चुस्त दुरुस्त करने की सलाह दे. यदि ऐसा होता तो मामले की इतनी बदरंग शक्ल नहीं होती. यह लतीफा है या कटाक्ष कि मामले में हाईकोर्ट में अपील तो की जा सकती है. हाईकोर्ट कितने दिनों में फैसला करेगा? व्यवस्था की इस बुराई का खमियाजा देश में लाखों न्यायाधीन कैदी भुगत चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों में बार-बार सरकारों को लताड़ लगाई है लेकिन वही ढाक के तीन पात. हाईकोर्ट भी निचली अदालत की मिसल की सकरी गली से गुजरकर न्याय के पाथेय तक पहुंचना चाहेगा.

भारत में अपील न्यायालयों का काम दायें बायें देखना नहीं है. मानो कोल्हू के बैलों की दोनों आंखों पर पट्टी बांध दी जाए और चलने को कहा जाए. यह दुष्ट प्रावधान अंगरेज़ों ने दिया है. हाईकोर्ट इस नियम का अपवाद होना चाहिए. अपील न्यायालय में नई गवाही लेने के प्रावधान भी हैं.

पहली ज़मानत की अर्ज़ी के दरम्यान यह मनोरंजक बात मेरे सामने आई थी कि नारायण सान्याल को जब कत्ल के मामले में आंध्रप्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार कर छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया था तब उसके कुछ अरसा बाद ही छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम लागू किया गया. इस तरह नारायण सान्याल को ही नक्सलवादी घोषित करना तकनीकी तौर पर संभव नहीं था. सान्याल द्वारा दी चिट्ठियां जेल के अंदर यदि किसी व्यक्ति को दी गईं तो जेल के संबंधित अधिकारी अपनी वैधानिक ज़िम्मेदारी से कैसे बरी कर दिए गए? जेल नियम इस संबंध में मुलाकातियों के लिए तो काफी सख्त हैं.

यह पढ़ने में अच्छा लगता है कि राम जेठमलानी के कद के वकील ने विनायक सेन की पैरवी करने का ऑफर दिया है. वे इंदिरा गांधी के हत्यारों के भी चुनिंदा वकील थे. अमित जोगी के ज़मानत आवेदन पत्र पर उन्होंने जो बहस की थी उसमें तैयारी का अभाव दिखलाई पड़ता था बनिस्बत सी.बी.आई. के वकील के.

जनमत को तथाकथित न्यायाधीन रहने की थीसिस का हौव्वा दिखाकर मुंहबंद नहीं किया जाए. साथ-साथ कानूनी लड़ाई तो लड़नी ही होगी.


टेलीविजन पर शीर्ष वकील हरीश साल्वे विक्टोरियन ककहरा ही उच्चारित कर रहे थे कि सब कुछ अपील न्यायालय में ही किया जाना चाहिए. बाहर उसकी आलोचना नहीं होनी चाहिए. देश में सैकड़ों ऐसे मामले हुए हैं जब उन पर चैतरफा टिप्पणियां की गई हैं. इस सिलसिले में किताबें और लेख लिखे जाते हैं जिसके सैकड़ों उदाहरण हैं.

साल्वे वही वकील हैं जिनकी शिकायत पर प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मुकदमा चल रहा है. प्रशांत भूषण ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के आधे मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट रहे हैं. विनायक सेन के मामले में उनके ही खैरख्वाह कमज़ोर पैरवी किए जाने की बात भी कहते हैं. उचित तो यही होगा कि जनमत को तथाकथित न्यायाधीन रहने की थीसिस का हौव्वा दिखाकर मुंहबंद नहीं किया जाए. साथ-साथ कानूनी लड़ाई तो लड़नी ही होगी.

ऐसा नहीं है कि पुलिसिया चालान दंतकथाओं या अफवाहों पर ही आधारित होते हैं. न्यायाधीश की प्रथम दृष्टि के लिए पुलिस किसी न किसी तरह मामला बना ही लेती है. लेकिन अधिकतर मामलों में निचली अदालत के न्यायाधीश की प्रथम दृष्टि में दोष होता है. सभी न्यायाधीश दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के अंतर्गत अपने कर्तव्यों का पालन कहां करते हैं? वे अधिकतर पुलिस की डायरी को अभियुक्त का चरित्र प्रमाणपत्र मान लेते हैं. फिर मामला आगे बढ़ाते चलते हैं, भले ही वह भरभरा कर गिर क्यों नहीं जाए.
 
धारा 167 का कमाल तो दिल्ली के उस मजिस्ट्रेट ने दिखाया था जिसने 1979 में जनता पार्टी द्वारा इंदिरा गांधी को अभियुक्त बनाए जाने वाली केस डायरी के अन्वेषण-तर्कों को खारिज कर दिया था. फलस्वरूप इंदिरा गांधी के खिलाफ मुकदमा नहीं बन पाया. यही वह प्रस्थान बिंदु था जिससे आगे चलकर कांग्रेस ने आंदोलन करके सत्ता में अपनी वापसी की थी. मुझे पता नहीं है कि विनायक सेन के विरुद्ध चार्ज लगाए जाने को लेकर क्या कोई न्यायिक चुनौती दी जा सकती थी?

मानव अधिकार आंदोलन, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आरक्षण, स्वैच्छिक संगठन आदि कुछ आधुनिक प्रबोधन हैं. इनमें अनर्गल तत्व भी घुसे हुए हैं-इससे कौन इंकार कर सकता है. अधिकांश यह नहीं बताते कि उनके वित्तीय स्त्रोत क्या हैं? वे पांच सितारा संस्कृति भी जीते हैं और गांधी की तरह करुणामय दिखाई भी देते हैं. इन कई संगठनों में इतना चुंबकत्व है कि आईएएस के अधिकारी तक अपनी नौकरी छोड़कर उनके पदाधिकारी बन जाते हैं. सेवानिवृत्ति के बाद तो इनमें पदार्पण करने वाले अधिकारियों की लंबी सूची होती है.

किस्सा कोताह यह है कि टाटा, अंबानी, मित्तल, जिंदल वगैरह के लिए तरह तरह के दलाल हैं जिन्हें सब लोग जानते हैं. इनमें से एक नीरा राडिया, ए. राजा को पत्रकारों की मदद से दूरसंचार विभाग का मंत्री बनवाती हैं. फिर इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला होता है. उससे टाटा जैसे उद्योगपतियों को अरबों रुपयों का फायदा बैठे ठाले होता है. इन्हीं रुपयों से छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड वगैरह नए आदिवासी प्रदेशों में लंदन मुख्यालय वाले वेदांती आते हैं. वे औने पौने में भारत की अस्मिता, अस्मत और किस्मत सब कुछ खरीद लेना चाहते हैं.

कभी कभी सुप्रीम कोर्ट, वन तथा पर्यावरण मंत्रालय और राहुल गांधी वगैरह उनके आड़े आते हैं. इन धनाड्यों के लिए ‘छत्तीसगढ़ जन आक्रमण अधिनियम‘ या ‘अवैध आर्थिक डकैती उन्मूलन अधिनियम‘ जैसे कानून विधायिकाएं नहीं बनातीं. उनके प्रकरण न्यायालयों में इतनी मंथर गति से चलते हैं जैसे कुश्ती से रिटायरमेंट के बाद खली. जनस्मृति क्षीण होती है. लोग ऐसे अपराधियों को भूल जाते हैं. लेकिन स्मृति-जन कभी क्षीण नहीं होते. इतिहास उन्हें सदैव याद रखता है.

आरोप यह भी लगाया गया कि विनायक सेन को सलवा जुड़ूम का विरोध करने के कारण झूठा फंसाया गया. यदि विनायक सेन नारायण सान्याल से मिलने नहीं जाते या अन्य तरह से उनका ज्ञात अज्ञात नक्सलियों से संपर्क नहीं होता तो पुलिस इतनी उर्वर नहीं है कि वह पूरे के पूरे झूठे साक्ष्य गढ़ लेती. आग है तभी तो धुआं होगा लेकिन नक्सलियों के गैर कानूनी उद्देश्यों के लिए विनायक सेन ने सायास पहल की होगी-ऐसा नहीं लगता. विनायक सेन ऐसे षड़यंत्रों की गंभीरता को समझते हैं.

जिस देश में सरकारें लूट में लगी हों और सुप्रीम कोर्ट के जज के घर से धंधा चल रहा हो, उसकी सरकारों को हिंसा पर गांधी की मुद्रा में व्याख्यान देने का वैधानिक या नैतिक अधिकार नहीं है.


शंकर गुहा नियोगी से मेरा भावनात्मक रिश्ता भी रहा है. मैं नियोगी की टीम के सभी लोगों से वर्षों से परिचित हूं. राजनीति में हिंसा आक्रमण का हथियार है और जवाबी हथियार भी. ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीयों पर हमला किया. लाठियों से कुचले हुए लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिए भगतसिंह आदि ने अंगरेज सार्जेंट सांडर्स को मार डाला. लेकिन ऐसी हिंसा का भी विरोध गांधी ने किया. सरकारें जनता के खेत, खलिहान, वनोत्पाद, जीवन यापन के स्त्रोत, गृहस्थी वगैरह सभी को उजाड़ने का उपक्रम कर रही हैं. निहत्थी जनता के क्रोध को हिंसा में तब्दील करने का काम नक्सली कर रहे हैं. कथित माओवाद यद्यपि भारत में बेमानी है. माओवाद तो चीन में ही पूंजीवाद बन गया है. वहां दुनिया के सबसे पहले और बड़े विशेष आर्थिक क्षेत्र दैत्य बनकर जनता को लील रहे हैं.

हिंसा का समर्थन करना लोकतंत्र में आत्महत्या करने के बराबर है. नक्सलवाद का घिनौना चेहरा लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण नहीं है. गांधी ने सत्य के लिए अहिंसा तक को छोड़ देने का एकाध उल्लेख किया था. सरकारें हर तीन महीने के बाद महंगाई को कम करने का वादा करें. किसानों की आत्महत्या की दर में बढ़ोतरी करें. भ्रष्टाचार के किस्सों को अपने लिए प्रातः पठित हनुमान चालीसा समझें. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की परवाह नहीं करें. लाखों टन अनाज सड़ाएं. लाखों टन खनिज का निर्यात करें ताकि वह चीन और जापान के समुद्रों में दफ्न कर दिया जाए और भारत खोखला होता रहे. वह सलवा जुडूम को सफल बनाने की कसम खाकर उसका मटियामेट कर दें. वह औने पौने में बाल्को जैसे कारखाने को बेच दें. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के सरकारी घर से उनके बिल्डर बेटों के दफ्तरों का पंजीयन हो. सुप्रीम कोर्ट के हर रिटायर होते जज को लेकर किस्से गढ़े जाएं.

यह सब जिस देश में हो रहा हो उसकी सरकारों को हिंसा पर गांधी की मुद्रा में व्याख्यान देने का वैधानिक या नैतिक अधिकार नहीं है. जन विद्रोह में हिंसा की गंध तो स्वयमेव मिली होती है. नक्सली भारत हितैषी नहीं हैं, लेकिन वे भारतीय हैं. वे विदेशी आतंकवादी नहीं हैं बल्कि उनमें विदेशीवाद का आतंक घर कर गया है. वे राजद्रोह करने से नहीं चूकते लेकिन समझते हैं कि वे देशद्रोह नहीं कर रहे हैं. वे आदिवासियों के पूरी तौर पर खैरख्वाह नहीं हैं लेकिन आदिवासी हितों के मुखौटे तो बन गए हैं. आदिवासियों के चेहरे सरकारों ने लहूलुहान कर रखे हैं.

नक्सली भारतीय इतिहास में एक जरूरी निष्कृति की तरह उग तो आए हैं. कम्युनिस्ट पार्टी का यह सबसे विध्वंसक धड़ा है जिसका विरोध कम्युनिस्ट पार्टी के बाकी के वे घटक तक करते हैं जो चुनाव के जरिए लोकतंत्र में विश्वास करते हैं. इसके बावजूद नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों को जिबह किया जाना सरकारों से जिरह की मांग करता है. यदि ऐसा नहीं होता तो दुनिया के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में विनायक सेन की सजा एक बड़ी उथल पुथल पैदा नहीं करती. विनायक सेन इसलिए भारत को एक लंबे यातनागृह के रूप में विकसित करने की साज़िश के प्रतीक बना दिए गए हैं. पता नहीं सरकारों के प्रवक्ता कब तक उसके प्रतीक बने रहेंगे.


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