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न्यूज क्लिपिंग्स् | रिहाई के रास्ते--- मुजतबा मन्नान

रिहाई के रास्ते--- मुजतबा मन्नान

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published Published on Jun 29, 2016   modified Modified on Jun 29, 2016
अक्सर सलाह दी जाती है कि ‘कुछ भी करना भइया, लेकिन कोर्ट-कचहरी के चक्कर में कभी मत पड़ना।' घर-परिवार में भी बड़े-बुजुर्गों से समय-समय पर वकील, पुलिस और अदालतों को लेकर कहावतें और लोकोक्तियां सुनने को मिलती रहती हैं। एक संबंधी पर मुकदमा दर्ज होने के कारण मेरा पाला कचहरी से पड़ गया और इसकी जटिलताओं को अनुभव करना पड़ा।

पुलिस स्टेशन से मुकदमे के कागज लेकर मैं वकील से मिलने कचहरी पहुंचा। आपसी परिचय के बाद मैंने वकील साहब को कागजात दिखाए। कागज पढ़ कर वकील साहब लंबी सांस लेते हुए बोले- ‘चिंता मत करो, दो दिन में जमानत करा दूंगा।' वकील साहब की बात सुन कर मैंने राहत की सांस ली। फिर उन्होंने मुकदमा लड़ने की अपनी फीस बताई, तो मैंने निवेदन किया- ‘वकील साहब, फीस थोड़ी कम कर दीजिए। गरीब घर का बच्चा है, घर में कोई और कमाने वाला भी नहीं है।' मेरी बात सुन कर वकील साहब ने गर्दन हिलाते हुए कहा- ‘देखिए भाई साहब, यहां गरीब लोग ही आते हैं, अमीर लोग तो घर बैठे ही अपना काम करवा लेते हैं। यों यह अमीर-गरीब का नहीं, कोर्ट-कचहरी का मसला है। इसमें कागजी कार्रवाई वगैरह में खर्चा आता है।'

आखिरकार फीस लेने के बाद वकील साहब ने मुझे दो दिन बाद मिलने के लिए कचहरी बुलाया। दो दिन बाद मुलाकात के दौरान वकील साहब ने चाय की चुस्कियां लेते हुए कहा- ‘देखो, बहस हो चुकी है। कल फैसला आ जाएगा।' मैं दूसरे दिन जब कचहरी पहुंचा तो वकील साहब ने कहा- ‘जमानत अर्जी खारिज हो गई। अब दोबारा अर्जी लगानी पड़ेगी और उसमें लगभग एक सप्ताह का समय लग जाएगा।' करीब एक सप्ताह बाद मैं फिर वकील साहब से मिलने कचहरी पहुंचा तो उन्होंने मुझे इंतजार करने के लिए कहा। पूरा दिन इंतजार कराने के बाद शाम को कचहरी से निकलते समय उन्होंने कहा- ‘देखो, मैंने अपनी तरफ से पूरी कागजी कार्रवाई कर दी। अब देखते हैं कोर्ट से क्या फैसला आता है।

कोर्ट-कचहरी के मसलों में समय तो लगता ही है।' मैंने साहस करके पूछा- ‘वकील साहब, आपने तो दो दिन में ही जमानत कराने के लिए कहा था और अब आप बोल रहे हैं कि इसमें समय लगेगा?' यह सुन कर वकील साहब भड़क गए और गुस्से में बोले- ‘देखो, यह कोर्ट-कचहरी का मसला है, इसमें समय लगता है। अगर तुम्हें ज्यादा ही जल्दी है तो कोई दूसरा वकील ढूंढ़ लो।' इस तरह लगभग तीन महीने तक मैं अदालत के चक्कर काटता रहा। हर मुलाकात पर वकील साहब का चाय और कागजों का खर्चा निकल आता था। लगभग चौदह-पंद्रह मुलाकातों के बाद जमानत की अर्जी मंजूर हो गई। लेकिन जमानत मिलने के बाद नई चुनौतियां सामने आ खड़ी हुर्इं। जैसे जमानत के लिए कागजी कार्रवाई के खर्चे और बॉण्ड भरने के लिए पैसे का जुगाड़ करना। लगभग तीन महीने के अनुभव से मुझे पता चला कि जेल में कई ऐसे कैदी बंद हैं, जिनकी जमानत अर्जी मंजूर हो गई है और कुछ कैदी अपनी सजा की मियाद पूरी कर चुके हैं। लेकिन उनके पास जुर्माना भरने और जमानत के लिए पैसे नहीं हैं। इसलिए वे जेल में बंद हैं। इन कैदियों पर पांच सौ से लेकर तीन हजार रुपए तक का जुर्माना है।

ज्यादातर कैदी गरीब और कमजोर तबके से हैं, जो पैसों की वजह से जमानत नहीं ले पा रहे और इसलिए वे जेलों में ही बंद हैं। सवाल यह भी है कि अदालती मुकदमों में जटिलताओं के चलते विचाराधीन कैदियों को जेल में ही कैद करके रख लिया जाता है। आज देश की अदालतों में लाखों मामले विचारधीन हैं, जिनमें सालों से कोई फैसला नहीं हो पा रहा है। छोटी-बड़ी जेलों समेत कुल तादाद एक हजार तीन सौ बयासी कारागारों में लगभग तीन लाख पचासी हजार कैदी बंद हैं, जिनमें 66.2 फीसद कैदी विचारधीन हैं। इनमें ज्यादातर युवाओं के अलावा महिलाएं भी अपने बच्चों के साथ रहने को मजबूर हैं। इसके अलावा, मुकदमों को लटकाते रहना वकीलों को फायदेमंद लगता है। वे अपनी कमाई जारी रखने के लिए तारीख लेते रहते हैं, क्योंकि वे हर पेशी पर कुछ न कुछ खर्चा दिखा कर पैसा वसूलते हैं।

सूदखोर और अमीर लोगों को यह देरी अच्छी लगती है, क्योंकि वे पैसों के बल पर जमानत लेकर आसानी से बाहर आ जाते हैं और फिर तारीख बढ़वाते रहते हैं। लेकिन गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों के लिए हालात और भी बदतर हो जाते हैं। उनके लिए अदालती प्रक्रिया के खर्चों के साथ जमानत लेना भारी पड़ता है। इसलिए आज मौजूदा कार्यप्रणाली में बाहुबल, पैसा और राजनीतिक पहुंच वाले लोग आमतौर पर कामयाब हो जाते हैं। कोई भी इंसान जेल में नहीं रहना चाहता है। हर किसी को सजा पूरी करने के बाद रिहाई का हक है। अगर छोटे-मोटे मुकदमों में बंद और सजा काट चुके लोग छूट जाएं, तो वे अपने परिवार की मदद कर सकते हैं।


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