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न्यूज क्लिपिंग्स् | लैंगिक भेदभाव के खिलाफ खड़ा साल--

लैंगिक भेदभाव के खिलाफ खड़ा साल--

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published Published on Dec 28, 2018   modified Modified on Dec 28, 2018
साल 2018 भारत की महिलाओं के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। अधिकारों के नजरिए से देखें, तो उन्होंने फिर से अपना सही मुकाम हासिल किया। यह वर्ष देश की शीर्ष अदालत द्वारा महिलाओं के पक्ष में ऐतिहासिक फैसले सुनाने का भी गवाह बना। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को रद्द किया, महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में पूजा-अर्चना के सांविधानिक अधिकार दिए, ‘तीन तलाक' खत्म किया, एडल्टरी यानी व्यभिचार को अपराध के दायरे से बाहर किया और निर्भया के बलात्कारियों को फांसी का फरमान सुनाया। इन सबके बीच ‘मी टू' अभियान भी भारत में तेजी से बढ़ा, और मानव-तस्करी रोधी विधेयक तथा सरोगेसी (विनियमन) विधेयक लोकसभा से पारित हुए।

सबरीमाला मंदिर में हर उम्र की महिलाओं या लड़कियों के प्रवेश को मान्यता देने वाला फैसला पांच जजों की सांविधानिक पीठ ने दिया, जिसमें तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, आर एफ नरीमन, ए एम खानविलकर, डी वाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा शामिल थे। इस माहौल को बनाने में ‘राइट टु प्रे'अभियान भी खासा मददगार साबित हुआ, जो इस फैसले से पहले और बाद में भी सोशल मीडिया पर जारी रहा। अपने आधिकारिक बयान में सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि ‘धर्म में मौजूद यह दोहरा मानदंड खत्म होना चाहिए कि एक तरफ वह महिलाओं को देवी मानकर उनका महिमा-मंडन करता है, तो दूसरी तरफ उनकी धर्मनिष्ठा पर तमाम तरह के सख्त प्रतिबंध आयद करता है... भक्ति में लैंगिक भेदभाव नहीं हो सकता'।

लगभग उसी समय, सर्वोच्च न्यायालय ने एक साथ ‘तीन तलाक' की परंपरा को भी असांविधानिक बताया और मुस्लिम पुरुषों द्वारा लिखकर, सोशल मीडिया के जरिए, फोन या मैसेज आदि से एक साथ तीन बार ‘तलाक' कहकर पत्नी से रिश्ता तोड़ने वाला चलन समाप्त कर दिया। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने एक साथ तीन तलाक को आपराधिक कृत्य मानने वाले अध्यादेश को अपनी मंजूरी दे दी है। फिलहाल इससे संबंधित विधेयक संसद के हवाले है। लोकसभा ने साल बीतते-बीतते इसे पारित भी कर दिया है।

शीर्ष अदालत ने भारतीय दंड संहिता की 158 साल पुरानी धारा 487 को भी रद्द कर दिया। इसमें एडल्टरी को अपराध माना गया था और महिला द्वारा पति के अलावा किसी दूसरे पुरुष के साथ संबंध बनाने को गैर-कानूनी। सर्वोच्च अदालत ने इस कानून को महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण माना, क्योंकि यह उनकी पहचान, शरीर और पसंद पर उनका अपना अधिकार नहीं रहने देता। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने फैसला सुनाते हुए कहा, ‘ऐसा कानूनी प्रावधान, जो महिलाओं की व्यक्तिगत गरिमा और समानता को प्रभावित करता हो, संविधान के प्रति नाराजगी को न्योता दे सकता है। अब यह कहने का समय आ गया है कि पति अपनी पत्नी का मालिक नहीं है। एक सेक्स को दूसरे से श्रेष्ठ मानना गलत होगा'।

साल के अंत में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को भी अवैध घोषित कर दिया। समलैंगिकता को अपराध से बाहर करते हुए तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के शब्द थे, ‘एलजीबीटी समुदाय को भी किसी सामान्य नागरिक की तरह सांविधानिक अधिकार हासिल हैं। एक-दूसरे के अस्तित्व और अधिकारों का सम्मान करना सबसे बड़ी मानवता है। समलैंगिक शारीरिक रिश्तों को अपराध मानना तर्कसंगत नहीं है। किसी व्यक्ति की प्राकृतिक पहचान को उसके अस्तित्व के लिए निहायत जरूरी माना जाना चाहिए। हमें वह सब कुछ प्राकृतिक मानना चाहिए, जो हमें प्रकृति से मिलता है। इसीलिए किसी इंसान के व्यक्तित्व के इस पहलू का सम्मान किया जाना चाहिए, न कि उसका तिरस्कार या उसे नीचा दिखाया जाना चाहिए।' उन्होंने आगे कहा, ‘मैं जैसा भी हूं, पर मेरा अस्तित्व है और मुझे इसी रूप में कुबूल किया जाना चाहिए। एलजीबीटी समुदाय से इतिहास को माफी मांगनी चाहिए।'

दुनिया भर में चले ‘मी टू' अभियान ने इस साल भारत में अपनी धमक दिखाई और एक के बाद दूसरे कई मामले सामने आए। नाना पाटेकर, साजिद खान, आलोक नाथ, चेतन भगत जैसी कई नामचीन हस्तियों पर कार्य के दौरान महिलाओं के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा। हालांकि केवल नामी-गिरामी लोग ही इसकी चपेट में नहीं आए, बल्कि तमाम संगठनों और क्षेत्रों के कई ऐसे पुरुषों के नाम भी उजागर हुए, जिन्होंने कार्यस्थल पर पीड़िताओं के साथ मर्यादा की सीमा लांघी थी।

मानव तस्करी, खासतौर से महिलाओं और बच्चों का व्यापार रोकने वाला, पीड़ितों को पुनर्वास मुहैया कराने और अपराधियों पर मुकदमा चलाने वाले विधेयक को लोकसभा की मंजूरी मिलना भी सुखद रहा। हालांकि 2018 के शीत सत्र में लोकसभा ने सरोगेसी विनियमन विधेयक भी पारित किया, जिसमें ‘कॉमर्शियल सरोगेसी' यानी वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए किराये पर कोख देना प्रतिबंधित किया गया और करीबी सगे-संबंधियों में ही गर्भधारण की अनुमति दी गई। सरोगेसी पर यूं रोक लगाने का आधार महिलाओं के शोषण को रोकना था। अदालत की टिप्पणी थी- ‘सरोगेसी के निर्धारण का कानून न होने के कारण सरोगेसी प्रथा का दुरुपयोग हुआ है, और इसी कारण व्यावसायिक सरोगेसी और इससे जुडे़ अनैतिक व्यवहार तेजी से फले-फूले हैं'।

इन तमाम उदाहरणों के साथ निर्भया गैंगरेप का जिक्र भी लाजिमी है। 2012 की इस घटना ने देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। उसने एक बड़ा सामाजिक आंदोलन खड़ा कर दिया, जो व्यवस्थागत विफलता और स्त्री-जाति से द्वेष रखने वाले सामाजिक सोच को उजागर करने वाला था। शीर्ष अदालत ने इस साल इसके तीन दोषियों की मौत की सजा बरकरार रखी। हालांकि मौत की सजा सुनाए जाने के बाद भी इस फैसले पर अब तक अमल नहीं हो पाया है, क्योंकि दोषियों के पास अब भी ‘क्यूरेटिव पिटिशन' और दया याचिका का विकल्प मौजूद है। जाहिर है, जैसे ही ये दोनों खारिज हो जाएंगे, इस सजा पर अमल हो जाएगा।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-opinion-hindustan-column-on-28-december-2334086.html


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