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न्यूज क्लिपिंग्स् | विरले होते हैं दयाशंकर जैसे अफसर

विरले होते हैं दयाशंकर जैसे अफसर

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published Published on Sep 17, 2012   modified Modified on Sep 17, 2012
भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी रहे दयाशंकर की ऑस्ट्रेलिया में मरने की खबर से एक ऐसे ईमानदार चरित्रबल वाले अधिकारी की याद ताजा हो उठी है, जिसने अपने कर्तव्यपरायणता से यह सिद्ध किया कि ईमानदार अफसर मुश्किल परिस्थितियों का भी कैसे डट कर मुकाबला करते हैं.

दयाशंकर ने 80 के दशक में स्मगलिंग की दुनिया में बादशाहत कायम कर चुके अपराधियों को उस खौफ से रू-ब-रू करवाया, जो विरले ही देखने को मिलते हैं. ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ होने के साथ-साथ, निडर और निर्भय रहने का जो गुण दयाशंकर में था, वह उन्हें दूसरे अफसरों से अलग करता है.

दयाशंकर पर बहुत पहले एक पुस्तक आयी-ग्रिट दैट डिफाइड आड्स : रिफ्लेक्शन ऑफ ए रेवेन्यू ऑफिसर (चरित्र, जिन्होंने विषम हालातों को पछाड़ा : एक राजस्व अधिकारी के संस्मरण). यह पुस्तक कस्टम के ही एक अधिकारी एके पांडे ने लिखी है.

राजस्व सेवा में लंबा अनुभव रखनेवाले एके पांडे ने 1975 के आपातकाल से लेकर, सुधारों के नये दौर व गंठबंधन सरकारों की कार्यशैली को बारीकी से देखा है. वह 2002 में इकोनॉमिक इंटेलीजेंस ब्यूरो में डायरेक्टर जनरल व विशेष सचिव के पद से रिटायर हुए हैं. वह सेंट्रल बोर्ड ऑफ एक्साइज एंड कस्टम्स के चीफ विजिलेंस अफसर रहे हैं. हांगकांग के भारतीय मिशन के लिए भी इन्होंने काम किया है.

इस अधिकारी ने ही अपनी पुस्तक ग्रिट दैट डिफाइड ऑड्स में दयाशंकर पर एक अध्याय लिखा है.
वह लिखते हैं केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, बमुश्किल ही कोई ऐसा विभाग है, जहां भ्रष्टाचार नहीं हो. मीडिया में जिस तरह बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की खबरें आ रही हैं, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थितियां कितनी बिगड़ गयी हैं.

यह कहना मुश्किल है कि कौन-सा विभाग या कौन-सी सेवा दूसरे से अधिक भ्रष्ट है. पिछले कुछ सालों में आयकर, सीमा शुल्क (कस्टम्स) और केंद्रीय उत्पाद शुल्क (सेंट्रल एक्साइज सर्विसेज) जैसे विभागों में भ्रष्टाचार की खबरें आती रही हैं. इससे इन विभागों में छवि यह बनी है कि ये सबसे भ्रष्ट लोक सेवाएं हैं. जो इस सेवा से जुड़ा है और खुद को गौरवान्वित महसूस करता है, उसे जानकर धक्का पहुंचेगा कि आम जनता के बीच इस सेवा की छवि भ्रष्ट बनी है.

ऐसी छवि बनने का मतलब है कि लोग पूरे विभाग को भ्रष्ट बताते हैं. पर अल्पमत ही सही पर वैसे अधिकारी भी हैं, जो भ्रष्ट नहीं हैं. ऐसे भी अफसर हैं, जो दुनिया में किसी भी बेहतर अधिकारी की श्रेणी में आते हैं. इनकी उपलब्धियां भ्रष्ट अधिकारियों की करतूतों के कारण ठीक से सामने नहीं आ पातीं. सार्वजनिक जीवन की यह प्रकृति होती है कि कुछ देर के लिए ईमानदार अधिकारियों की उपलब्धियां सराही जाती हैं, पर फिर वे एकदम से भुला दिये जाते हैं.

कुछ ही ऐसे अपवाद होते हैं, जो कभी नहीं मिटते, क्योंकि ऐसे लोग इतिहास की धारा पलटनेवाले लोग होते हैं. जैसे आइंस्टीन या गांधी. कुछ वैसे होते हैं, जो अपने काम से लोगों पर गहरी छाप छोड़ते हैं, पर प्राय: यही होता है कि उनकी उपलब्धियों पर धूल जम जाती है. फिर जिंदगी आगे बढ़ती जाती है. कभी-कभी कुछ जिज्ञासु लोग यह धूल हटाते हैं और ऐसे गुमनाम नायकों को खोज निकालते हैं. सभी सेवाओं में ऐसे लोग मिल जायेंगे, जिन्होंने एक गहरी छाप छोड़ी है.

सीमा और केंद्रीय उत्पाद शुल्क में भी कई ऐसे नायक रहे हैं. ऐसे नायकों की जो कार्यशैली रही है, वह सेवा की मूल भावना से पूरी तरह ओत-प्रोत रही है. भ्रष्ट वातावरण में रह कर अपने कर्तव्य का निर्वहन करना, किसी चुनौती से कम नहीं है. कई बार ऐसा होता है कि उन्हें अपना जीवन भी दावं पर लगाना पड़ता है. पर फिर भी ऐसे नायक धारा के विपरीत जाना पसंद करते हैं. किसी दबाव या प्रलोभन में भी ये मूल्य बने रहते हैं. इनकी दो खास विशेषता रही है-पहला, एक विचार या मकसद के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता और दूसरा अदम्य साहस. वह जिस ऊंचे चरित्रबल के होते हैं, वहां उनके लिए नाम, पैसा, यश सब निर्थक हो जाते हैं. ऐसे ही एक नायक हैं दयाशंकर.

ऑफिसर दयाशंकर बिहार के मध्यम वर्गीय परिवार से आते थे. सिविल सेवा की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने 1978 में कस्टम्स एंड सेंट्रल एक्साइज सर्विस(सीमा और केंद्रीय उत्पाद शुल्क) ज्वाइन की. उनकी बातचीत करने की शैली इतनी प्रभावी थी कि कोई भी आसानी से समझ सकता था कि वह एक अच्छे छात्र रहे होंगे. परिवीक्षा के बाद उनकी नियुक्ति बंबई में हुई. बंबई में शुरुआती पोस्टिंग बंबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कस्टम्स के असिस्टेंट कलेक्टर के रूप में हुई. वहां भी उनकी उपस्थिति को महसूस किया गया. यह तो महज एक शुरुआत थी.

1980 के दशक में सोना, घड़ियां, इलेक्ट्रानिक उत्पादों और दूसरी उपभोक्ता वस्तुओं की स्मगलिंग अपनी ऊंचाई पर थी. कच्छ से लेकर कलकत्ता तक स्मगलिंग का धंधा होता था. पर भारत के पश्चिमी तटों पर यह धंधा जोरों पर था. खास कर गुजरात और महाराष्ट्र के समुद्र तटों पर. इन तटों से खाड़ी के देशों से संपर्क स्थापित करना आसान था. भारत और खाड़ी के देशों से व्यापार तो सदियों से होता रहा है.

आधुनिक युग में खाड़ी के देशों में कई ऐसे तटीय शहर हैं, जो बेहद समृद्ध रहे हैं. ऐसा ही एक शहर है दुबई. दुबई से भारतीय बंदरगाहों तक स्मगलिंग का सामान लाना उन दिनों आम बात हो गयी थी. जो स्मगलर्स उन दिनों उभरे, वो गुजरात और महाराष्ट्र के ही थे. बंबई तो हमेशा ही देश का सर्वाधिक प्रमुख व्यावसायिक और वाणिज्यिक केंद्र रहा है. चाहे वह वैध वित्तीय लेन-देन हो या अवैध सबका मुख्य केंद्र बंबई ही था. देश में कहीं कोई स्मगलिंग का मामला हो या हवाला से लेन-देन, हमेशा उसका जुड़ाव बंबई से रहा है. ये दोनों राज्य ऐसे हैं, जहां कई बड़े शहर हैं. समृद्ध शहर.

इसमें कोई शक नहीं कि 1975 से पहले बंबई में हाजी मस्तान, वरदराज मुनूस्वामी मुदलियार और यूसुफ पटेल स्मगलिंग के बड़े नाम थे, वहीं सुकूर नरन बखिया, भाना खाल्पा और लल्लू जोगी जैसे नाम दमन में हावी थे. उनमें से कइयों को कोफेपोसा के तहत गिरफ्तार किया गया और जब आपातकाल हटा, तो उन्होंने जय प्रकाश नारायण के सामने आत्मसमर्पण किया. इनमें से कइयों का बाद में कुछ भी पता नहीं चला. कुछ ऐसे थे, जैसे हाजी मस्तान जिसने राजनीति में आने की अपनी इच्छा दिखायी थी. लेकिन ऐसा नहीं था कि स्मगलिंग की दुनिया ठहर गयी, बल्कि एक नये तेवर के साथ यह फिर अवतरित हुई. 80 की शुरुआत में ही हाजी मस्तान की छाया एक ऐसे युवक पर पड़ी, जो उसके मातहत काम करता था. यह युवक था दाऊद इब्राहीम.


http://prabhatkhabar.com/node/208226?page=show


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