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न्यूज क्लिपिंग्स् | विकास दर और जीवन स्तर- एम के वेणु

विकास दर और जीवन स्तर- एम के वेणु

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published Published on Feb 6, 2015   modified Modified on Feb 6, 2015
जग सरकार का पहला पूर्ण बजट गंभीर वैश्विक मंदी की पृष्ठभूमि में तैयार किया जा रहा है। यूरोजोन की डगमगाती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बृहस्पतिवार को ही यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने 13 खरब डॉलर के आपूर्ति कार्यक्रम की घोषणा की है। जापान की अर्थव्यवस्था भी लुढ़क रही है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक तिहाई का योगदान करने वाली चीन की अर्थव्यवस्था भी खास्ता है।

ब्रिक्स समेत तमाम उभरती अर्थव्यवस्थाएं, जिन्होंने 2003 से 2008 के बीच की तेजी के दौरान सात फीसदी की ऊंची विकास दर को छुआ था, अब 3.5 फीसदी की दर से विकास कर रही हैं। यानी वैश्विक अर्थव्यवस्था में सब कुछ ठीक नहीं है। अमेरिका विकास दर में सुधार के प्रारंभिक संकेत दे रहा है, पर स्पष्ट नहीं है कि यह टिकाऊ होगी, क्योंकि वैश्विक उपभोक्ता वस्तुओं, खासकर तेल की कम होती कीमत उसे सुधारने में मददगार नहीं हो सकती।

वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी के नकारात्मक प्रभाव से भारत अछूता नहीं रह सकता। भारत ने 8.5 फीसदी की ऊंची विकास दर केवल तभी दर्ज की थी, जब वैश्विक अर्थव्यवस्था 4.5 फीसदी की दर से विकास कर रही थी। मगर अभी वैश्विक अर्थव्यवस्था करीब 2.5 फीसदी की दर से विकास कर रही है, ऐसे में भारत की विकास दर का 5.5 फीसदी से छह फीसदी से ज्यादा होना संभव नहीं है।

इसलिए वित्त मंत्री अरुण जेटली को अपने पहले पूर्ण बजट में वैश्विक कारकों को गंभीरता से ध्यान में रखना होगा, क्योंकि महज 20 खरब डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था 770 खरब डॉलर की वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के लिहाज से बहुत छोटी है। भारत की अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था के तीन फीसदी से भी कम है। सौ खरब डॉलर की चीन की अर्थव्यवस्था हमारी अर्थव्यवस्था से पांच गुना है। इसलिए यदि विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक, भारत की विकास दर 2016 में चीन की विकास दर से ज्यादा होती है, तो इस पर खुश होने का कोई कारण नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर चीन ने बड़ी उपलब्धि हासिल की है, जो उच्च विकास दर हासिल करने की तुलना में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। स्वाभाविक रूप से छोटे आधार वाली अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर ऊंची रहनी चाहिए। एक बार जब अर्थव्यवस्था का आकार सौ खरब डॉलर से बड़ा हो जाता है, तो ऊंची विकास दर को बनाए रखना मुश्किल होता है, जैसा कि चीन के साथ हो रहा है। इसलिए झूठी संतुष्टि के भ्रम में फंसने के बजाय हमें देश के गरीबों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

यदि भारत छह से सात फीसदी की मध्यम विकास दर के साथ भी नीचे के 50 करोड़ लोगों के जीवन में बेहतरी लाने में सफल होता है, तो वाकई संतुष्ट होने का कारण है। सरकार को चीन या अन्य प्रतिद्वंद्वी अर्थव्यवस्थाओं से बेहतर विकास दर हासिल करने में उलझने के बजाय लोगों के जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। अरुण जेटली की तात्कालिक चुनौती बुनियादी संरचनाओं के विकास के लिए निवेश को पुनर्जीवित करने की है, जिससे रोजगार भी बढ़ेगा। जेटली ने पहले ही रेखांकित किया है कि आर्थिक विकास को पुनर्जीवित करने के लिए बजट सार्वजनिक निवेश से प्रेरित रणनीतियों पर केंद्रित होगा। यह दिलचस्प है, क्योंकि भारत और विश्व, दोनों की अर्थव्यवस्था इस समय गिरावट के चक्र में फंसी है, जिसके वैश्विक उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में ताजा गिरावट के कारण आगे और भी गहराने की आशंका है।

यह रेखांकित करना दिलचस्प है कि वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार भी पांच वर्षों (1998 से 2003) के लिए उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में वैश्विक गिरावट में फंस गई थी, जिसका नतीजा हुआ कि वर्ष 2000-01 से 2002-03 के दौरान औसत जीडीपी विकास दर पांच फीसदी से नीचे आ गई थी। यही वह दौर था, जब वाजपेयी ने सड़क, ऊर्जा और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में व्यापक स्तर पर सार्वजनिक निवेश की शुरुआत की थी। मोदी और जेटली ठीक उन्हीं स्थितियों में फंसे हैं, जिनमें वाजपेयी और यशवंत सिन्हा/जसवंत सिंह वर्ष 2000 से 2003 के बीच फंसे थे। दो अवधियों के बीच की समानताएं अलौकिक हैं।

जेटली ने सार्वजनिक निवेश प्रेरित विकास रणनीति संबंधी कीन्स के विचार से भी सहमति जताई है। रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने भी इस लेखक के सामने ऐसी ही भावना व्यक्त करते हुए कहा कि भारतीय रेल के आधुनिकीकरण और क्षमता विस्तार के लिए अगले पांच वर्षों में करीब सौ अरब डॉलर से ज्यादा धन की जरूरत होगी। यदि इसे गंभीरतापूर्वक लागू किया जाता है, अगले पांच वर्षों में रेल अकेले देश की जीडीपी में करीब दो फीसदी जोड़ सकता है। स्पष्ट है कि राजग सरकार सड़क, परिवहन, ऊर्जा जैसी बुनियादी संरचनाओं के विकास के लिए सार्वजनिक निवेश की रणनीति का प्रयोग करेगी। राजग सरकार के पास और कोई विकल्प नहीं है कि वह बुनियादी संरचनाओं में सरकारी निवेश करे। मंदी के इस दौर में, जब निजी कंपनियां नया धन निवेश करने में अक्षम हैं, सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का रचनात्मक उपयोग करना चाहिए।

ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता मांग को पुनर्जीवित करने के लिए सरकार को उन किसानों के हित में अपने मूल्य स्थिरीकरण कोष का विस्तार करने की जरूरत है, जो कृषि उत्पादों की घटती कीमतों से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। मोदी ने किसानों से उनकी उपज का उच्च मूल्य देने का वायदा किया था। यही सही वक्त है कि वह अपना वायदा पूरा करें, क्योंकि कृषि उत्पादों का मूल्य वैश्विक स्तर पर तेजी से घटा है, जो किसानों की आय पर नकारात्मक असर डाल रहा है। पिछले बजट में स्थापित मूल्य स्थिरीकरण कोष का विस्तार करते हुए इसमें विशेष रूप से नकदी फसल को भी शामिल करना चाहिए। कुछ दिनों पहले मुंबई के बड़े व्यवसायियों को संबोधित करते हुए अमित शाह ने कहा कि भाजपा उनके 'सुधार' की परिभाषा से सहमत नहीं है और एक कल्याणकारी राज्य के निर्माण का प्रयास करेगी। क्या ऐसा बजट में परिलक्षित होगा?


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/growth-rate-and-quality-of-life-hindi/


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